नरेन्द्र मोदी का नाम लेते से बिफरतें क्यों हैं नीतिश

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प्रवीण गुगनानी

अपनी महत्वकांक्षाओं को ग्रहण लगता देखते देख याद आता है गठबंधन धर्म नीतिश जी को

images (1)गठबंधन की राजनीति का चलन भारत में पिछले दो दशकों से ही परवान चढ़ा है लेकिन जिस प्रकार से भारतीय राजनीति ने गठबंधन के सहारे ने नित नये अनुभवों का खट्टा मीठा स्वाद चखा है उससे लगता नहीं कि भारत में गठबंधन की राजनीति एक नया चलन है. भारत के विभिन्न राजनैतिक दलों और उसके नेताओं ने अपनी कमतर शिक्षा, वैश्विक ज्ञान के अभाव और सभी कमाओं सभी खाओ के सुलभ, सहज और आकर्षक ट्रेन्ड के साथ आश्चर्यजनक ढंग से गठबंधन या यूं कहें जोड़ तोड़ की राजनीति के अंतर्तत्व को आत्मसात तो किया ही बल्कि इससे आगे बढ़कर इस चित्र विचित्र प्रकार की राजनीति को नयी परिभाषाएं और शब्दावली भी गढ़ कर दी है. यद्दपि भारतीय गठबन्धनी राजनीति अपनें शैशव काल में ही परिपक्वता की ओर बढ़ चली किन्तु है तथापि इस प्रकार की राजनीति के कुछ नए स्नातक अपनें आग्रहों, दुराग्रहों, पूर्वाग्रहों या निहित स्वार्थों और हित आरक्षणों के चलते एक नया सुर और आलाप अलापनें लगते है जिससे एकसुर का वातावरण बेसुरा भी होनें लगता है.

ऐसा ही एक वाकया देखनें में आया जब पिछलें ही दिन भारतीय जनता पार्टी के बिहारी नेता यशवंत सिन्हा ने गुजरात के हाल में पुनर्निर्वाचित मुख्यमंत्री को करिश्माई नेता बताते हुए उन्हें भाजपा की ओर से अगला प्रधानमन्त्री का उम्मीदवार बनानें का आग्रह अपनी पार्टी से किया तो एक बार फिर बिहार में भाजपा के साथ शासन कर रहे जनता दल यूनाइटेड के नेताओं ने अपनी अलग राग अलापनी शुरू कर दी. इस पार्टी के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक अच्छे नेता और मुख्यमंत्री हो सकतें हैं यह बात स्वीकार्य है; यह भी स्वीकार्य हो सकता है कि वे भी प्रधानमन्त्री की दौड़ में सम्मिलित होनें की इक्छा रखें और उसे सार्वजनिक भी करें और इस दौड़ में पूरी जल्दबाजी से दौड़ें भी किन्तु यह घोर और घनघोर अस्वीकार है कि वे अपनी इस (असमय) जागृत इक्छा के लिए राजनैतिक सिद्धांतों और गठबंधन के धर्म को ताक पर रखकर साम्प्रदायिकता के नए अर्थ गढ़नें लगें. कुछ माह पहले भी नीतीश कुमार नें स्वयं की और प्रधानमन्त्री की दुरी के बीच चट्टान बनते जा रहे नरेन्द्र मोदी का असर कम करनें के लिए समूची भारतीय जनता पार्टी और उसकी विचार धारा को चुनौती देते हुए दुस्साहस पूर्वक कह डाला था कि कोई हिंदूवादी इस देश का प्रधान मंत्री नहीं बन सकता है!! यक्ष प्रश्न तब भी यह था कि गठबंधन धर्म को चुनौती देते हुए उन्होंने उस समय पुरे देश के हिन्दुओं के दिलों को ठेस पहुंचाई थी उसका कारण क्या था? देश के सौ करोड़ हिन्दुओं के कानों में जब नीतीश का यह गरमागरम खौलता शीशा पड़ा तो करोड़ो हिन्दुओं के मानस में दर्द की चीत्कार हो उठी थी और ह्रदय फट पड़े थे कि यह उदगार किसी हिन्दू के हैं या किसी तालिबानी के?

