लोकतंत्र में कौन है महत्वपूर्ण ?

शैलेन्द्र चौहान
यह कतई आश्चर्य की बात नहीं है कि सामान्य समय में अखबार व दृश्य श्रव्य मीडिया का मुख्य समाचार क्रिकेट होता है, फिर राजनीतिक उठापटक और अपराध या फ़िल्मी सितारों की चमक दमक वगैरह। जंतर मंतर पर लाखों किसान देश के दूर दराज इलाकों से आकर अपनी समस्याएं बताना चाहते हैं लेकिन मीडिया, लोकसभा और राज्यसभा में किसानों के राजनीतिक चिंतकों की बात तो सुनता है परन्तु वहां मौजूद किसानों की नहीं। खड़ी फसलों की भयानक तबाही क्या महज एक खबर है ? यह बात हमारे यहां एक किवदंती सी बहु-प्रचलित है कि देश में सत्तर प्रतिशत किसान हैं, लेकिन मीडिया में उन पर चर्चा एक प्रतिशत से भी कम होती है। हर वर्ष हजारों की संख्या में किसान आत्महत्या कर लेते हैं। क्यों वह इतना त्रासद कदम उठाते हैं इसका सर्वेक्षण कोई क्यों नहीं करता ?इसके लिए जिम्मेदार लोगों को दंडित कराने के प्रयत्न क्यों नहीं किये जाते ? गरीब मजदूर किसान के लिए आखिर इस मालामाल खेल का क्या अर्थ है ? इसमें अरबों खरबों रुपये का कारोबार है जबकि एक मजदूर को चाहिए सौ, दो सौ, तीन सौ रुपये अपने और अपने परिवार के भरण पोषण के लिए। क्रिकेट के प्रति दीवानगी का आलम यह है कि मैच वाले दिन सबका मनोरंजन क्रिकेट ही है। मैच देखने के अलावा कोई भी दूसरा कार्य संपन्न हो पाना संभव नहीं है। हमारी कार्य संस्कृति में खेल के बहाने इस विलासिता ने हमारी सामुदायिक उर्जा को प्रभावित किया है। क्रिकेट के प्रति मध्यवर्गीय जनों के पागलपन को देखकर लगता है जैसे यह खेल, खेल न होकर कोई पौराणिक अथवा अध्यात्मिक आस्था का प्रसंग हो। मीडिया के लिये क्रिकेट का मसला आज चर्चा में किसी भी राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दे से अधिक महत्वपूर्ण मसला है। साहित्य, कला, संस्कृति वगैरह अब मूल्यविहीन हो चुके हैं। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में क्रिकेट को प्राणवायु अथवा धड़कन के रुप में बाजार द्वारा एक जरूरत बनाकर कुछ इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि लोग आते जाते खाते पीते सोते उठते इस पर दीवानगी की हद तक फिदा हैं। आईपीएल के आपराधिक प्रसंग से यह बात स्पष्ट हो चुकी है, डी डी सी ए की भी चर्चा है। लेकिन राजनेताओं और पूंजीपतियों के पक्के गठजोड़ के कारण इसको रफा दफा कर दिया गया। यह हमारी रुचि में बाजारवाद / उपभोक्तावाद की घुसपैठ है, अतिक्रमण है। व्यवस्था से जुड़े सारे लोग क्रिकेट पर फिदा है और इसे किसी भी दृष्टि से नुकसानदायक नहीं माना जाता। हजारों लाखों लोग एक साथ एक ही समय में इस बहाने ठहर जाते हैं, क्या यह कार्य संस्कृति का ह्रास नहीं है? क्या हमारे इस कृत्य से वक्त का एक बड़ा हिस्सा या अवसर जाया नहीं होता? गर्व करने वाले इस देश में चरित्र निर्माण से ही हमारी दृष्टि भटक जाये, इसे सदी का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है। पिछले साल शीना वोरा मर्डर केस मीडिया पर महीनों छाया रहा। विगत में कर्नाटक के कोलार जिले में रेत