क्यों होती है कन्या भ्रूण हत्या ?

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बीनू भटनागर

कहने को तो बहुत से लोग कह देते हैं कि बेटे और बेटी मे कोई फ़र्क नहीं है पर फिर भी गाँवों मे छोटे बड़े शहरों मे ,पढे लिखे समाज मे भी क्यों होती हैं कन्या भ्रूण हत्यायें ? इस प्रश्न पर गहराई से सोचने की आवश्यकता है।

कानून बनते हैं तो तोडने वाले भी बहुत हैं, छुपते छुपाते समाज मे यह ग़ैर कानूनी काम धडल्ले से हो रहा है हमारे पैतृक समाज मे जहाँ लड़कियों को परया धन या दूसरे की अमानत कहा जाता रहा है वहाँ समाज की सोच बदली तो है पर आधी अधूरी।

लड़कियों को शिक्षा मिल रही है, वो आत्मिर्भर भी हो रहीं हैं पर विवाह के समय समाज की असली तस्वीर सामने आती है। दहेज़ प्रथा का दानव रूप, इतने क़ानून बनने के बाद भी समाज मे ज्यों का त्यो खड़ा है। खुलकर लड़कों की बोली लगाई जाती है, कम दहेज़ लाने के कारण आज भी वधुओं को सतया व जलाया जाता है। यदि वर पक्ष प्रगतिशील विचारों वाला है और दहेज़ की कोई माँग भी नहीं है, तब भी स्वेच्छा से ही ,रीति रिवाज की आड़ मे या केवल दिखावे के लिये या फिर अपनी बेटी के सुखद भविष्य की कामना मे वर पक्ष को बहुत कुछ दिया जाता है। सगाई से लेकर शादी तक, फिर बेटी की गृहस्थी का सारा साजो सामान जुटाना भी उन्ही के कर्तव्य के दायरे मे आता है। शादी के बाद बच्चों के जन्म पर यहाँ तक कि नाती-नातिन के विवाह के समय भी बहुत कुछ देने की परमम्परा है। ख़ुशी चाहें आपके घर मे हो या बेटी की ससुराल मे देनदारी कन्या पक्ष को ही निभानी पड़ती है। ख़ुशी ही क्यों कन्यापक्ष को तो ये देनदारी ग़मी मे भी निभाने का रिवाज हैं। यह इकतरफ़ा देनदारी कन्यापक्ष आजीवन निभाता है, चाहें उन्हे इसके लियें अपने छोटे छोटे ख़र्चो मे कटौती करनी पड़े या कर्ज़ लेना पड़े। देनलेन ही नहीं विवाह का पूरा ख़र्च, जो कि आजकल बहुत ज़्यादा होता है कन्यापक्ष को ही उठाना पड़ता है।

लड़कों से वंश चलता है लड़कियाँ दूसरों का वंश बढाती हैं, ऐसा माना जाता है। सोचने वाली बात यह है कि वंश चले या न चले क्या फर्क पड़ता है, जब आप ही दुनिया मे नहीं है तो वंश का क्या महत्व रह जाता है। वैसे भी दो पीढी से पुराने पूर्वजों के नाम तक लोंगों को याद नहीं रहते।

लड़को से आशा की जाती है कि वे बुढापे मे आपका सहारा बनेगें, मैने कभी कभी लोगों को कहते सुना है कि “लड़के तो बहू के आते ही पराये हो जाते हैं पर लड़कियाँ सदैव अपनी रहती हैं”। वास्तव मे ऐसा कहने वाले लोग भी कामना बेटे और पोते की ही करते हैं। लड़को से अधिक अपेक्षायें होती हैं, ,जिन पर खरा उतरना उनके लियें कठिन होता है पर लड़कियों से कोई उम्मीद नहीं बाँधी जाती इसलियें उनका थोड़ा सा किया भी अधिक दिखता है। लडके और लड़कियाँ अपने माता पिता को बराबर स्नेह और आदर देते हैं।

माता पिता भी बेटे बेटी को बराबर प्यार दुलार देते हैं। लड़कियाँ जब बड़ी होने लगती हैं तो उनकी सुरक्षा को लेकर मां बाप चिंतित रहते हैं क्योंकि महिलाओं पर अपराध समाज मे अधिक हो रहे हैं। बेटियों को घर मे बिठा कर तो रखा नहीं जा सकता, पर जब भी बेटी को बाहर से आने मे देर होती है, माता पिता को चिंता होती है। लड़कों के लियें इतनी चिंता नहीं होती।

