– अतुल तारे
कौन कहता है देश कतार में है? प्रसव हो या सृजन, निर्माण के क्षणों में एक पीड़ा होती ही है। यह घड़ी मंथन की है। अमृत छलकने में अभी समय है। यह घड़ी विष पान की हो सकती है और विष को पीने के लिए विशेष योग्यता की आवश्यकता होती है। अभिनंदन की पात्र है देश की जनता, जिसे हम आम आदमी (आप वाले आम आदमी नहीं) कह कर पुकारते हैं, जानते हैं, ने फिर दिखा दिया कि देश का आम आदमी आम नहीं है, वह विशेष है, वह शंकर है, नीलकंठ है।
नरेन्द्र मोदी एक जीवट संकल्प शक्ति के साथ देश में व्याप्त अप संस्कृति के खिलाफ एक निर्णायक युद्ध की घोषणा कर चुके हैं। यह लड़ाई सामान्य नहीं है। यह लड़ाई असामान्य है, असाधारण है और देश यह अब अनुभव कर रहा है कि अब ये लड़ाई सिर्फ 500 या 1000 के नोट बंदी करने तक रुकने वाली नहीं है। आगरा में कल मोदी ने साफ कर दिया था कि बेईमानों की जिंदगी तबाह होती है तो हो, उन्हें इसकी कोई चिंता नहीं है। कारण वह संकेत पहले कर चुके थे। 30 सितम्बर 2016 कालाधन घोषित करने की अंतिम तिथि है, यह केन्द्र सरकार स्पष्ट कर चुकी थी पर ‘विनय न माने जलधि जड़, गए तीन दिन बीत’ की तरह प्रधानमंत्री ने भी लगभग 40 दिन और इंतजार किया इसलिए भय बिन होई न प्रीत का संदेश आवश्यक था।
प्रधानमंत्री जानते थे कि देश में लगभग 30 लाख करोड़ का कालाधन है। वे यह भी जानते थे कि 500 एवं 1000 के नोट में देश की कुल मुद्रा का लगभग 86 फीसदी है। वे यह भी जानते थे कि भारत में कुल करदाताओं का प्रतिशत मात्र 3 प्रतिशत है, इनमें से भी 5 लाख से कम कर देने वालों की हिस्सेदारी 85 फीसदी के लगभग है। वे यह भी जानते थे कि देश के सकल घरेलू उत्पाद में कालेधन की मात्रा 20 फीसदी है और एक समानान्तर कालेधन की अर्थ व्यवस्था देश को घुन की तरह चाट रही है। अत: रातों रात एक सर्जिकल स्ट्राइक से देश में सीमित अंतराल के लिए आर्थिक अराजकता आ सकती है पर बावजूद इसके उन्होंने यह निर्णय लिया तो इसके पीछे उनका स्वयं पर तो विश्वास था ही वहीं उनका अदम्य विश्वास देश के आम आदमी पर भी था। वे जानते थे कि यह देश सिर्फ चंद पूंजीपतियों का देश नहीं है, जिनके नाम यदाकदा फोब्र्स की सूची में आते हैं, वे यह भी जानते थे कि यह देश उन चंद जनप्रतिनिधियों का नहीं है, जो देश की आवाज को दबा कर संसद को ठप करते हंै, वे यह भी जानते थे कि यह देश उन भ्रष्ट नौकरशाहों का भी नहीं है, जिन्होंने अमानत में खयानत की है।
वे जानते थे यह देश भामाशाहों का देश है, जो देश की खातिर अपनी पंूजी महाराणा के चरणों में रख देते हैं। वे जानते थे कि यह देश उन वीर सैनिकों का है जो रक्त की आखिरी बंूद तक भारत माता की जय का घोष करते हैं, वे जानते थे कि यह देश उन करोड़ों-करोड़ों देशभक्तों का है जिन्होंने लाल बहादुर शाी के आव्हान पर एक दिन का उपवास रखा या आज अपना पेट काट कर भी गैस की सब्सिडी छोड़ दी।रेखांकित करें इस पंक्ति को कि स्व. शाी के बाद यह पहला अवसर है कि देश के शीर्षस्थ नेतृत्व ने देशवासियों से सीधा संवाद स्थापित कर अपने स्वार्थ का बलिदान मांगा और देश ने दिया। अत: आज नोटबंदी पर इधर उधर दिखाई देती कतारें, नेताओं के बयान विकास दर का रोना, संसद में शोर यह वस्तुत: देश की आवाज नहीं है। देश की आवाज तो जो आज सुनाई दे रही है उसे सुनकर देश की भ्रष्ट राजनीति कांप रही है नौकरशाही के होश उड़ गए हंै।
वह देख रही है, देश कतार में नहीं है। दरअसल कतार में तो वह अब तक था। कारण वह देख रहा था, भोग रहा था कि उसके हक को, उसके अवसरों को देश का चंद दो तीन फीसदी वर्ग ही अपने लाभ के लिए बेशर्माई से भुना रहा है और वह आज तक प्रतीक्षा में ही है। यह अंतहीन प्रतीक्षा वह विगत सात दशक से कर रहा है और देख रहा है कि उसका नम्बर आ नहीं रहा और पीछे पंक्ति की लंबाई अंतहीन बढ़ रही है। उसकी यह हताशा उसे तोड़ रही थी। विगत 8 नवम्बर के बाद पहली बार यह कतार टूट रही है। देश भर में हलचल है, दिखाई दे रहा है, देश अब बदल रहा है, देश अब उठ रहा है। बेशक अभी कई खतरे हैं। बेशक अभी षड्यंत्रों की नई-नई तरकीबें हैं। बेशक अभी भी यह कहना मुश्किल है कि देश अब भ्रष्टाचार से मुक्त हो ही जाएगा पर हां देश ने ठानी अवश्य है, खुद को बदलने की एक नई शुरुआत करने की।
“आइए राष्ट्र निर्माण के इस अभूतपूर्व यज्ञ में हम भी अपनी आहुति दें।”