राष्ट्र की अवचेतना का संरक्षक कौन ? 

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राकेश कुमार आर्य

एक लोकतांत्रिक देश में न्यायपालिका , कार्यपालिका और विधायिका इन तीनों को राष्ट्र की अवचेतना का संरक्षक माना जाता है। इसके साथ – साथ जब इनमें से कोई भी अपने दायित्व और कर्तव्य के निर्वहन में कहीं चूक करता है तो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ प्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका भी सामने आती है। तब साहित्यकार ,स्तंभकार और कलमकार अपनी लेखनी के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना पर प्रकाश डालता है और दिग्भ्रमित हुए किसी भी स्तंभ को उसके कर्तव्य और दायित्वों का सम्यक निर्वाह करने के लिए प्रेरित और उद्बोधन करता है ।
वर्तमान में जिन परिस्थितियों में हम रह रहे हैं उनमें यह सोचना और विचार करना बहुत आवश्यक हो गया है कि हमारे देश की राष्ट्रीय अवचेतना का वास्तविक संरक्षक कौन है ? सामान्यत: यह दायित्व न्यायपालिका पर माना जाता है ,क्योंकि वहां पर विद्वान से विद्वान न्यायाधीश बैठे होते हैं । विषय को आगे बढ़ाने से पहले हमें यह विचार करना चाहिए कि राष्ट्र की अवचेतना होती क्या है ? और राष्ट्र किसे कहते हैं ? साथ ही यह भी कि क्या भारत में राष्ट्र व राष्ट्रीय अवचेतना को वर्तमान संविधान विकसित करने में सफल रहा है या असफल रहा है ? – यदि असफल रहा है तो कौन लोग ऐसे रहे हैं जिन्होंने संविधान को असफल कर दिया है ? ऐसे में लोकतंत्र के प्रत्येक स्तंभ ने अपनी क्या और कैसी भूमिका निभाई है ? इन सब बातों पर विचार करके ही यह पता चल सकता है कि राष्ट्र की अवचेतना का संरक्षक कौन है और कौन हो सकता है ? 
राष्ट्र एक अमूर्त भावना का नाम है । वह दिखती नहीं है , पर हमारे भीतर वैसे ही संचरित होती रहती है जैसे प्राण इस शरीर में संचरित होते रहते हैं और इसे जीवित रखते हैं । ऐसे सारे मानवीय मूल्य और सारी नैतिक व्यवस्थाएं जो हमें एक और नेक बनने के लिए प्रेरित करती हैं और एक ही माला अर्थात देश के मोती बनाए रखने के लिए प्रत्येक पल हमें संबोधित करती रहती हैं – उन सब का सामूहिक नाम राष्ट्र है। राष्ट्र हमारी विभिन्नताओं को मिटाता है , विविधताओं का सम्मान करते हुए भी उन्हें ‘एक ‘ के लिए समर्पित करते – करते मिटा देता है और सब ‘एक ‘ के नीचे आकर एक देव – एक देश , एक भूषा और एक वेश में परिवर्तित हो जाते हैं । किसी को अपनी पहचान को अलग बनाए रखने के लिए न तो संघर्ष करना पड़ता है और न ही किसी की ऐसी इच्छा ही रह जाती है।
क्या भारत में हम ऐसा राष्ट्र बना पाए हैं जो सबको ‘ एक देश – एक देव , एक भूषा – एक भेष ‘ – में परिवर्तित कर सका हो या ऐसा कोई उच्छृंखल राष्ट्र बना कर आगे बढ़ते जा रहे हैं जो सब को अलग – अलग पहचानने की अतार्किक और अप्राकृतिक चेष्टा में लगा हुआ हो ? संभवत: हम ऐसा ही राष्ट्र बनाने में अपने पुरुषार्थ का अतार्किक और दिशाविहीन प्रयोग और प्रयास करते जा रहे हैं । सारा देश एक प्रयोगशाला बनकर रह गया है और इसमें लोकतंत्र का कोई सा भी स्तंभ अपनी न्यायपरक और पक्षपातशून्य भूमिका निर्वाह करने में पूर्णतया असफल रहा है। हमारे संविधान ने हमें एक स्वतंत्रता प्रदान की – भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता । हमने इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया और इसे देश के धर्म के साथ भी जोड़ कर देखने की चेष्टा में लग गए । जिसका परिणाम यह हुआ कि देश को तोड़ने में