प्रवीण दुबे
लोकसभा चुनाव नजदीक हैं, बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार और तमाम अनर्थकारी नीतियों ने केन्द्र सरकार से जुड़े नेताओं की नींद उड़ा रखी है। अर्थव्यवस्था को कैसे पटरी पर लाया जाए इसका कोई भी उपाय उन्हें सूझ नहीं रहा। ऐसी स्थिति में अब सरकार उस दिशा में जाती दिखाई दे रही है जिस पर यदि शुरुआत से चला जाता तो शायद आज उसकी ऐसी दुर्गति नहीं होती। राजकोषीय और चालू खाते के घाटे का संकट कोई नया नहीं है। पिछले लंबे समय से यह घाटा नियंत्रण के बाहर होता जा रहा है। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि वित्त मंत्रालय इसको लेकर अभी तक कुंभकर्णी नींद में क्यों सोता रहा? एक तरफ डॉ. मनमोहन सिंह को महान अर्थशास्त्री माना जाता है तो दूसरी तरफ पी. चिदंबरम् को मेघावी वित्तमंत्री आखिर फिर क्यों यह लोग आंखे मूंदे रहे? दूसरा सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर अचानक ऐसा क्या हो गया जो बुधवार को देश के वित्त मंत्रालय ने सरकारी खर्चों में कटौती का निर्देश जारी किया। वित्तमंत्रालय ने राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 4.8 प्रतिशत पर नियंत्रित रखने के उद्देश्य से सभी सरकारी मंत्रालयों और विभागों को निर्देश दिया है कि वह नए वाहन न खरीदें, नए पदों का सृजन न करें साथ ही पिछले एक वर्ष से रिक्त पड़े सरकारी पदों को भी न भरा जाए। इतना ही नहीं विभागों से कहा गया है कि विदेश जाने वाले प्रतिनिधि मंडलों का आकार बेहद छोटा रखा जाए और पांच सितारा होटलों में बैठकें न हो तथा अधिकारी हवाई जहाज के बिजनेस क्लास में सफर न करें, समारोहों का आयोजन न किया जाए। सरकार यदि यह सारे कायदे कानून पहले से लागू करती तो शायद राजकोषीय और चालू खाते के घाटे का संकट इतना गहरा नहीं होता। साफ है प्रधानमंत्री का अर्थशा और वित्तमंत्री का वित्तीय प्रबंधन पूरी तरह नाकारा साबित हुआ। यह दुर्गति यह सिद्ध करती है कि लगातार नो वर्षों से देश की बागडोर संभालने वाले मनमोहन सिंह ने राष्ट्रहित को कभी सर्वोपरि मानकर सरकार नहीं चलाई। यदि उन्होंने ऐसा किया होता तो न कड़े प्रतिबंध लागू करने पड़ते और न देश के सामने अर्थव्यवस्था लडख़ड़ाने का संकट खड़ा होता। मनमोहनसिंह हों या पी. चिदंबरम अथवा कपिल सिब्बल हों या सलमान खुर्शीद इन सभी नेताओं का पूरा ध्यान सोनिया और राहुल की चाटुकारिता पर लगा रहा। पूरी की पूरी यूपीए सरकार सोनिया और राहुल के हाथों संचालित होती रही और देश का सत्यानाश होता चला गया। आज वित्तमंत्री कह रहे हैं बड़े सरकारी समारोह मत करो, पांच सितारा होटलों में बैठकें मत करो, बड़े-बड़े प्रतिनिधि मंडल विदेश मत ले जाओ और हवाई जहाज में सरकारी दौरे नहीं करो। अब सवाल यह है कि यह सब करने की छूट सरकारें क्यों देती हैं? उत्तर साफ है जिस पैसे से यह अय्याशी की जाती है वह जनता का पैसा है। जरूरत इस बात की है कि इस देश में इस बात पर व्यापक बहस हो कि सरकारी तंत्र में बैठे नौकरशाह और उनका संचालन करने वाले नेता जिस कदर सरकारी धन की फिजूल खर्ची करते हैं क्या वो जायज है? आज राजकोषीय और चालू घाटे के संकट से जूझ रही सरकार ने जो प्रतिबंध लगाए हैं क्या इनको अनिवार्यत: लागू नहीं किया जाना चाहिए?