“अग्निहोत्र-यज्ञ क्यों करें?”

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मनमोहन कुमार आर्य

सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को वेदों का भाषा व उनके अर्थ सहित ज्ञान दिया था। वेदों में यज्ञ करने का विधान है जिसके आधार पर महर्षि दयानन्द जी ने यज्ञ की पूर्ण विधि पंचमहायज्ञ विधि सहित संस्कार विधि में दी है। यज्ञ क्यों करें, इस प्रश्न का उत्तर भी ऋषि ने अपने ग्रन्थों में दिया है। यज्ञ सभी गृहस्थियों व अन्य तीन आश्रम के लोगों का भी प्रमुख कर्तव्य है। यह कर्तव्य इसलिये है कि इससे हमारा व दूसरों का कल्याण होता है। कल्याण का विलोम शब्द अकल्याण व हानि होता है। यदि हम यज्ञ नहीं करेंगे तो हमारी हानि होगी इसलिये ऋषि दयानन्द जी और उनसे पूर्व के ऋषियों ने भी प्राचीन ग्रन्थों में यज्ञ का विधान किया है। यज्ञ करने से वायु व वर्षा-जल की शुद्धि होती है। वायु व जल हमारे लिये सबसे अधिक आवश्यक पदार्थ हैं। यदि हमें दो मिनट भी वायु न मिले तो हमारे प्राण बाहर आने को होते हैं। सर्दियों में ऐसी अनेक घटनायें घटती हैं कि जब लोग अपने कमरे बन्द करके और अंगेठियां जला कर सो जाते हैं। इससे कमरे की वायु आक्सीजन गैस का अभाव हो जाता है जिससे कुछ लोगों की मृत्यु हो जाती है। इस उदाहरण से वायु के महत्व को समझा जा सकता है। इसके बाद अन्न व ओषधियों का स्थान आता है। यह सभी पदार्थ और वनस्पतियां भी यज्ञ करने से शुद्ध व पवित्र होती हैं जिसके सेवन से मनुष्य निरोग, स्वस्थ, बलवान, प्रसन्न, सुखी व दीर्घायु होता है। अतः सबको यज्ञ अवश्य ही करना चाहिये।

 

अग्निहोत्र-यज्ञ करने से मनुष्य स्वस्थ व निरोग कैसे होता है, इसका कारण उसे शुद्ध वायु का प्राप्त होना है। हम जो श्वांस लेते हैं उसमें यदि आक्सीजन की मात्रा की कमी होती है तथा विषैली गैसे जैसे कार्बन डाई आक्साइड व अन्य गैसें अधिक मात्रा में मिली हुई होती हैं तो इससे फेफड़ों का हमारा रक्त यथोचित मात्रा में शुद्ध नहीं होता जिससे शरीर में अनेक प्रकार के रोग होने की आशंका होती हैं। अग्निहोत्र-यज्ञ करने से वायु शुद्ध होती है और हमें प्राण व श्वांस लेने के लिये शुद्ध आक्सीजनयुक्त वायु मिलती है। यज्ञ में हम जो गोघृत, ओषधि व वनस्पतियों से युक्त सामग्री, गुड़-शक्कर व सुगन्धित केसर, कस्तूरी एवं अगर, तगर व गुग्गल आदि डालते हैं, यह सब हमें स्वस्थ रखने के साथ आरोग्य प्रदान करती हैं। इससे हम स्वस्थ एवं निरोग होकर बलवान व दीर्घायु होते हैं। यज्ञ करने से वर्षा भी होती है। महाभारत के एक अंग गीता में इसका उल्लेख है। यज्ञ की घूम्र से आकाश का वृष्टि जल शुद्ध होकर ओषधियुक्त हो जाता है जिसकी वर्षा होने से हमारा अन्न, ओषधियां व वनस्पतियां आदि सभी उत्तम आरोग्यकारक होती हैं। यह लाभ दैनिक व काम्य अग्निहोत्र यज्ञों को करने से होते हैं। दैनिक यज्ञ प्रातः व सायं दो समय अवश्य करना चाहिये। इससे हमें अपने घरों के भीतर भी शुद्ध वायु श्वांस हेतु प्राप्त हो सकेगी। घर के भीतर मध्य में यज्ञ करने से यज्ञाग्नि के सम्पर्क में आकर घर के अन्दर की वायु गर्म होकर हल्की हो जाने से वह रोशनदान व खिड़की दरवाजों से बाहर चली जाती है और बाहर की यज्ञ के धूम्र से शुद्ध हुई वायु घर में प्रवेश करती है जिससे हमें श्वांस के लिये आरोग्य देने वाली वायु मिलती है। अतः इस कारण यज्ञ किया जाता है व सभी लोगों को यज्ञ के इन लाभों को जानकर यज्ञ अवश्य करना चाहिये।

 

यज्ञ में हम वेदों के मन्त्रों को पढ़ते हैं। इससे मन्त्र कण्ठस्थ होने से इनकी रक्षा व प्रचार होता है। वेदों के मन्त्र ईश्वर प्रदत्त है और इनके ज्ञान से मनुष्यों का कल्याण होता है। अतः यज्ञ व इसमें मन्त्रोच्चार करना सभी मनुष्यों का कर्तव्य है। यज्ञ से आंशिक रूप से वेदाध्ययन का लाभ होता है। मन्त्रों के पाठ से हमें मन्त्र में निहित विचारों का ज्ञान भी होता है जिसका लाभ हमें मिलता है। इनसे ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का लाभ भी वायु शुद्धि आदि लाभों से अतिरिक्त होता है। यज्ञ में प्रायः विद्वान लोगों की उपस्थिति भी होती है जिनकी संगति से हमें उनके अनुभवों व उस पर आधारित ज्ञान की बातें सुनने को मिलती है। यज्ञों में वानप्रस्थियों व संन्यासियों के साथ संगतिकरण से भी मनुष्य ज्ञान व विद्या की उपलब्धि सहित शिल्प विद्या का विकास व विस्तार होता है। यह लाभ भी यज्ञ से होता है।

