दिल्ली में दहशत और हिंसा के असली गुनहगार कौन ?

                                             

–           मुरली मनोहर श्रीवास्तव

सीएए पर विरोध के लिए दिल्ली में भीड़ इकट्ठी हुई और आवागमन प्रभावित हुआ, इसके बावजूद दिल्ली में शांतिपूर्वक चुनाव संपन्न हुआ और एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार का गठन हुआ। चुनाव के दौरान तीखी नोक झोंक के बावजूद कहीं कोई हिंसक घटनाएं नहीं हुई लेकिन सरकार गठन के कुछ दिन बाद ही दिल्ली धधक उठी। जहां कानून व्यवस्था की जिम्मेवारी केंद्र सरकार के पास है और बाकी विभागों की जिम्मेवारी दिल्ली सरकार के पास है। उपद्रवी को इस बात से क्या मतलब है कि कानून के देखभाल की जिम्मेवारी किसके पास है, व्यवस्था कौन देख रहा है। उन्हें सिर्फ नफरत और द्वेष को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ने में तनिक भी अफसोस नहीं है। दिल्ली में जितने लोगों की मौत हुई है और घायल हुए हैं। क्या उनके परिवार के लिए दंगाईयों को सोचना नहीं चाहिए।

दिल्ली को दिल वालों का शहर कहा जाता है। जहां लोग मिल्लत और अमन चैन के साथ एक दूसरे के लिए जीते थे, आज उसी शहर को न जाने किसकी नजर लग गई है। तभी तो नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के समर्थक और विरोधी रोज-ब-रोज खून की होली खेल रहे हैं। इस हिंसा की आग में जलकर अब तक 35 लोग हलाक हो चुके हैं। 250 घायलों में 70 लोगों को गोली लगी है। हिंसक भीड़ ने आम लोगों के घरों, दुकानों और सड़कों पर गाड़ियों को आग लगाकर भारी नुकसान तो पहुंचाया ही देश पर आर्थिक बोझ भी बढ़ा रहे हैं। शायद वो भूल रहे हैं कि इसकी आर्थिक तंगी का नतीजा भी उन्हीं को भुगतना पड़ेगा। ये भी सही है कि समय के साथ यह आग भले ही ठंडी पड़ जाए मगर पीड़ितों के दिल के जख्म को भर पाना नामुमकिन है। उपद्रव का ही नतीजा है कि उपद्रवी इलाके से हर समुदाय के लोग खौफजदा, परिचितों के घर भागकर अपनी जिंदगी को बचा रहे हैं।

रिहायशी इलाकों में लोग परिवार के साथ घरों के बाहर निकलने से पहले कई दफा सोचने को मजबूर हैं। लोगों में इस बात को लेकर भय बना हुआ है कि कहीं उनके घर पर कोई हमला ना कर दे। कहीं दुकानों के बाहर सामान जल रहा है, तो कहीं पुलिसकर्मी आग बुझा रहे हैं। जबकि दिल्ली की चमचमाती सड़कें न जाने कहां से पत्थर और ईंटों से भरी पड़ी है।  

दिल्ली का सीलमपुर का इलाका जहां पुलिस बिना सुरक्षा कवच के मैदान में उतरने के नाम पर कांप गई थी। वैसे में कोई भी सहम जाएगा, हर किसी को अपने जान की फिक्र होना लाजिमी है क्योंकि हर किसी के पीछे परिवार की जिम्मेवारी है। पता नहीं कब किधर से पत्थर का टुकडा आए और उन्हें मौत की नींद सुला जाए। सड़कों पर लाठी-डंडों से लैस लोगों की गुंडागर्दी का ही तो नतीजा है कि एक ही समुदाय के दर्जनभर लोगों की जानें चली गई। उन्हें कौन समझाए कि अपनों को ही जलती आग में झोंककर किसी के लिए जद्दोजहद की लड़ाई लड़ रहे हो। जब इस लड़ाई की आग में खुद को मिटा रहे हैं तो इस लड़ाई का मकसद क्या है। कई बार इसकी पहल करने वालों को भी इस बहसी भीड़ ने नहीं बख्शा। यही वजह है कि शांति बहाल करने के लिए पुलिस और आम लोगों ने अपने मासूमों और परिजनों को अपने रिश्तेदारों के घर ही छोड़ आए हैं। जो घऱ में हैं वो किसी तरह खुद के जिंदगी की दुआ मांग रहे हैं। इन इलाकों में रहने वाले लोग चाहे जिस समुदाय के हों, खौफजदा दिखाई दे रहे हैं। उन्हे पल-पल ये भय सता रहा है कि जाने कब किधर से पत्थर के टूकड़े या फिर सनसनाती गोली आकर उसके सीने को भेद जाए। सीलमपुर, करावल नगर, शेरपुर, मौजपुरी, यमुना विहार, ब्रह्मपुरी, गौतमपुरी में रहने वालों के बच्चे या परिजन जो स्कूल या काम पर गए थे, उनमें बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो इस इलाके के छोड़ कहीं और ही रुक गए हैं। दिल्ली कुछ पल के लिए जहां तहां ठहर सी गई है। यहां होने वाले छोटे-छोटे प्रोडक्शन का काम पूरी तरह से प्रभावित है, क्योंकि इसमें काम करने वाले लोग हिंसा से प्रभावित इलाकों में जाने का नाम नहीं ले रहे हैं। और तो और दिल्ली के बाहर से दो जून की रोटी के लिए आए परिवार किसी तरह अपनी जान बचाने के लिए अपने घर लौट रहे हैं।