लगी हुई शक्तियां दिन रात एक करके देश के धर्म के साथ खिलवाड़ करने लगी । इस्लाम और ईसाइयत ने धर्मांतरण को भी अपनी भाषण व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ जोड़ दिया । जो कोई जैसे चाहे बोले , भारत मां को डायन कहे तो भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर यह भी चलेगा । वेदों को गाली दे , उपनिषदों को गाली दे और अपनी किताब को पवित्र कह कर प्रचारित व प्रसारित करें – यह सब भी चलेगा । परिणाम स्वरूप देश के मौलिक धर्म को विकृत करने के षडयंत्र दिन – प्रतिदिन बढ़ते चले गए । जिसका परिणाम आज यह आ रहा है कि सर्वत्र अशांति और अराजकता की स्थिति बनी हुई है । जिससे राष्ट्र की अवधारणा कुंठित और बाधित हुई पड़ी है । इसके उपरांत भी न्यायपालिका ,कार्यपालिका , विधायिका और प्रेस में से कोई भी यह कहने का साहस नहीं कर रहा है कि देश के मौलिक धर्म की सुरक्षा आवश्यक है और जिस-जिस संप्रदाय में या संप्रदाय के किसी ग्रंथ में जो – जो बातें अवैज्ञानिक ,अतार्किक और मानवता के विरुद्ध हैं या अन्यायपरक हैं – उन सब को समाप्त कर हम सचमुच एक मानव समाज का निर्माण करेंगे।
अब आते हैं कि राष्ट्रीय अवचेतना क्या है ? – राष्ट्रीय अवचेतना बिल्कुल वैसे ही है जैसे हमारे शरीर में रोग निरोधक क्षमता होती है जो हमेशा हमें रोगों से लड़ने की क्षमता प्रदान करती है । इसी को हमारी शारीरिक चेतना कहा जाता है । जब यह समाज में सामूहिक रूप से संचरित और अवतरित होती है तो वहां इसे सामाजिक चेतना कहते हैं और जब यह व्यापक विस्तार पाकर किसी राष्ट्रीय समाज में जाकर संचरित होती है तो वहां यह राष्ट्रीय अवचेतना कहलाती है । राष्ट्रीय अवचेतना वह होती है जो समाज के प्रत्येक ऐसे व्यक्ति से या व्यक्तियों के समूह से हमें सामूहिक रूप से लड़ने की क्षमता प्रदान करती है और उसका विनाश करने को अपना परम धर्म मानती है जो राष्ट्र की मुख्यधारा को प्रभावित करते हैं और जो समाज में अशांति और अराजकता को उत्पन्न करते हैं। इस सामाजिक अवचेतना को लोकतंत्र के चार स्तंभ बाहर से केवल शक्ति प्रदान करते हैं , बिल्कुल वैसे ही जैसे एक चिकित्सक किसी रोगी की चिकित्सा करते समय जब उसे औषधि देता है तो वह उसकी रोग निरोधक क्षमता को थोड़ा बलवती कर रोग से लड़ने के लिए बाहर से और मजबूती देता है ।वैसे ही राष्ट्रीय अवचेतना कहीं बाधित और कुंठित ना हो , इसके प्रहरी बने लोकतंत्र के चार स्तंभ अपने – अपने स्तर पर अपने – अपने ढंग से इस राष्ट्रीय अवचेतना को मजबूत करने के लिए उपाय और उपचार करते रहते हैं । विधायिका राष्ट्रपरक और न्यायपरक कानून बनाकर अपने दायित्वों का निर्वाह करती है तो कार्यपालिका उन कानूनों को बहुत ही ईमानदारी पूर्ण ढंग से लागू करती है । न्यायपालिका बुद्धिपरक ,तर्कपरक और न्यायपरक कानूनों की और भी सार्थक व्याख्या करते हुए प्रत्येक देशवासी को सच्चा न्याय प्रदान करती है। जबकि प्रेस राष्ट्रीय अवचेतना को प्रबल करने वाले तत्वों और बौद्धिक मूल्यों को लेखनी के माध्यम से बलवती करती रहती है। इस प्रकार यह चारों स्तंभ लोकतंत्र के माध्यम से राष्ट्र के चिकित्सक मात्र हैं। पर जब यह चारों स्तंभ अराजक तत्वों को अराजक न कह सकें और अराजक तत्वों के मानव अधिकारों की पैरोकारी करने लगें या राष्ट्रीय अवचेतना को कुंठित और बाधित करने वाले लोगों के भी अधिकार मानकर उन्हें इस बात के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करने लगें कि तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं , तो मानना पड़ेगा कि ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रीय अवचेतना को समझने में या तो यह चारों स्तंभों चूक करते हैं या चूक न करके उसके प्रति जानबूझकर आंखें बंद कर लेते हैं । इन दोनों ही परिस्थितियों में यह नहीं कहा जा सकता कि राष्ट्रीय अवचेतना के सम्यक निर्वाह में चारों स्तंभ अपनी मर्यादित और इमानदारी भरी भूमिका का निर्वाह करते हैं।
