बिहार के चुनावी चौसर का चंद्रगुप्त कौन-

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अरविंद जयतिलक

बिहार विधानसभा चुनाव की तिथियों के एलान के साथ ही सियासी सरगर्मी बढ़ गयी है। चुनावी चौसर पर गोटियां बिछाने-सजाने, मतदाताओं को लुभाने-बरगलाने और सहयोगियों की गठरी का गांठ कसने का खेल शुरु हो गया है। चुनाव आयोग की कार्ययोजना के मुताबिक चुनाव तीन चरणों में 28 अक्टुबर, तीन व सात नवंबर को संपन्न होंगे। नतीजे दीवाली से ठीक चार दिन पहले 10 नवंबर को आएंगे। कहीं खुशियों के दीप जलेंगे तो कहीं घुप्प सियासी अंधेरा होगा। कई पुराने क्षत्रपों की इजारेदारी टूटेगी तो कई नए लोकतांत्रिक नमूदारों का आविर्भाव होगा। कई दल सैद्धांतिक प्रतिबद्धता को खंडित और अपने राजनीतिक शिविरों को उजाड़-ढ़हा जनता की रहनुमाई के नाम पर सत्ता के लिए विरोधी खेमा के हिस्सा होंगे। सत्ता की मलाई कूटने के लिए अपने टूटपूंजिए विचारों और निर्गुण बहस के जरिए लोकतंत्र की परिभाषा गढेंगे। बहरहाल बिहार के चुनावी चौसर का चंद्रगुप्त कौन होगा यह तो 10 नवंबर को ही पता चलेगा। लेकिन सतह पर उभर रहे समीकरणों पर नजर डालें तो फिलहाल महागठबंधन के मुकाबले एनडीए ताकतवर है। उसका मुख्य कारण यह है कि नीतीश के 15 साल के शासन के खिलाफ जिस प्रतिरोध के प्रस्तावना पर तेजस्वी यादव महागठबंधन के साझीदारों से मुहर लगवाना चाहते थे उसमें नाकाम साबित हुए। कलह के कोलाहल में उलझे महागठबंधन के साथियों में भगदड़ है और कांग्रेस को छोड़ कोई भी उनके साथ रहने को तैयार नहीं है। राजद की नजर एनडीए के घटक रामविलास पासवान की लोजपा पर है जो सीट बंटवारे को लेकर नाराज हैं। लेकिन वे राजद के साथ जाएंगे इसमें संदेह है। हिंदुस्तान अवामी मोर्चा जो पहले महागठबंधन का हिस्सा था अब एनडीए में है। उसके नेता जीतन राम मांझी को जेड प्लस सुरक्षा भी मिल गयी है। महागठबंधन के दूसरे साथी रालोसपा नेता उपेंद्र कुशवाहा भी एनडीए में आने को आतुर हैं। कहते हैं न कि राजनीति भरोसा पैदा नहीं करती सिर्फ मौका देती है। मांझी और कुशवाहा दोनों को इसी मौके का इंतजार था। अब दोनों इस निष्कर्ष पर हैं कि एनडीए के कंधे पर सवार होकर सत्ता-सल्तनत का हिस्सेदार बन सकते हैं। दरअसल उनके आंकलन का आधार यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में 243 विधानसभा सीटों में से 223 पर एनडीए गठबंान आगे रहा। उन्हें लगता है कि यह करिश्मा विधानसभा चुनाव में भी चलेगा। मांझी और कुशवाहा दोनों अपने अंदेशों को गलत-सही होते देखने को तैयार हैं। एनडीए और महागठबंधन की मजबूती और कमजोरी की बात करें तो एनडीए के पास मोदी-नीतीश के रुप में मजबूत सियासी चेहरा है। जबकि महागठबंधन के बड़े नेता तेजस्वी यादव को अभी अग्निपरीक्षा से तपकर निखरना बाकी है। लालू परिवार में गंभीर मतभेद और लालू के जेल जाने से महागठबंधन की बुनियाद कमजोर हुई है। चूंकि लालू प्रसाद यादव चुनावी समर से बाहर हैं ऐसे में तेजस्वी यादव के लिए जातीय गोलबंदी का व्यूह रचना आसान नहीं होगा। जातीय गोलबंदी के बरक्स ही लालू ने 15 साल तक बिहार में निष्कंटक शासन किया। मुस्लिम-यादव गठजोड़ के अलावा दलित-अति पिछड़ी जातियां भी उनकी मुरीद थी। उन्हें सामाजिक न्याय का अगुवा मानती थी। लेकिन उनका यादव-मुस्लिम प्रेम एवं अन्य जातियों की उपेक्षा ने उनसे अति-पिछड़ी जातियों को अलग कर दिया। पशुपालन घोटाला में जेल जाने के बाद उनका आभामंडल निस्तेज है। वे खुद राजद के चुनावी पोस्टर से गायब हैं। फिर समझा जा सकता है कि अब उनकी कितनी प्रासंगिकता रह गयी है। दो राय नहीं कि बिहार की जनता कोरोना काल में स्वास्थ्य सेवाओं में व्याप्त अराजकता को लेकर सरकार से नाराज है। बाढ़ में हजारों एकड़ फसलों के नुकसान से किसान भी दुखी हैं और चुनाव में सरकार को मजा चखाने की बात कर रहे हैं। उधर, बेरोजगारी को लेकर युवा सड़कों पर हैं। जुलाई में जारी आंकड़ों के मुताबिक बिहार में बेरोजगारी दर पिछले साल से तीन प्रतिशत बढ़कर 10.2 प्रतिशत तक पहुंच गयी है। जबकि देश में बेरोजगारी दर 5.8 प्रतिशत है। केंद्र व राज्य सरकार द्वारा कई भत्ते बंद किए