राजनेताओं को आख़िर क्यों आता है इतना गुस्सा ?

  प्रभुनाथ शुक्ल

लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनेताओं का अशिष्ट व्यवहार बदनुमा दाग है। हमारे संविधान में राजनेताओं के लिए जो लक्ष्मण रेखा खींची गई है उसका अनुपालन नहीं होता है। सत्ता राजनेताओं को विचलित करती है। वह सत्ता के मद अपने आचरण की तिलांजलि दे डालता है। जिसका नतीजा है कि सरकार का मनोविज्ञान उस पर इतना प्रभावशाली होता है कि वह अपने दायित्वों और आमजन के अधिकार को समझ ही नहीं पाता है। यूपी के धौरहरा की सासंद रेखा वर्मा पर हाल में एक पुलिसकर्मी को थप्पड़ जड़ने का आरोप लगा है। घटना उस समय हुई जब माननीय सांसद लखीमपुर जिले के मोहम्मदी में आयोजित एक कार्यकर्ता सम्मान समारोह से वापास अपने घर मकसूदपुर लौट रही थी। मोहम्मदी कोतवाली की एक स्कार्ट उनकी सुरक्षा में थी। लेकिन सांसद किसी बात पर नाराज हो गयी और सिपाही श्याम सिंह को थप्पड़ जड़ दिया। इस मामले में सांसद के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हो गया है। फिलहाल जांच के बाद स्थिति साफ होगी कि सांसद ने ऐसा अभद्र आचरण क्यों किया। रेखा वर्मा वहां से दूसरी बार सांसद चुनी गयी है। इसके पहले भी एक सरकारी मीटिंग में उन पर एक विधायक पर जूता उठाने का आरोप लग चुका है। सासंद को किसी के खिलाफ थप्पड़, जूता उठाने का क्या कोई संवैधानिक अधिकार है। संविधान ने आम आदमी को जो कानूनी अधिकार दिए हैं वहीं एक सांसद और राजनेता को भी है। वह जनप्रतिनिधि चुने जाने के बाद विशिष्ट है, लेकिन उसे शिष्ट भी बनना होगा। सासंद और राजनेताओं को कार्यपालिका में जनप्रतिनिधित्व अधिकार अधिनियम के तहत विशेष सुविधाएं और सेवाएं मिली हैं। लेकिन संविधान में उसके के लिए कोई अधिकार नहीं है। फिर उसे किसी पर जूता उठाने या थप्पड़ मारने का भी कोई अधिकार नहीं बनता है। इसे पूर्व भी बस्ती के सासंद शरद त्रिपाठी का जूता कांड सड़क से लेकर संसद तक गूंज चुका है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधियों का विशेष स्थान है। राजनेता लाखों लोगों के प्रतिनिधि होते हैं। सत्ता पाने के बाद उनसे यह कत्तई उम्मीद नहीं की जाती है कि अपने अपने गलत आचरण से व्यवस्था को धूमिल करें। उनकी पहचान तो उनकी अपनी कार्यशैली, जनता की पीड़ा और विकास की सोच होनी चाहिए। जनता से बेहद करीब होना चाहिए। क्योंकि किसी भी आम आदमी को एक खास राजनेता बनाने वाली जनता ही होती है। उसके वोट के बदौलत आप संसद और राज्य विधानसभाओं में पहुुंचते हैं फिर उसी को थप्पड़ और जूते मारने की आवश्यकता क्या है। थप्पड़ और जूते खाने वाला भी हमारे बीच का कोई अपना होता है। अगर सांसद की संबंधि सिपाही से किसी बात की नाराजगी थी तो उसकी शिकायत व्यवस्थागत माध्यम से की जा सकती थी। पुलिस अधीक्षक से लिखित शिकायत भी की जा सकती थी। डीजी और डीजीपी के अलावा मुख्यमंत्री तक बात पहुंचायी जा सकती थी। क्योंकि सांसद केंद्र का प्रतिनिधित्व करता है। उसे जूते और थप्पड़ उतरने की क्या जरुत है। सिपाही या कोई अफसर हमारी कानून व्यवस्था का अंग है। वह समाज और व्यवस्था में अपना सहयोग और शांति बनाए रखने के लिए काम करता है। राजनेताओं की सुरक्षा की भी जिम्मेदारी उसी की होती है। अगर किसी से कोई मानवीय भूल होती है तो उसे सरल शब्दों में समझा कर सुधरने का मौका भी दिया जा सकता है। थप्पड़ कोई विकल्प नहीं है।

हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जूता, थप्पड़, स्याही, टमाटर फेंकने जैसी अनगिनत घटनाएं हैं। हम किसी एक घटना से सबक लेकर अपने आचरण में सुधार लाने की कोशिश नहीं करते हैं। देश भर में इस तरह के कई उदाहरण भरे पड़े हैं। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, मुख्यमंत्री तक पर जूते, स्याही और थप्पड़ की गाज गिर चुकी है। पूर्व पीएम मनमोहन सिंह पर भी जूता फेंगा गया था। यूपीए सरकार में उस समय के गृहमंत्री पर भी इस तरह की घटना के शिकार हुए हैं। हाल में दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल और गुजरात के पाटीदार नेता हार्दिक पटेल पर पर भी थप्पड़ की गूंज सुनाई दी है। अमेरिकी राष्टपति रहे जार्जबुश पर भी इराकी पत्रकार मुंतजर अल जैदी ने जूता फेंका था और बाद में वह चुनाव भी लड़ा। अभी हाल में भाजपा प्रवक्ता जेवीएल राव पर भी किसी ने एक संवादाता सम्मेलन में जूता फेंका था। कर्नाटक के पूर्व सीएम यदुरप्पा भी इस अभद्र संस्कृति का शिकार हो चले हैं। एक नहीं सैकड़ों उदाहरण पड़े हैं। यह प्रतिक्रिया चाहे आम आदमी की तरफ से की जाय या फिर राजनेताओं सेे दोनों ही स्थिति घातक है। आम तौर पर राजनीति में आने के बाद आम से खास बना राजनेता व्यवस्था से हट कर अपनी बात मनवाना चाहता है। वह कानून को ताख पर रखना चाहता है। वह आदेश और अनुपालन में विश्वास रखता है। जबकि विधान में यह संभव नहीं है। राजनेता सरकार में होने के बाद अपने को सर्वशक्तिशाली समझने लगता है। अपनी बात नजर अंदाज होने पर तिलमिला उठता है और उसे स्वाभिमान से जोड़ कर देखता है जिसकी वजह से इस तरह की बातें सामने आती हैं। सत्ता को साध्य समझने की भूल से बचना चाहिए। लेकिन जब तक यह स्थिति बनी रहेगी, राजनेताओं के व्यवहार में कोई सुधार होने वाला नहीं है।

केंद्रीय सरकार को मानीयों के आचरण को गंभीरता से लेना चाहिए। निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए एक विशेष प्रशिक्षण शिविर आयोजित होने चाहिए, जिसमें ससंद और राजनीति से जुड़ी बारिकियों का प्रशिक्षण होना चाहिए। विशिष्ट राजनेताओं, उनके आचरण, व्यवहार, जनता से मिलने के तरीके और उनकी लोकप्रियता की खास वजहों से भी वर्तमान राजनेताओं का सरोकार जुड़ना चाहिए। निर्वाचित राजनेताओं को कम से यह मालूम होना चाहिए कि उनके संसदीय क्षेत्र की समस्याएं क्या हैं। किस समस्या को प्रमुखता से उठाना है। जिस आम आदमी ने संसद तक पहुंचाया है और जो जिम्मेदारी दी है उसका निर्वहन कैसे करना चाहिए। अपनी शिकायतों को लेकर मिलने वाले लोगों से किसी तरह का व्यवहार करना चाहिए। समस्यायों की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए। संबंधित विभाग के अफसर से किस तरह से बात करनी चाहिए। विभागीय अधिकारियों से भी राजनेताओं के एलझने की कई घटनाएं हो चुकी हैं। निर्वाचित सांसदों को प्रधानमंत्री मोदी केई बार सद आचरण की नसीहत भी दे चुके हैं, लेकिन सत्ता के नेशे में उन्हें कुछ दिखाई और सुनाई नहीं पड़ता है। आम चुनावों में भी राजनेताओं ने जिस भाषा का उपयोग किया उसकी वेशर्मी किसी से छुपी नहीं है। लेकिन जीत के बाद भी यह स्थिति बनी रहती है तो बेहद घातक है। केंद्र सरकार जनप्रतिनिधियों के लिए एक अलग अयोग गठित करे, जो राजनेताओं के आचरण पर विशेष निगरानी रखे। कौन सा राजनेता कहां क्या बोलता है। उसकी बात का समाज और सरकार पर क्या प्रभव पड़ता है। क्या उसे इस तरह की भाषा और व्यवहार का इस्तेमाल करना चाहिए। आयोग की जांच में दोषी पाए जाने पर सजा निर्धारित होनी चाहिए। उस सजा में कम से कम तीन से छह माह तक का संसद से निलंबन, वेतन, भत्ते पर रोक के साथ दूसरी सुविधाओं पर भी प्रतिबंध लगना चाहिए। अहम सवाल है कि अगर आम अधिकारी के खिलाफ ऐसी सजाएं है तो जनप्रतिनिधियों के लिए क्यों नहीं होनी चाहिए। अब वक्त आ गया है जब हमें जूता, थप्पड़ और स्याहीं संस्कृति से परहेज कर एक आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था का सहभागी बनना चाहिए।

! ! समाप्त! ! 

 स्वतंत्र लेखक और पत्रकार 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here