भारत का संविधान भारत की इस राष्ट्रीय अवचेतना को संचरित करने के लिए उचित और सक्षम प्रावधान करता है , जब वह यह कहता है कि जाति ,धर्म ,लिंग के आधार पर व्यक्ति – व्यक्ति के मध्य किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा । संविधान की व्यवस्था है कि देश के प्रत्येक नागरिक को अपना सर्वांगीण विकास करने के सारे अवसर उपलब्ध कराए जाएंगे। संविधान के इन प्रावधानों से किसी को कोई कष्ट नहीं है । कष्ट है तो इसे लागू करने वाले लोगों की सोच और समझ से जो इसे लागू करते समय जाति ,धर्म ,लिंग और संप्रदाय आदि सब का भरपूर ध्यान रखते हुए लोगों को उनके विकास के अवसर या तो प्रदान करते हैं या कहीं छीन लेते हैं । बस , यही सोच और यही कार्यशैली वह कारक है जो हमारे राष्ट्रीय अवचेतना को बाधित और कुंठित करता है । साथ ही लोकतंत्र के चारों स्तंभों में से किसी भी स्तंभ को दम ठोक कर यह कहने की छूट नहीं देता कि वह ही इस देश की राष्ट्रीय अवचेतना का मुख्य संरक्षक है।
जब किसी लोकतांत्रिक देश में संवैधानिक प्रतिष्ठानों पर किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हुए लोग संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करने लगते हैं तो उस समय उस देश में राष्ट्रीय अवचेतना का विकास होने में बाधा खड़ी हो जाती है । इतना ही नहीं , जहां राष्ट्रीय अवचेतना के तत्व पहले से विद्यमान पाए जाते हैं वह तत्व भी धीरे – धीरे मरने लगते हैं । यदि भारत के संदर्भ में इस बात को देखा , समझा और परखा जाए तो निस्संकोच कहा जा सकता है कि भारत के संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने अधिकतर बार पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर कार्य किया है । जिसका परिणाम यह निकला है कि भारत में राष्ट्रीय अवचेतना के उपलब्ध तत्व भी या तो क्षरण को प्राप्त हो गए या मिट गए । संविधान निर्माताओं ने इस बात को बड़ी गहराई से समझा था कि भारत की राष्ट्रीय अवचेतना के मूल तत्वों को विकसित करने के लिए राष्ट्र के संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह करने वाले लोगों को भरपूर प्रयास करने होंगे । क्योंकि राष्ट्रीय अवचेतना के मूल्यों के अवमूल्यन के कारण ही देश में विदेशी शक्तियों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया था । जब देश स्वतंत्र होने को आया तो हमारे संविधान निर्माताओं ने इतिहास के उस भूत को मिटाने की दिशा में सार्थक रूप से सोचना आरंभ किया जो भूत इस देश को पराधीन करने में सहायक हुआ था।
यह दुर्भाग्य रहा इस देश का कि आजादी के बाद देश के संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने संविधान की सौगंध उठाकर भी संविधान को मिटाने का घातक प्रयास किया । जिन लोगों ने देश के संविधान की सौगंध उठाई कि हम इसको अपनी गीता मानकर पवित्र हृदय से देश उत्थान के पवित्र प्रयास करेंगे । उन्होंने ही देश को विभिन्न समस्याओं में धकेल कर अपवित्र कार्य करना आरंभ कर दिया । जिससे आज देश की राष्ट्रीय अवचेतना ही अराजकता को प्राप्त हो गई है । कई बार तो ऐसा