 

रामायण व महाभारत सहित मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में दैनिक यज्ञ को अनिवार्य बताया गया है। दर्शन ग्रन्थों में भी यज्ञ के लाभों का वर्णन मिलता है। हमें राजा अश्वपति की कथा भी पढ़ने को मिलती है जिसमें ऋषियों को सम्बोधित कर कहा गया है कि मेरे राज्य में कोई चोर नहीं है, कोई मद्य पीने वाला नहीं है, कोई कंजूस नहीं है, कोई व्यभिचारी नहीं है, अतः वयभिचारिणी भी नहीं है। सभी अग्निहोत्र-यज्ञ करते हैं। इससे भी प्राचीन काल में यज्ञ की महिमा, उसके विधान व प्रचलन का ज्ञान होता है। प्राचीन भारत स्वास्थ्य की दृष्टि से समुन्नत था, लोग वर्तमान की तुलना में रोगी नहीं होते थे, वायु व जल वर्तमान से अधिक स्वच्छ व शुद्ध उपलब्ध होते थे जिस कारण से रोग बहुत कम थे। अब भी यदि सभी लोग यज्ञ करना आरम्भ कर दें तो रोगों में कमी आ सकती है। अतः सभी को यज्ञ करना चाहिये।

 

रामायण में एक यह भी कथा आती है कि राजा दशरथ के यहां जब दीर्घकाल तक सन्तान नहीं हुई तो उन्होंने ऋषियों की सम्मति से पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जिसके परिणाम से उनको चार पुत्रों की प्राप्ति हुई जिनमें से एक राम थे। सभी भाई वेद पथ पर चलते थे। सन्ध्या व अग्निहोत्र करते थे तथा माता-पिता सहित ऋषियों व विद्वानों की आज्ञाओं का पालन भी करते थे। उनके उन कार्यों का यश आज लाखों वर्ष बाद भी वर्तमान है। अतः यश प्राप्ति के लिये भी मनुष्य को यज्ञ सहित वेदाचरण करना चाहिये।

 

सभी आर्य ऋषि दयानन्द को अपने माता-पिता के समान मानते हैं। वह आदर्श महापुरुष थे जिन्होंने ईश्वर से हमारा परिचय व सम्बन्ध कराया। हमें उनकी आज्ञा व परामर्श के अनुसार सन्ध्या व यज्ञ सहित माता-पिता-विद्वान-अतिथि-वृद्धों की सेवा एवं पशु-पक्षियों को भोजन आदि कराना चाहिये। जब हम प्रतिदिन पंच महायज्ञों का सेवन करेंगे तभी हम ऋषि दयानन्द के अनुयायी व शिष्य कहलाने के अधिकारी होंगे।

 

यज्ञ करने से एक लाभ यह भी है कि मनुष्य जो भी कर्म करता है वह पुण्य व पाप श्रेणी के अन्तर्गत दो प्रकार के होते हैं। यज्ञ करने की आज्ञा परमात्मा ने वेदों में स्वयं दी है, अतः यज्ञ एक पुण्य कर्म है। यज्ञ से जो उपकार होते हैं उनसे भी यह स्पष्ट सिद्ध है कि यह पुण्य कर्म है। यज्ञ से असंख्य लोगों को लाभ पहुंचता है। अतः यज्ञ करने से पुण्य अधिक होता है। इस पुण्य कर्म का फल मिलना भी निश्चित है। यज्ञ से लाखों लोगों को लाभ होता है अतः हमें फल भी उसी के अनुरूप मिलेगा। यज्ञ के इस महत्व के कारण सभी को यज्ञ अवश्य ही करना चाहिये। इससे हानि कुछ नहीं और लाभ इस जन्म व परजन्म सहित उसके बाद में भी मिलता रहेगा।

 

भोपाल गैस त्रासदी से देश की जनता अभिज्ञ है। गैस के रिसने से भोपाल नगर के हजारों लोग कुछ ही समय में मरे थे। वहां एक ऐसा परिवार था जो प्रतिदिन यज्ञ करता था। उसने घर मे गाय आदि पशु भी पाले हुए थे। उस परिवार पर विषैली पोटैशियम साइनाइड गैस का कोई प्रभाव नहीं हुआ। इसका कारण था कि यज्ञ से ऐसा वातावरण बनता है कि विषैली गैसे उस यज्ञीय वातावरण का भेदन कर याज्ञिक परिवार के लोगों की नासिका तक नहीं पहुंच सकी और वह गैस से अप्रभावित रहे।

 

लेख को विराम देते हुए हम यह कहना चाहते हैं कि यज्ञ करने के लिए गोघृत, समिधाओं एवं वनस्पतियों सहित वनीय ओषधियों की आवश्यकता होती है। हमें गाय, वन व ओषधियों आदि का संरक्षण करना होगा जिससे हमें यज्ञीय सामग्री निरन्तर मिलती रहे। यह सामग्री उपलब्ध होंगी तभी यज्ञ हो सकता है। इस पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।

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