लड़कों से उम्मीद की जाती है कि बुढापे मे वो आपका सहारा बनेगें, आप उनके पास रह सकते हैं, आर्थिक रूप सेनिर्भर हो सकते हैं। लड़कों की कमाई पर माता पिता अपना हक़ मानते है, लड़कियों की कमाई पर नहीं। उच्च शिक्षा के लियें अक्सर छात्र बैंकों से कर्ज़ लेते हैं जो सामान्य रूप से नौकरी लगने के बाद उन्हे स्वयं उतारना होता है । लड़कियाँ यदि शिक्षा के लियें कर्ज़ लेतीं हैं तो विवाह के समय दिक्क़त हो सकती है। कर्ज़ के साथ बेटी को विदा करने मे माता पिता को संकोच होता है, वहीं कर्ज़ का बोझ सर पर लिये वधु को स्वीकारने वाले परिवार भी आसानी से नहीं मिलते, ,भले ही लड़की अपनी कमाई से कर्ज़ उतारने मे सक्षम हो। लड़कों के साथ ऐसा कुछ नहीं होता।

पुत्र की आवश्यकता लोगों को मृत्यु के बाद भी महसूस होती है क्योंकि मुखाग्नि पुत्र को देनी होती है और मृत्यु बाद सारे कारज करके माता पिता को स्वर्ग मे जगह दिलाना भी पुत्र की ज़िम्मेदारी होती है।मृत्यु के बाद क्या होना है इसकी चिन्ता करना बेमानी है।आजकल वैसे भी बिजली और गैस से शवदाह होने लगे हैं जिनमे मुखाग्नि देने की ज़रूरत ही नहींहै।इसलियें पुत्र मोह मे कन्याभ्रूण हत्या कराना बिल्कुल ग़लत है,, हर दृष्टि से।

मेरे एक परिचित दम्पति हैं जो आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं, उनकी इकलौती संतान बेटी है। उन्होने बेटी की अच्छी परवरिश की उसे उच्च शिक्षा दी, बेटी को बहुत अच्छी नौकरी भी मिल गई। यदि उनकी ये संतान बेटा होती तो शायद समझा जाता कि उनके कष्ट के दिन बीत गये, ,परन्तु बेटी के विवाह की चिन्ता हुई, बेटी की शादी भी हो गई बिना दहेज़ की माँग के। घर वर दोनो अच्छे थे,, लड़की अपने माता पिता की आर्थिक सहायता करना चाहती थी वह भी अपनी कमाई से, परन्तु पति और ससुराल वालों को यह मज़ूर नहीं था, वे उसकी पूरी कमाई को अपनी पारिवारिक आय मानते थे। लड़की इस विषय मे कोई समझौता करने को तैयार नहीं हुई तो बात तलाक़ पर ख़त्म हुई। अब वह अपने बच्चों के साथ अपने माँ बाप के साथ रहती है और माता पिता की देखभाल के साथ अपने दो बच्चों का पालन पोषण भी कर रही है।

पहले माँ बाप की संपत्ति मे बेटियों का कोई हक़ नहीं होता था पर अब क़ानून ने उन्हे बेटे के बराबर हक़ भी दिये हैं परन्तु हक़ मिलने के साथ जो ज़िम्मेदारी उन पर आनी चाहिये थी उसको निभाने की स्वतन्त्रता समाज ने उन्हे नहीं दी है। अधिकार के साथ उत्तरदायित्व भी जुड़े होने चाहियें पर ऐसा है नहीं, इस लियें बेटा हमेशा फ़ायदे का सौदा माना जाता है और बेटियाँ नुकसान का। जब तक समाज की इस सोच मे परिवर्तन नहीं आता लोग बेटा पाने की ही कामना करते रहेंगे।