देखने में आता है कि जैसे राष्ट्र की रोग निरोधक क्षमता ही समाप्त हो गई है । नेताओं की अमर्यादित भाषण शैली और संसद के प्रति बढ़ती जा रही असावधानी यह दर्शाती है कि वह लोकतंत्र में कोई विश्वास नहीं रखते हैं । ना ही उन्हें भारत की राष्ट्रीय अवचेतना से कुछ लेना-देना है । न्यायालयों में भी ऐसे ऐसे आदेश पारित हो जाते हैं जिनसे इस देश की राष्ट्रीय अवचेतना बाधित और कुंठित होती है । खुलेपन के नाम पर नंगापन और नंगापन के नाम पर फैलाई जा रही अराजकता की स्थिति ऐसे न्यायिक आदेशों का परिणाम है जो समय-समय पर न्यायालय ने अपने आदेशों के माध्यम से दिए हैं । इनका परिणाम सामाजिक स्वास्थ्य पर विपरीत पड़ा है और अंत में जाकर राष्ट्रीय अवचेतना इनसे कुंठित और बाधित हुई है । उदाहरण के रूप में हम गे संस्कृति को बढ़ावा देने वाले माननीय न्यायालय के संबंधित आदेश को देख सकते हैं । जिससे हमारी ही नहीं अपितु वैश्विक संस्कृति के समाप्त होने की स्थिति एक दिन पैदा हो जाएगी । हम खुलेपन के नाम पर नंगेपन को बढ़ावा दे रहे हैं और उस पर भी मौन हैं ।
संविधान के निर्माता कहे जाने वाले बाबासाहेब आंबेडकर ने 19 मार्च 1955 को राज्यसभा में संभवत इसीलिए यह कहा था कि मैं इस देश के संविधान को जलाने वाला पहला व्यक्ति हूंगा , क्योंकि हमने संविधान के माध्यम से जिस मंदिर का निर्माण किया था ,उसमें भगवान के बैठने से पहले राक्षस आकर बैठ गया । डॉक्टर अंबेडकर ने यह बात डॉ अनूप सिंह सांसद के उस वक्तव्य के बाद कही थी जिसमें उन्होंने कहा था कि सभापति महोदय ! संविधान के निर्माता कहे जाने वाले बाबासाहेब आंबेडकर ने 2 सितंबर 1953 को ऐसा क्यों कहा था कि वह इस संविधान को जलाने वाले वह पहले व्यक्ति होंगे ?
जिस संविधान के और जिस संविधान के आधार पर बने लोकतंत्र के चारों स्तंभों की कार्यशैली के परिणाम संविधान लागू होने के मात्र 3 – 5 वर्ष पश्चात ही ऐसे आ गए थे कि बाबासाहेब अंबेडकर को भी यह कहना पड़ा था कि वह संविधान को जलाने वाले पहले व्यक्ति होंगे , क्योंकि हमने जिस राष्ट्र मंदिर रूपी भगवान का निर्माण किया था उसमें भगवान के बैठने से पहले आकर राक्षस बैठ गया है , तो उसके बारे में यह समझा जा सकता है कि इस देश की अवचेतना का कोई भी संरक्षक नहीं है। वह अपने आप बह रही है और अपने आप आगे चल रही है । वह कब टूट जाएगी ,कहां छूट जाएगी और कहां फूट जाएगी ? – यह किसी को पता नहीं है । क्योंकि संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह करने वाले जिम्मेदार लोगों का आचरण गैर जिम्मेदाराना है । सब एक दूसरे की ऐंठ निकालने में लगे हुए हैं और अपनी पैठ बनाने की युक्तियां भिड़ा रहे हैं । ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि हमारे देश की राष्ट्रीय अवचेतना का कोई संरक्षक भी इस देश में विद्यमान है।
इस देश की अवचेतना का संरक्षक वही हो सकता है जो अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह करने में किसी प्रकार की चूक या प्रमाद का प्रदर्शन नहीं करता है । नागरिक – नागरिक के मध्य न्यायपरक और विवेकपूर्ण समभाव प्रदर्शित करता है । इस विचार को जो – जो लोग जहां – जहां बैठकर अपना रहे हैं , वही इस देश की अवचेतना के संरक्षक हैं । यह दुख की बात है कि व्यक्ति तो ऐसे इस देश में अनेकों हैं , परंतु संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के बारे में कहा जा सकता है कि उनकी संख्या बहुत कम है , न के बराबर है।

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