जाने से सरकारी कर्मचारी भी नाराज हैं। लाॅकडाउन में हजारों किलोमीटर की यात्रा तय करने वाले मजदूर भी नीतीश सरकार से खफा हैं। सृजन घोटाला और मुजफ्फरपुर शेल्टर होम की घटना नीतीश की साफ-स्वच्छ छवि को बट्टा लगाया है। राज्य में चोरी, हत्या और महिलाओं पर अत्याचार से सुशासन की पोल खुल चुकी है। ‘बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है’ का नारा मजाक बन गया है। भाजपा के साथ होने के बाद जिस तरह नीतीश ने बिहार को विशेष राज्य का दर्जा की मांग को बर्फखाने में डाला है, उससे जनता नाराज और उन्हें अवसरवादी बता रही है। लेकिन सच यह भी है कि नीतीश को लेकर जमीन पर विरोध की सुनामी नहीं है। विरोध की लहर धीमी है जिसे थामा जा सकता है। दरअसल जनता नीतीश को तभी खारिज करेगी जब उसके पास ठोस विकल्प होगा। अब सवाल यह है कि क्या तेजस्वी यादव नीतीश कुमार का विकल्प बन सकेंगे? कहना मुश्किल है। इसलिए कि बिहार में मुद्दों से कहीं ज्यादा जातीय और सामाजिक समीकरण चुनाव को प्रभावित करते हैं। चुनावी गठबंधन जातीय गोलबंदी को ध्यान में रखकर ही किए जाते हैं। उदाहरण के लिए 2010 के विधानसभा चुनाव में भाजपा-जदयू और लोजपा ने मिलकर चुनाव लड़ा और 209 सीटें हासिल की। तब भाजपा को 16.5 प्रतिशत, जदयू को 22.66 प्रतिशत और लोजपा को 6.7 प्रतिशत वोट हासिल हुआ। यानी ये दल राजनीतिक गोलबंदी के बरक्स जातीय गोलबंदी को आकार देने में सफल रहे। उस समय एनडीए को 46 प्रतिशत वोट मिला। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में सामाजिक समीकरण बदलते ही जातीय समीकरण और चुनावी नतीजा दोनों बदल गया। 2015 के विधानसभा चुनाव में राजद, जदयू और कांगे्रस ने महागठबंधन गढ़ा और ऐतिहासिक जीत मिली। जदयू को 71, राजद को 80 और कांग्रेस को 27 सीटें मिली। तीनों का वोट शेयर तकरीबन 43 प्रतिशत रहा। हिंदुस्तान अवामी मोर्चा को एक और रालोसपा को दो सीटें मिली। दूसरी ओर भाजपा को 53 सीटों पर संतोष करना पड़ा। लेकिन उसके वोट प्रतिशत में डेढ़ गुना इजाफा हुआ। उसे 24.4 प्रतिशत वोट हासिल हुआ लेकिन सत्ता तक पहुंचने में विफल रही। बिहार के जातीय अंकगणित की बात करें तो बिहार में 51 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग मतदाता हैं। इनमें यादव 14.4 प्रतिशत, कुर्मी-कुशवाहा 15 प्रतिशत और तकरीबन 21.5 प्रतिशत अति पिछड़ी जातियां हैं। इसी तरह दलित मतदाता 16 प्रतिशत, सवर्ण 17 प्रतिशत और मुस्लिम मतदाता 16.9 प्रतिशत हैं। ये जातीय ही चुनाव में हार-जीत का फासला और फैसला तय करती हैं। लालू की नेतृत्ववाली राजद मुस्लिम-यादव एवं अन्य पिछड़ी जातियों के बलबूते डेढ़ दशक तक सत्ता पर काबिज रही। लेकिन सत्ता में मुस्लिम-यादवों की बढ़ती हनक एवं अन्य की घोर उपेक्षा ने अति-पिछड़ी जातियों को नाराज कर दिया। आज ये जातियां नीतीश के पाले में हैं। अब राजद के पास सिर्फ 31 प्रतिशत यादव और मुस्लिम वोटबैंक हैं। ऐसी स्थिति में महागठबंधन के लिए सत्ता तक पहुंचना आसान नहीं होगा। सिर्फ घोषणा पत्र में ‘उठो बिहारी, करो तैयारी’ का नारा उछाल देने मात्र से नजारा नहीं बदलने वाला। महागठबंधन में कांग्रेस जरुर शामिल है लेकिन वह उर्जा देने के बजाए राजद से ही उर्जा हासिल कर चुनावी वैतरणी पार करती है। चुनाव जीतने के लिए तीन प्रमुख पैमाने होते हैं-मजबूत सामाजिक समीकरण, नेतृत्व की विश्वसनीयता और संगठन की क्रियाशीलता। क्या राजद नेतृत्ववाला महागठबंधन इन तीनों पैमाने पर खरा हैं? बिल्कुल नहीं। एनडीए की बात करें तो उसके पास तीनों खूबियां है। भाजपा-जदयू के साथ होने से अगड़ा और अति पिछड़ा समीकरण मजबूत है। नीतीश आज भी जनता के बीच स्वीकार्य हैं। दोनों दलों का संगठन मजबूत और क्रियाशील है। रालोसपा और हिंदुस्तान अवामी मोर्चा का एनडीए से जुड़ना अतिरिक्त बोनस जैसा होगा। इससे दलितों और अतिपिछड़ों का ध्रुवीकरण तेज होगा और एनडीए मजबूत होगी। इन समीकरणों के बरक्स अगर नीतीश कुमार पुनः चुनावी चौसर के चंद्रगुप्त साबित होते हैं तो इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं होगा।

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