समाज मे बेटी बेटे के अधिकारों और उत्तरदायित्वों मे समन्वय की बहुत कमी है। अधिकतर लोग एक बेटा तो चाहते ही हैं और इस चाह मे कभी कभी कई बेटियाँ हो जाती हैं। आज विज्ञान ने यह सुविधा दी है कि गर्भ के आरंभिक सप्ताहों मे ही भ्रूण के लिंग की जानकारी मिल जाती है और गर्भपात कराया जा सकता है अतः कुछ लोग अनचाही बेटियाँ न पैदा करके कन्या भ्रूण हत्या जैसा गैर कानूनी काम करवाते हैं। कुछ चिकित्सक भी चोरी छिपे यह काम करके मोटी रक़म कमाने मे लगे हुए हैं। हरयाणा, राजस्थान और दिल्ली सहित कई राज्यों मे लडकियों की संख्या लड़कों के मुक़ाबले कम है। कन्याभ्रूण हत्या के दूरगामी परिणाम बहुत बुरे हो सकते हैं। व्यक्तिगत स्तर पर भी बार बार गर्भपात करवाना माँ के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लियें सही नहीं है। इस कुप्रथा को रोकने के लियें कड़े कानून के साथ दोषियों को सख्त सज़ा का प्रावधान होना चाहिये। इसके अतिरिक्त समाज की सोच भी बदलना ज़रूरी है, ,सिर्फ कह देने भर से कि बेटी बेटे का दर्जा बराबर है काम नहीं चलेगा, ,उन्हें हक़ और जिम्मेदारी मे बराबर की साझेदारी निभाने की स्वतन्त्रता समाज को देनी पड़ेगी। यदि ऐसा नहीं हुआ तो ये अपराध ऐसे ही होता रहेगा।

6 COMMENTS

  1. मेरा वषों का अनुभव तो यही है कि बुढापे में (अधिकांश) बहु-बेटा तो मां-बाप की दुर्दशा करते हैं और बेटी मां की तरह संभाल लेती है. जीवन के अन्तिम पहर में बेटी सहारा देकर जीवन की सांझ को सुखद बना देती है. भाज्ञवान हैं जिनके घर में बेटी है. भाज्ञ हीन हैं वे जो भगवान के दिये इस प्रसाद को ठुकरा देते हैं.

    • डा.कपूर,ये भी एक भ्रम है कि बेटे बहू हमेशा बुरे होते हैं, बिल्कुल नहीं,आप भी किसी के बेटे हैं आपने तो
      अपने माता पिता से कोई बुरा व्यवहार नहीं किया, फिर ये सोच क्यों? इसका कारण मैने इस लेख मे दिया है।

  2. सभी प्रतिक्रयाओं के लियें आभार व धन्यवाद।मेरे लेख से कहीं भी चेतना की एक चिंगारी सुलगे तो मै मानूँगी मेरा यह प्रयास सफल हुआ।

  3. आपने इस सामयिक विषय पर अच्छा यथार्थपूर्ण लेख लिखा है । बधाई ।
    समाज में बेटा-बेटी पर लोगों के विचार एक बराबर करने के लिए
    बहुत शिक्षा की आवश्यकता है, विशेषकर ग्रामों में । इसका अभिप्राय
    यह नहीं कि सभी शिक्षित लोगों की सोच इस पर सही है ।
    विजय निकोर

  4. मैडम आपने निम्न शब्दों में कड़वा सच लिखा है, जिसे सारा समाज जानता है, मानता भी है, लेकिन समाज सुधरने और लोगों को सुधारने को तैयार नहीं है!

    “सगाई से लेकर शादी तक, फिर बेटी की गृहस्थी का सारा साजो सामान जुटाना भी उन्ही के कर्तव्य के दायरे मे आता है। शादी के बाद बच्चों के जन्म पर यहाँ तक कि नाती-नातिन के विवाह के समय भी बहुत कुछ देने की परमम्परा है। ख़ुशी चाहें आपके घर मे हो या बेटी की ससुराल मे देनदारी कन्या पक्ष को ही निभानी पड़ती है। ख़ुशी ही क्यों कन्यापक्ष को तो ये देनदारी ग़मी मे भी निभाने का रिवाज हैं। यह इकतरफ़ा देनदारी कन्यापक्ष आजीवन निभाता है, चाहें उन्हे इसके लियें अपने छोटे छोटे ख़र्चो मे कटौती करनी पड़े या कर्ज़ लेना पड़े। देनलेन ही नहीं विवाह का पूरा ख़र्च, जो कि आजकल बहुत ज़्यादा होता है कन्यापक्ष को ही उठाना पड़ता है।”