माफिया के खिलाफ अभियान चलाने वाले एक आईएएस अधिकारी डीके रवि को बेंगलुरू में अपने आधिकारिक फ्लैट में मृत पाया गया। पश्चिम बंगाल के नदिया जिले में एक बहत्तर वर्षीय नन गैंग रेप का मामला सामने आया। ऐसे बहुत से मामले हैं जिन्हें लेकर कुछ समय तो बहुत हंगामा होता रहा लेकिन धीरे-धीरे वो लोगों के मानसपटल से हट गए। पेरिस में हुआ आतंकवादी हमला, नेपाल का भयानक भूकंप की त्रासदी और हाल ही में चेन्नई और आसपास की विनाशकारी वर्षा भी चर्चा में रहे।उस देश में जहां हर 21 मिनट में बलात्कार की एक घटना होती है, वहां भयंकर से भयंकर अपराध को भी लोग जल्द ही भूल जाते है। इसकी यादें बची रहती हैं तो सिर्फ़ पीड़ित के परिवार वालों या सगे-संबंधियों के दिल में। तो गरीब किसानों की बात कौन तो करे ! दिल्ली में एक युवती के सामूहिक बलात्कार के बाद देश भर में लोगों का ग़ुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा था। इस मामले के नाबालिग सजा पर भी खूब हंगामा हुआ। तिहाड़ जेल में उसपर बनी डॉक्यूमेंट्री पर विवाद हुआ। प्रश्न यह है कि क्यों हो हल्ला और शोर शराबा होने पर ही सरकार और प्रशासन की नींद खुलती है ? इन प्रश्नों पर भी जन हित में विचार आवश्यक है। मीडिया किसी भी गंभीर मसले पर दस पंद्रह दिन हो हल्ला करने के बाद गहरी नींद सो जाता है। उसे अपने आर्थिक हित जो साधने हैं यही उसकी प्राथमिकता भी है। भारतीय नागरिक कदम कदम पर अपमानित होता है क्या इसी लोकतंत्र के लिए हमने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी थे, इतने बलिदान दिए थे ? मीडिया को इन बातों से कोई अंतर नहीं पड़ता। क्योंकि वह जनहित का पक्षधर माध्यम नहीं है। एक ओर लोग बुनियादी जरूरतों के लिए परेशान हैं। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में अपराध रुक नहीं पा रहे हैं तो दूसरी ओर अय्यासी और मनोरंजन पर करोड़ों रुपये बहाये जा रहे हैं।सब क्रिकेटमय हैं। गरीबों के प्रति प्रेस और मीडिया का रवैया क्या है आईये एक बुजुर्ग व्यक्ति मदन लाल की बी बी सी पर छपी प्रतिक्रिया से आपको अवगत कराते हैं। “आज देश की जो हालत है, उसके बारे में सोचता हूँ तो अफ़सोस होता है। पहले ये हालात नहीं थे। यह मेरा देश है, ऐसा नहीं लगता। किसी भी ग़रीब आदमी के लिए कहीं कोई ठिकाना नहीं है। कोई भी ग़रीब अगर कहीं एक झोपड़ी डालकर रह रहा है तो उसे उजाड़ दिया जाता है। अमीरों की आँखों में ग़रीब खटकने लगा है। हमने नहीं सोचा था कि देश की ऐसी हालत हो जाएगी। आज मीडिया से भी कोई आस नहीं है। आप लोग बड़े लोगों से और नेताओं से तो बात करते हो पर ग़रीब की बात करने वाला और लाचार लोगों को सहारा देने वाला कोई नहीं है। आप जो काम कर सकते हैं, वो भी नहीं कर रहे। लोगों पर ज़ुल्म हो रहा है पर सरकार कुछ नहीं कर रही है। देश की सरकार ही बेकार है। हाँ, जब वोट माँगने की बारी आती है तब नेताओं को याद आता है कि यह ग़रीबों का भी देश है, हम जैसे लोगों का भी देश है। तब उन्हें यह बुजुर्ग दिखाई देता है। पुलिस और अधिकारियों का रवैया भी लोगों के साथ इंसानों वाला नहीं है। उन्हें सामने वाला इंसान नज़र नहीं आता है। यह हमारा देश है और हम इसके लिए लड़ रहे हैं पर देश ही हमें ख़त्म करने पर तुला है।”