दुनिया में भारत अपनी सभ्यता, संस्कृति, गंगा-जमुनी तहजीब के साथ आपसी मिल्लत के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। इस देश ने दुनिया को बहुत कुछ दिया है। सभ्यता, संस्कृति के साथ-साथ विज्ञान, टेक्नोलॉजी में भी अब पीछे नहीं है। मगर इस दिल्ली को कुछ दिनों से किसी की नजर लग गई है। तभी तो अपनी मांग के लिए विरोध जताते हुए अपनों के ही लहू से प्यास बुझा रही है।

जिस दिल्ली पर दुनिया की नजर रहती है। खूबसूरत है दिल्ली, बेहतर है दिल्ली, अंतर्राष्ट्रीय प्लेस है दिल्ली मगर दिल्ली इस वक्त अपने ही सीने पर खुद से जख्म दे रही है। दुनिया के सबसे बड़े देश अमरीका से डोनाल्ड ट्रंप अपने पूरे परिवार के साथ भारत आए थे। उन्होंने इस देश की जमकर तारीफ की, रक्षा के क्षेत्र में बेहतरी के लिए सहयोग भी दिया। मगर अमरीका जाते ही इतना तो जरुर कह गए कि मुझे सब मालूम है कि भारत में क्या हो रहा। आखिर किस तरीके से अपने मेहमान की मेहमाननवाजी कर रहे हैं भारतीय। फायरिंग करते रहे दहशतगर्द तो कहीं पेट्रोल बम फेंक लगाई आग।

कर्दमपुरी इलाके में तो बेकाबू उपद्रवियों ने न केवल सरेआम ताबड़तोड़ फायरिंग की बल्कि पेट्रोल बम के गोले फेंक वाहनों को आग के हवाले कर दिए। हाथों में डंडे और लोहे की रॉड लेकर ये गुंडे बेधड़क आतंक मचाते रहे और आम जनता छूपकर इस नजारे को देख सहमी रही।

दिल्ली ने इतनी भयावह हिंसा की घटना को पहली बार बहुत करीब से देखा है। सड़क पर पुलिस और सुरक्षा बल के जवान नजर तो आ रहे हैं, लेकिन उन्हें कैसे स्थिति से निपटना है यह बिल्कुल भी समझ नहीं आ रहा है। क्योंकि वे एक तरफ से लोगों को कंट्रोल में करते तो दूसरी ओर से पथराव होना शुरु हो जाता है। मौजपुर और कबीरनगर इलाके की अगर बात करें तो पुलिस बल तैनात किए जाने पर उपद्रवियों ने उन पर पत्थरबाजी की। दंगाइयों ने वाहन, घरों व आठ दुकानों सहित घार्मिक स्थलों पर आग लगा दी। हालात बेकाबू होते देख अर्द्धसैनिक सुरक्षा बल तैनात तो हुए बावजूद इसके दंगाइयों ने फायरिंग पत्थरबाजी बंद नहीं की। इतना ही नहीं कुछ ऐसे भी लोग हैं जो अपनी छतों से भी पत्थर फेंक कर हमला कर रहे हैं। चाहे किसी भी दल के राजनेता हों उन्हें इस जलती हुई दिल्ली में घी डालने की बजाए इसे शांत करने की पहल करनी चाहिए। क्योंकि जिन समस्याओं के लिए हम सड़कों पर उतरकर एक दूसरे की खून के प्यासे हैं उससे बेहतर तो यही होगा कि कानून का राज कायम कर कानूनी लड़ायी ही लड़ी जाए, वार्ता की जाए, फिर उसका निदान निकल सकता है।

जाफराबाद, मौजपुर, भजनपुरा और सीलमपुर समेत कई इलाकों में लोग दहशतभरी जिंदगी जी रहे हैं। सड़कों पर बहसीपन के शिकार अपनी मांगों के समर्थन में या फिर अपनी ताकत का एहसास करा रहे हैं अपनों को ही अपनी हिंसा का शिकार बना रहे हैं। उन्हें इसकी तनिक भी परवाह नहीं की जिसका हिंसा करने वालों ने आगाज किया है उसका आखिर अंजाम क्या होगा। किसी भी हिंसा का अंत हिंसा से नहीं किया जा सकता मगर जिन लोगों ने यह रार मचायी है शायद वो भूल गए हैं कि इसकी आग में उनका वर्तमान और अतित जल रहा है।

देश ही नहीं, दुनिया में हिंसा, युद्ध एवं आक्रामकता चरम पर है। जब इस तरह की अमानवीय एवं क्रूर स्थितियां समग्रता से होती हैं तो उसका समाधान भी समग्रता से ही खोजना पड़ता है। हिंसक परिस्थितियां एवं मानसिकताएं जब प्रबल हैं तो अहिंसा का मूल्य स्वयं बढ़ जाता है। हिंसा किसी भी तरह की हो, अच्छी नहीं होती। मगर हैरान करने वाली बात ये है कि आज हिंसा के कारण लोग सामाजिक अलगाव एवं अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं इसका जिम्मेवार कौन है?

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