    आपने आगे कन्या भ्रूण हत्या जैसी अमानवीय, घ्रणित और क्रूर व्यवस्था के वर्तमान कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि-

    “पहले माँ बाप की संपत्ति मे बेटियों का कोई हक़ नहीं होता था पर अब क़ानून ने उन्हे बेटे के बराबर हक़ भी दिये हैं परन्तु हक़ मिलने के साथ जो ज़िम्मेदारी उन पर आनी चाहिये थी उसको निभाने की स्वतन्त्रता समाज ने उन्हे नहीं दी है। अधिकार के साथ उत्तरदायित्व भी जुड़े होने चाहियें पर ऐसा है नहीं, इस लियें बेटा हमेशा फ़ायदे का सौदा माना जाता है और बेटियाँ नुकसान का। जब तक समाज की इस सोच मे परिवर्तन नहीं आता लोग बेटा पाने की ही कामना करते रहेंगे।”

    यहाँ पर आपका आलेख अधूरा और सच को छुपाता सा लगता है! आज जो आपको कारण दिख रहे हैं, ये तो परिणाम हैं! सही कारणों को जानने के लिए तो बैक ग्राउंड में जाना होगा! उन कारणों को सामने लाना होगा जो हमारे अवचेतन मन में सुनियोजित तरीके से स्थापित किये गए हैं! जिन्हें आज भी उसी तरीके से परोसा जा रहा है! आज भी धर्म या संस्कृति के नाम पर जिनको लगातार एक पीढी से दूसरी पीढी को सौंपा जा रहा है!

    मानसिक स्तर पर व्याप्त जहर को सामाजिक या कानूनी स्तर पर सुधार करके ठीक करना सरल नहीं है! हमें असल कारणों को सामने लाकर उन पर चोट करनी होगी! असल कारणों से किनारा करने से काम नहीं चलेगा! सच को कहना कठिन होता है, क्योंकि सच को कहना और सुनना दोनों ही तकलीफ देय होते हैं! सच को सुनने से उन लोगों को तकलीफ होती है, जिनके स्वार्थ ऐसी कुव्यवस्था से राजनैतिक और धार्मिक तौर पर पूरे होते रहते हैं! लेकिन इंसाफ के लिए जरूरी सच को कहना और लिखना ही होगा और इसे कहने का प्रथम दायित्व अब स्त्री का है! आपने स्त्री की दुर्दशा के जो-जो भी कारण गिनाये हैं, उनको समाज में कब, क्यों और किसने स्थापित किया और आज भी इन कुरूतियों का समर्थन करने वाला साहित्य, किसके फायदे के लिए और क्यों धड़ल्ले से प्रकाशित होकर सरेआम बेचा जा रहा है? इस पर बिना पूर्वाग्रह के विचार करने की जरूरत है! चिरस्थायी समाधान यहीं से निकलेगा! जिस प्रकार एक स्त्री को माँ बनने के लिए प्रसव पीड़ा को सहना अपरिहार्य है, उसी प्रकार बेटियों को कोख में मार देने की मानसिकता पनपने वाले लोगों और उनकी ओर निर्मित साहित्य रूपी गंदगी (साहित्य) को समाज से निकाल बाहर फैंकना होगा! अन्यथा ये संक्रामक कीड़े इस बीमारी के वाहक बने ही रहेंगे!

    मुझे नहीं लगता कि स्त्री शशक्तिकरण का झंडा उठाने वाला कोई समूह या संगठन इस दिशा में शशक्त और सुनियोजित तरीके से बड़े स्तर पर काम कर रहा है? जबकि इसके विपरीत काम करने वालों की हर जगह भरमार है! कानून भी इस प्रकार से बनाये जा रहे हैं कि वे स्त्री और पुरुष में आपसी समझ या सामंजस्य बढ़ाने के बजाय अनेक, बल्कि हर मोर्चे पर दूरी ही पैदा कर रहे हैं और स्त्री-पुरुष को एक दूसरे के पूरक के बजाय प्रतिस्पर्धी बना रहे हैं! ऐसे में दहेज़ और कन्या भ्रूण हत्या का दानव ताकतवर होना ही है! समाज एक चालक वर्ग यही तो चाहता है!
    शुभाकांक्षी
    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
    9828502666

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