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस प्रारूप ने भारतीय मीडिया की अधकचरी संस्कृति को ओढ़ने-बिछाने वाले एक छोटे से तबके को भले ही कुछ ऐसा दे दिया हो, जो उन्हें नायाब दिखता होगा, एक आम भारतीय समाज के लिए उसका कोई मूल्य या महत्व नहीं। यह ‘क्लास’ का मीडिया ‘मास’ का मीडिया बन ही नहीं सकता। भारतीय मीडिया तो क्रिकेट, सिनेमा, फैशन, तथाकथित बाबाओं, राजनेताओं, सनसनी, सेक्स-अपराध, भूत-प्रेत और सेलिब्रिटीज के आगे-पीछे डोलने में ही मस्त है। इनके लिए अलग से संवाददाताओं को लगाया जाता हैं जबकि जनसरोकार एवं दलित-पिछड़ों से संबंधित खबरों को कवर करने के लिए अलग से संवाददाता को बीट देने का प्रचलन लगभग खत्म हो चुका है। इसे बाजारवाद का प्रभाव मानें या द्विज-सामंती सोच ! मीडिया, सेक्स, खान-पान, फैशन, बाजार, महंगे शिक्षण संस्थान के बारे में प्राथमिकता से जगह देने में खास रूचि दिखाती है। अखबारों में हीरो-हीरोइन या क्रिकेटर पर पूरा पेज छाया रहता है, तो वहीं चैनलोँ पर यह सब घण्टों दिखाया जाता है। समाज के अंदर दूर-दराज के इलाकों में घटने वाली दलित उत्पीड़न की घटनाएं, धीरे-धीरे मीडिया के पटल से गायब होती जा रही है। एक दौर था जब रविवार, दिनमान, जनमत आदि जैसी प्रगतिशील पत्रिकाओं में रिपोर्ट आ जाती थी। खासकर, बिहार व उत्तर प्रदेश में दलितों पर होते अत्याचार को खबर बनाया जाता था। साठ-सत्तर के दशक में दलितों, अछूतों और आदिवासियों, दबे-कुचलों की चर्चाएं मीडिया में हुआ करती थीं। दलित व जनपक्षीय मुद्दों को उठाने वाले पत्रकारों को प्रशंसा की नजर से देखा जाता था। लेकिन, सत्तर के दशक में गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों ने राष्ट्रीय मीडिया को बदलाव में धकेलना शुरू कर दिया जो अंततः सत्ता विमर्श का एक हिस्सा बन गया। दबे-कुचले लोगों के ऊपर दबंगो के जुल्म-सितम की खबरें, बस ऐसे आती है जैसे हवा का एक झोंका हो! जिसका असर मात्र क्षणिक भी नहीं होता। साठ-सत्तर के दौर में ऐसा नहीं था। सामाजिक गैर बराबरी को जिस तेवर के साथ उठाया जाता था उसका असर देर सबेर राजनीतिक, सामाजिक और सत्ता के गलियारे में गूंजता रहता था।‘ मीडिया में महिलाएं अब भी सिर्फ हाशिये की ही जगह पाती हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियों का रूप लिए जा रहे इन समाचार माध्यमों में क्या कोरपोरेट हित के अलावा भी कोई बात होती है, जन सरोकारों की बात भी आपको पढ़ने-देखने-सुनने को मिलती है ? नहीं ! अगर कुछ समूह गांव-गरीब-किसान की कभी बात करते भी हैं तो स्वाभाविक तौर पर नहीं बल्कि लोकतंत्र को कमज़ोर करने वाले भ्रष्ट तत्वों द्वारा प्रायोजित-प्रभावित हो कर ही। जैसा कि भूमि अधिग्रहण बिल की बहस में दिख रहा है।
संपर्क : 34/242, सेक्टर -3, प्रतापनगर, जयपुर -302033

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