“ऋषि दयानन्द ने अवैदिक मतों की समीक्षा व खण्डन क्यों किया?”

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मनमोहन कुमार आर्य

आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द ने योगेश्वर श्री कृष्ण की जन्म भूमि मथुरा में स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से विद्या प्राप्त की थी। विद्या पूरी होने पर गुरु दक्षिणा के अवसर पर गुरु विरजानन्द जी ने स्वामी दयानन्द को वेद एवं ऋषियों के बनाये सद्ग्रन्थों का प्रचार और सद्ज्ञान विरुद्ध मिथ्या मतों, उनकी मान्यताओं व परम्पराओं का खण्डन करने का परामर्श दिया था। ऋषि दयानन्द ने अपने गुरु के परामर्श को आज्ञा मान कर उसे तत्काल स्वीकार कर लिया था और इस वचन की पूर्ति के लिये सन् 1863 से आरम्भ करके सन् 1883 में मृत्यु पर्यन्त गुरुजी को दिए अपने वचनों का पालन किया। ऋषि दयानन्द ने किसी मत के सत्य सिद्धान्त मान्यता अथवा सत्य परम्परा का खण्डन नहीं किया अपितु अविद्यायुक्त मिथ्या मान्यताओं का ही खण्डन किया है। उन्होंने सत्य को स्वीकार करने की प्रेरणा तो की है परन्तु किसी को लोभ, बल प्रयोग या भय से सत्य को मानने पर बाध्य नहीं किया जबकि दूसरे मतमतान्तर इतर मतों के भोलेभाले लोगों का भय प्रलोभन आदि के आधार पर सदियों से मतान्तरण धर्मान्तरण करते आये हैं और वर्तमान में भी कर रहे हैं। अवैदिक मतों, उनके आचार्यों व अनुयायियों के इतिहास पर दृष्टि डालें तो उन्होंने मतान्तरण करने में हिंसा का भी सहारा लेने से गुरेज नहीं किया। उनका ऐसा करना निश्चय ही मानवता के विरुद्ध था। ऐसी स्थिति में सत्य का प्रचार और सत्य को स्वीकार करने की प्रेरणा को किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं कहा जा सकता। मनुष्य जाति की उन्नति के लिये सत्य को जानना मानना अत्यन्तावश्यक है। आज विज्ञान ने जो उन्नति की है वह सत्य सिद्धान्तों की खोज, उसे अपनाकर तथा मत-मतान्तरों की मिथ्या मान्यताओं का त्याग कर ही की है। ऋषि दयानन्द ने तो संसार को ज्ञान व विज्ञान की उन्नति का अद्भुत विचार दिया है। उन्होंने आर्यसमाज के आठवें नियम में प्रावधान किया है कि अविद्या का नाश और विद्या की उन्नति करनी चाहिये। इसी नियम व इसकी भावना से प्रेरित होकर ही उन्होंने वैदिक आर्यावर्तीय मतों सहित इतर सभी मतों की समीक्षा की है और जहां आवश्यक हुआ वहां लोगों के जीवन का सुधार व उसे उपयोगी बनाने के लिये असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन भी किया है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के उत्तरार्ध के चार समुल्लास देशी व विदेशी मतों की समीक्षा में लिखे गये हैं। इसका कारण स्पष्ट करते हुए ऋषि दयानन्द ने इन सभी समुल्लासों की अनुभूमिकायें भी लिखी हैं। यहां हम सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास की अनुभूमिका को ऋषि दयानन्द के शब्दों में ही प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे मत-मतान्तरों की समीक्षा व खण्डन के उद्देश्य व महत्व को समझा जा सके। सभी मत-मतान्तरों के अनुयायियों को ऋषि दयानन्द के इन विचारों को ध्यान से पढ़ना चाहिये तभी वह ऋषि दयानन्द की भावनाओं को समझ सकते हैं और यह भी जान सकते हैं कि असत्य का खण्डन व समीक्षा आवश्यक क्यों हैं? ऋषि दयानन्द अनुभूमिका में लिखते हैं कि यह सिद्ध बात है कि पांच सहस्र वर्षों के पूर्व वेदमत (वैदिक धर्म) से भिन्न दूसरा कोई भी मत था क्योंकि वेदोंक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने का कारण महाभारत युद्ध हआ। इन की अप्रवृत्ति से अविद्यान्धकार के भूगोल में विस्तृत होने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिस के मन में जैसा आया वैसा मत चलाया। उन सब मतों में 4 चार मत अर्थात् जो वेदविरुद्ध पुराणी, जैनी, किरानी और कुरानी सब मतों के मूल हैं वे क्रम से एक के पीछे दूसरा तीसरा चौथा चला है। अब इन चारों की शाखा एक सहस्र से कम नहीं हैं। इन सब मतवादियों, इन के चेलों और अन्य सब को परस्पर सत्यासत्य के विचार करने में अधिक परिश्रम हो इसलिए यह ग्रन्थ (सत्यार्थप्रकाश) बनाया है।