बहुत से विचारकों ने इसे भारतीय लोकतंत्र का एक अभाव मान लिया है। उसके कुछ लक्षण तो प्रायः हर आदमी को नजर आते हैं। देश भर में हर साल चुनाव का सिलसिला जारी रहता है। कभी दक्षिण का कभी उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड का, कभी महाराष्ट्र तो कभी गोवा का, कभी जम्मू-कश्मीर का। यह मानना चाहिए कि करीब-करीब पांचों वर्ष चुनाव का माहौल बना रहता है। सारा देश चुनावी मोड में ही रहता है। कोई साल ऐसा नहीं गुजरता, जब महत्वपूर्ण चुनाव नहीं होते। इसका एक परिणाम यह होता है कि सारी पार्टियां चुनावी मुद्रा में ही रहा करती हैं। राजनैतिक विचार मंथन का कभी सुयोग ही नहीं बनता। सारा देश राजनीति से आप्लावित होता है। कभी पश्चिम बंगाल में चुनाव है तो वह पूर्वोत्तर और दक्षिण के प्रदेशों को भी प्रभावित करते हैं। इसी तरह दक्षिण प्रदेश के चुनाव सारे भारत को प्रभावित करते हैं। आखिरकार सम्पूर्ण देश एक है तो उसकी चुनावी चखचख भी न्यारी कहां तक होगी। इसका एक दुष्परिणाम यह होता है कि हर समय सारे देश पर चुनाव हावी रहता है। हर राजनैतिक भी इसमें शामिल हैं और इनकी राजनीति भी। राजनैतिक दांवपेंच भी।
कहीं अच्छा होता कि पांच साल में एक बार चुनाव होते, और बाकी समय रचनात्मक राजनीति चलती। साथ ही राजनैतिक दलों को अपने अपने कार्यक्रम को करने का मौका मिल जाता। अलावा इसके आज देश के सारे राजनैतिक दलों पर एक तरह से ग्रहण लगा हुआ है। संगठनात्मक गतिविधियां नाममात्र की हैं। आप कल्पना कीजिए स्वतंत्रता पूर्व के काल में संगठनात्मक गतिविधियां किस तेवर में कार्य करती थीं। आज उसके मुकाबले राजनैतिक दलों का मूल भाव है, मारो पैसा, लूटो पैसा। और मूलमंत्र है, बदलो पार्टी। जहां घी दिखे वहीं हांड़ी तोड़ो।
वैसे भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि पर आधारित वार्षिकता चुनाव को अधिक उपयुक्त बनाती है। इसी तरह शैक्षणिक सत्र को भी चुनाव से खलल पड़ता है। क्योंकि शिक्षा-सत्र का अपना एक तारतम्य है। अक्सर हम लोग जानते हैं कि चुनाव के कारण तिथियों में भी परिवर्तन होते रहते हैं। परीक्षा कभी असमय में हो जाती है तो कभी समय से। एक ओर परेशानी यह है कि जेठ की दुपहरी और बरसात के मौसम से लेकर कड़कड़ाती ठंड में भी चुनाव की तिथियां पड़ जाती हैं। और उससे मतदान भी प्रभावित होते हैं। इसलिए पांच साल में सिर्फ एक बार ही चुनाव होने चाहिए। इसका एक लाभ और है कि राज्यससभा के चुनाव में जो राजनैतिक अंतर हो जाता है उससे कुछ हद तक मुक्ति पाई जा सकती है। राज्यसभा और लोकसभा के अधिकारों में टकराव और मतैक्य कुछ हद तक बना रह सकता है। जहां तक संवैधानिक क्षमताओं का सवाल है कुछ हद तक तो इस सफलता को प्राप्त किया जा सकता है।
सारे देश में चुनावी माहौल के राजनैतिक हस्ताक्षेप के कारण ग्रामीण समाज में वातावरण विषाक्त बन जाता है। जैसा कि आज हो रहा है। ग्राम पंचायतों के चुनाव के माहौल में जो बिगाड़ आता है, उसकी व्यथा-कथा तो बहुत ही दर्दनाक है। आज ग्रामीण समाज के बंटवारे जैसी स्थिति हो गई है। उस पर राजनीतिक दलों और गुटों की भागीदारी आज ग्रामीण समाज में एक राजनैतिक अराजकता जैसी स्थिति बना रही है। यह नहीं कि इस पर कोई चर्चा नहीं हुई। राजनैतिक समीक्षकों ने गम्भीर विश्लेषण लिखे। यह भी एक विचार का विषय होगा कि ग्राम पंचायतों में कितना भ्रष्टाचार बढ़ा है और कितना पनपा है। पंचायती राज में समाज की व्यवस्था बेहतर हुई है या बदतर? जाति के आधार पर भी समाज का बंटवारा कम घातक नहीं है। और गम्भीर विचार का विषय यह है कि हर साल चुनाव के बजाए पंचवर्षीय चुनाव हों तो सामाजिक जहरीलापन भी घट जाएगा।
