चौदहवें रतन को खोजता देश

राकेश कुमार आर्य
भारत के चौदहवें राष्ट्रपति का चुनाव निकट है। हमें भाजपा की ओर से शीघ्र ही नये राष्ट्रपति का नाम मिलने वाला है। इसके लिए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने केन्द्रीय मंत्री राजनाथ सिंह, अरूण जेटली, वैंकैया नायडू को नियुक्त कर दिया है। विपक्षी दलों से समन्वय स्थापित कर ये तीनों मंत्री अगले राष्ट्रपति का नाम निश्चित करेंगे। यह हम इसलिए कह रहे हैं कि इस समय भाजपा ने नये राष्ट्रपति के लिए सारा ‘होमवर्क’ कर लिया है और नये राष्ट्रपति के लिए गुणाभाग सब भाजपा केे पक्ष में लग रहा है। जिससे नये राष्ट्रपति का चुनाव अब केवल औपचारिकता है। सच यही है कि इस बार पहली बार ऐसा होगा कि भाजपा जिसे चाहेगी वही राष्ट्रपति बनेगा।

अब जब राष्ट्रपति को लेकर चारों ओर चर्चाएं हैं कि कौन बनेगा भारत का अगला राष्ट्रपति? तब राष्ट्रपति के विषय में जानने की भी कई बार इच्छा होती है कि अंतत: उसकी शक्तियां क्या हैं और वह केवल ‘रबर स्टाम्प’ है या उससे बढक़र भी कुछ है?
भारत का राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख होता है। उसकी स्थिति भारत के लोकतंत्र में बड़ी ही गरिमामयी है। भारत का राष्ट्रपति ही भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को शपथ दिलाता है। देश के प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है। प्रधानमंत्री की नियुक्ति को लेकर तो भारत के राष्ट्रपति की शक्तियां असीमित हैं। यह अलग बात है कि भारत के किसी भी राष्ट्रपति ने इस संबंध में अपनी शक्तियों का कभी दुरूपयोग नहीं किया है और सदा ही हर राष्ट्रपति ने बड़ी गंभीर जिम्मेदारी का निर्वाह किया है। कहा जाता है कि भारत का राष्ट्रपति देश का प्रधानमंत्री उसी व्यक्ति को नियुक्त करेगा जिसका संसद के निम्न सदन में बहुमत होगा। वास्तव में भारत के संविधान में ऐसा कहीं नही लिखा कि लोकसभा के बहुमत प्राप्त व्यक्ति को ही राष्ट्रपति प्रधानमंत्री नियुक्त करेगा। यह तो एक परंपरा बन गयी है किदेश का राष्ट्रपति इस बात का पूरा ध्यान रखेगा कि जिसे तू देश का प्रधानमंत्री नियुक्त कर रहा है उस व्यक्ति को देश की लोकसभा में बहुमत प्राप्त करने में सुविधा तो रहेगी या नहीं? अर्थात राष्ट्रपति स्वविवेक से ऐसे सभी उपायों पर विचार करेगा कि वह जिस व्यक्ति को देश का प्रधानमंत्री नियुक्त कर रहा है वह देश की लोकसभा में अपना बहुमत सिद्घ करने में समर्थ होना चाहिए। अन्यथा लोकतंत्र उपहास का पात्र बनकर रह जाएगा।
देश के संविधान को यदि सूक्ष्मता से पढक़र देखा जाए तो देश का राष्ट्रपति किसी भी व्यक्ति को कहीं से भी उठाकर देश का प्रधानमंत्री बना सकता है। वह चाहे तो एक रिक्शा चालक को रोककर भी देश का प्रधानमंत्री बना सकता है। क्योंकि प्रधानमंत्री बनते समय किसी व्यक्ति का देश की संसद का सदस्य होना आवश्यक नहीं है। पी.वी. नरसिम्हाराव और एच.डी. देवेगोड़ा जब देश के प्रधानमंत्री बने थे तो उस समय वे भारत की संसद के कोई से भी सदन के सदस्य नहीं थे। अटल जी जब पहली बार 13 दिन के लिए प्रधानमंत्री बने थे तो किसी को भी नहीं लग रहा था कि वे संसद में अपना बहुमत सिद्घ कर पाएंगे, परंतु फिर भी उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय तत्कालीन राष्ट्रपति ने लिया था।