जो-जो इस में सत्य मत का मण्डन और असत्य मत का खण्डन लिखा है वह सब को जनाना (विदित करना) ही प्रयोजन समझा गया है। इस में जैसे मेरी (ऋषि दयानन्द) बुद्धि, जितनी विद्या और जितना इन चारों मतों के मूल ग्रन्थ देखने से बोध हुआ है इसको सब के आगे निवेदित करना मैंने उत्तम समझा है क्योंकि विज्ञान गुप्त हुए (विलुप्त ज्ञान व विज्ञान) का पुनः मिलना सहज नहीं है। पक्षपात छोड़कर इस को देखने से सत्यासत्य मत सब को विदित हो जायेगा। पश्चात् सब को अपनीअपनी समझ के अनुसार सत्यमत का ग्रहण करना और असत्य मत को छोड़ना सहज होगा। इन में से जो पुराणादि ग्रन्थों से शाखा शाखान्तर रूप में मत आर्यावर्त देश में चले हैं उन का संक्षेप से गुण दोष इस (सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के) 11वें समुल्लास में दिखलाया है। इस मेरे कर्म से यदि उपकार मानें तो विरोध भी करें। क्योंकि मेरा तात्पर्य किसी की हानि वा विरोध करने में नहीं किन्तु सत्यासत्य का निर्णय करने कराने का है। इसी प्रकार सब मनुष्यों को न्यायदृष्टि से वर्तना अति उचित है। मनुष्य जन्म का होना सत्यासत्य का निर्णय करने कराने के लिये है, कि वाद विवाद विरोध करने कराने के लिये। इसी मतमतान्तर के विवाद से जगत् में जोजो अनिष्ट फल हुए, होते हैं और आगे होंगे उन को पक्षपातरहित विद्वज्जन जान सकते हैं।जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का विरुद्ध वाद (हठ आदि दोष) छूटेगा तब तक अन्योन्य को आनन्द होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईर्ष्या द्वेष छोड़ सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कराना चाहैं तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है।यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ही ने सब को विरोध-जाल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फंस कर सब के प्रयोजन को सिद्ध करना चाहैं तो अभी ऐक्यमत हो जायें। इस के होने की युक्ति इस (सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ) की पूर्ति में लिखेंगे। (इसे ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश के नाम से लिखा है।) सर्वशक्तिमान् परमात्मा एक मत में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों के आत्माओं में प्रकाशित करे।सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास की ही तरह ऋषि दयानन्द ने इसके बाद के अन्य तीन समुल्लासों की अनुभूमिकायें भी लिखी हैं। सभी मतों की समीक्षा में एक ही भावना है कि असत्य को हटाया जाये, सत्य को जीवन में प्रतिष्ठित किया जाये जिससे सभी मनुष्यों में एकता स्थापित होकर सब एक ईश्वर की उपासना कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकें। यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि संसार में दो प्रकार के ही विचार हैं, एक सत्य और दूसरे असत्य अथवा सत्यासत्य मिश्रित। सत्य का प्रचार असत्य व सत्यासत्य मिश्रित विचारों की समीक्षा कर ही किया जा सकता है। यही कार्य ऋषि दयानन्द जी ने किया था। हमारे वैज्ञानिक भी असत्य और सत्य में से सत्य को ग्रहण करते हैं और असत्य का त्याग करते है। धर्म भी सत्य मान्यताओं का नाम हैं और जो सत्यासत्य मिश्रित मान्यतायें धर्माधर्म मिश्रित वाद मत हैं उनका वेदानुकूल होना आवश्यक है। धर्म का एक पर्यायवाची शब्द सत्याचरण भी हैं। वैदिक वेदानुकूल सिद्धान्त मान्यतायें ही सत्य होती हैं। वेदों का प्रचार वेदों को अपनाने से ही विश्व में सुख शान्ति की स्थापना हो सकती है। ईश्वर, जीवात्मा एवं प्रकृति का अस्तित्व सत्य है। अतः धर्म, मत, पन्थ व सम्प्रदाय भी असत्य और अविद्या से मुक्त होने चाहिये। इसी को व्यवहारिक रूप देने के लिए ऋषि दयानन्द ने वेदों का प्रचार, अविद्या का नाश तथा मत-मतान्तरों की असत्य मान्यताओं की समीक्षा व खण्डन किया था जो सत्य अर्थात् धर्म की स्थापना, सामाजिक समरसता व विश्व शान्ति के लिए अत्यावश्यक है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

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