आए साल चुनाव के माहौल से जो सरगर्मी आती है उससे चुनावी भ्रष्टाचार में कितना इजाफा होता है, हमें उसका एहसास है। पांच साल में एक बार चुनाव करने में कितना धन-व्यय रुकता है। जाहिर है विकास की गति पर भी इसका बुरा असर पड़ता है। हमारी यह मान्यता बनी है कि इसके दुष्परिणाम कम होंगे और सुपरिणाम अधिक होंगे। कम से कम सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक फलकों पर तो अच्छे परिणाम होंगे ही। हमें यह भी एहसास है कि कानूनविदों से अधिक इसमें अड़चनें पैदा होंगी। लेकिन एक एहसास यह भी है कि देश का सामाजिक हित इसमें अधिक है।
एक बात यह भी है कि हर चुनाव में खर्चे अधिक होते जा रहे हैं और इससे कुल मिलाकर कालेधन की शक्ति बढ़ती है। कालाधन का शिकंजा कस जाता है। चुनाव जितने ही अधिक बार होंगे, भारत की स्थिति में यह सच है कि विकास दर उतनी ही कम होगी। जब तक चुनाव खर्चों की अमूलचूल परिवर्तन की व्यवस्था नहीं होगी तब तक न तो महंगाई मिटाई जा सकती है, न गरीबी और न ही भ्रष्टाचार। क्योंकि यह तीनों एक दूसरे का पोषण करते हैं। अगर राजनैतिक दलों में एक मतैक्य हो तो यह काम अधिक कठिन भी नहीं है। लेकिन मतैक्य की कोई गुंजाइश ही नहीं है। कितनी ही अच्छी बात है कि अगर कांग्रेस, भाजपा और अनेक दलों ने जो अपना विज़न-2020 (दृष्टि-पत्र) बनाया है, इसमें पांच साल में एक बार ही आम चुनाव की वचनबद्धता को भी जोड़ दिया जाए तो अगले कुछ आम चुनाव के पहले यह फैसला हो सकता है कि पांच साल में एक बार ही चुनाव होंगे। मुझे मालूम है कि यह खुशफहमी है। चोखा रंग का अचूक फार्मूला।
दूसरी तरफ एक जनजागरण अभियान की जरूरत है कि सन् 2020 से इसे लागू कर दिया जाए और उसकी यथाशीघ्र तैयारी शुरू की जाए। जैसे कुछ लोग भ्रष्टाचार का मुद्दा बनाकर सम्पूर्ण परिवर्तन की कल्पना कर सकते हैं तो चुनाव जैसे वास्तविकता पर घनघोर तैयारी के साथ जनमत जागरण करना अगर संभव हो तो करना चाहिए। क्योंकि यह अपने आप में ऐसा विराट लक्ष्य है कि जिससे कहा जा सकता है कि एक ही साधे सब सधे, सब साधे सब जाए। यह एक रामबाण इलाज है। एक तरफ भ्रष्टाचार को बड़ी हद तक दूर कर सकता है, दूसरी तरफ चुनाव का शोषण भी निपटा सकता है और काले धन का निपटारा भी कर सकता है। एक तरफ लोगों का ध्यान इस तरफ कम गया है कि हर चुनाव के बाद मंहगाई बढ़ती है और भ्रष्टाचार फलता फूलता आया है। इसलिए लोगों का ध्यान इस तरफ आना चाहिए।
एक बहुत महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इसका बहुत कम विरोध किया जा सकेगा। क्योंकि प्रकटतः इसमें पांच वर्ष में चुनाव करने की मतभेद की संभावनाएं कम से कम हैं। वैसे तो मतभेद की संभावनाएं हर हालत में होती हैं। लेकिन मैं मानता हूं कि इसमें न्यूनतम मतभेद-संभावनाएं हैं। क्योंकि यह न्यायपूर्ण और समदर्शी राजनैतिक तरीका है। यह काले धन, भ्रष्टाचार और जनलोकपाल विधेयक जैसे विवादास्पद भी नहीं हैं। एक विशेष मुद्दा यह है कि न इसमें चुनाव पर रोक की बात होगी और न इसमें किसी दल विरोध की बात होगी। इसमें थोड़ी सी बात होगी कि सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय। मैं तो मानता हूं कि यह एक निर्विरोध प्रस्ताव जैसा सकारात्मक तंत्र विकास की प्रणाली होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सांसद हैं)
श्रीमान मिश्र जी आप तो सांसद रह चुके हैं,आपही बताइये कि जब संविधान में पांच साल में एक बार चुनाव का प्रावधान है तो इस तरह हर वर्ष चुनाव की नौबत क्यों आयी?