देश के राष्ट्रपति से अपेक्षा की जाती है कि वह देश के संविधान का रक्षक है। यही कारण है कि जिन बिंदुओं पर संविधान मौन है या अस्पष्ट है उन पर भी देश का राष्ट्रपति ऐसा निर्णय लेता है जो कि पूर्णत: लोकसम्मत और न्यायसंगत हो, और जिसे लेकर किसी भी पक्ष को कोई आपत्ति ना हो। देश के प्रधानमंत्री की नियुक्ति को लेकर चाहे संविधान मौन हो या अस्पष्ट हो और चाहे राष्ट्रपति को कितनी ही असीमित शक्तियां प्रदान करता हो पर इसके उपरांत भी भारत के लोकतंत्र ने अपनी वास्तविक शक्ति का बोध कराते हुए ऐसी व्यवस्था की है कि देश के किसी भी राष्ट्रपति ने कभी भी अपनी शक्तियों का दुरूपयोग ना करते हुए प्रधानमंत्री की नियुक्ति के समय ऐसे विवेक का परिचय दिया है जिससे लोक मर्यादा की रक्षा हो सकी है। यही कारण है कि देश के राष्ट्रपति को लेकर प्रारंभ में जो चर्चाएं चला करती थीं कि यह पद देश के लिए उचित नहीं है और यह केवल अतिरिक्त खर्चों और राजसी वैभव पर व्यय होने वाली अतिरिक्त ऊर्जा का प्रतीक मात्र है इसलिए यह पद नही होना चाहिए-ऐसी चर्चाएं अब नही चलतीं। देश की राजनीतिक परिस्थितियों ने यह एक बार नहीं अपितु कई बार सिद्घ किया है कि देश के कई राष्ट्रपतियों ने एक बार नहीं अपितु कई बार विषम परिस्थितियों में देश का उचित मार्गदर्शन करते हुए संविधान की रक्षा की है। यहां तक कि 1975 में देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब देश पर आपातकाल थोपा था तो उनके द्वारा ही राष्ट्रपति बनाये गये फखरूद्दीन अली अहमद ने आपातकाल के अभिलेखों पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था। यद्यपि श्री अहमद को इंदिरा जी की मुट्ठी का राष्ट्रपति कहने वाले उस समय पर्याप्त थे, परंतु श्री अहमद ने ‘लोकतंत्र की हत्या’ के फरमान पर अपने हस्ताक्षर करने से मना कर यह बता दिया कि लोकतंत्र में उनकी कितनी गहननिष्ठा है और वह किसी के हाथ की कठपुतली नहीं हैं। यह अलग बात है कि संवैधानिक बाध्यताओं के चलते फिर उन्हें आपातकाल के अभिलेखों पर हस्ताक्षर करने पड़े पर वास्तव में उन्होंने ये हस्ताक्षर आपातकाल वाले अभिलेखों पर ना करके अपनी ‘मौत केेवारण्टों’ पर कर दिये थे। क्योंकि इसके दुख से दुखी श्री अहमद की शीघ्र ही मृत्यु हो गयी थी।

ऐसे नाजुक क्षणों में देश का उचित मार्गदर्शन करने वाले राष्ट्रपतियों को देखकर अब देश के बुद्घिजीवियों और राजनीतिक मनीषियों की धारणा में परिवर्तन आया है और लोग मानने लगे हैं कि देश में संविधान की और संविधानिक यंत्र की रक्षार्थ राष्ट्रपति का होना नितांत आवश्यक है। ऐसे में देश इस समय चौदहवें राष्ट्रपति के रूप में चौदहवें रतन को पाने के लिए यदि समुद्र मंथन कर रहा है-तो यह उचित ही है-प्रतीक्षा इस बार भी उसी को है जिसके आने पर हम कह उठें- ये कौन आया, रोशन हो गयी महफिल जिसके नाम से…..।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here