स्पष्ट और घोषित तथ्य है कि भारतीय जनता पार्टी जिस प्रकार की राजनैतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है वह हिंदुत्व, रामजन्म भूमि, धारा ३७०, समान नागरिक संहिता आदि अनेक संवेदनशील विषयों में एक अलग प्रकार का वैचारिक आरक्षण रखती है और मात्र इन विषयों के साथ ही भाजपा के राष्ट्रवाद के विचार का पोषण होता है!! ये तथ्य भारतीय राजनीति में जदयू सहित किसी से छुपें न हैं न थे. जदयू इन सभी तथ्यों को जानकर भी यदि पिछले एकाधिक दशक से भाजपा के साथ बनीं हुई है तो अचानक इस प्रकार का छिटकाव क्यों? एकाधिक दशक से इस विशिष्ट प्रकार के वैचारिक आरक्षण की रेलगाड़ी में सवारी करनें वाला यह बटोही अचानक इतना बेसबरा, बैचेन, और ताप ग्रस्त क्यों हो रहा है? नरेन्द्र मोदी कोई पिछले बरस ही भाजपा में नहीं आये है! और न ही मोदी पर विभिन्न तथाकथित आरोप पिछले बरस लगें हैं!! पूरी कहानी कमोबेश दशक भर से धारावाहिक चल रही है!!! फिर अचानक उभरी यह वैचारिक धुंध है या महत्वकांक्षा की नई चाशनी भरी बयार जो नीतीश को ललचा भी रही है और भरमा भी रही है.

यद्दपि नीतीश और जदयू को स्मरण है तथापि और अधिक शिद्दत से नीतीश को स्मरण रखना चाहिए कि संघ की कोख से जन्मी भाजपा का चरित्र अब भी वैसा ही है जैसा उस समय था जब भाजपा के नेतृत्व में बनी पिछली केन्द्रीय सरकार जो कि अटलजी के नेतृत्व में बनी थी. तब भी अनेक बार अटलजी नें अपनें स्वभाव और रार के विपरीत जाकर कुछ सीमा तक तो समझौते किये थे किन्तु जब पानी सर के ऊपर जाता दिखाई दिया तो उन्होंने अपनी सरकार को अपमानजनक ढंग से बचानें के स्थान पर तेजी से डूबा देनें की व्यवस्था कर दी थी. महत्वकांक्षा रखना कतई गलत नहीं किन्तु अपनी महत्वकांक्षा की प्रेत प्यास में समूचे धर्म और कौम का अपमान करके इतना पी जाना कि बाद में डूबने को चुल्लू भर भी न बचे यह तो घोर अन्याय और अवसरवाद की पराकाष्ठा है!!! ब्रह्म प्रश्न अब भी यही है कि अब जब यशवंत सिन्हा ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री पद का सुयोग्य और करिश्माई प्रत्याशी बताते हुए उनके पक्ष में अपनी पार्टी भाजपा से अनुनय विनय की भाषा बोली है तब जदयू और उनके नीतीश और शिवानन्द को गुस्सा क्यों आना चाहिए? कहना न होगा कि यशवंत सिन्हा ने जदयू की भैंस न तो चुराई और न उसकी तरफ देखा वे तो अपनी और केवल अपनी गाय के ही सिंग संवारनें में लगे हैं तो फिर हंगामा है क्यूँ बरपा??

गठबंधन धर्म की दुहाई देते हुए जदयू के सांसद अली अनवर अंसार ने यशवंत सिन्हा के मोदी अभियान पर बेतरह और अलोकतांत्रिक ढंग से हमला बोला. इस हल्लाबोल अभियान के ही अगले चरण में गठबंधन धर्म के समस्त अध्यायों को बेतरह भूलते हुए भाजपा नेतृत्व को चुनौती देते हुए जदयू ने फतवा सुनाया कि “इस तरह के (यशवंत सिन्हा के कहे प्रकार के) बयान नहीं आना चाहिए!! यशवंत सिन्हा के यह मात्र कहे जानें से कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री घोषित करनें से भाजपा को बड़ा और अनपेक्षित चुनावी लाभ होगा जदयू को क्यों नाराज और नासाज होकर मुंह फुलाना चाहिए? यह प्रश्न भाजपा द्वारा पूछा जाना चाहिए. भाजपा की ओर से आक्रामक होकर यह प्रश्न भी जदयू की ओर उछाला जाना चाहिए कि भाजपा जो इस गठबंधन का सबसे बड़ा और नीति निर्धारक तत्व है उसे इस प्रकार का नसीहत भरा आदेशात्मक परामर्श देनें का जदयू को क्या अधिकार है? इससे आगे बढ़ते हुए जदयू की ओर से यह भी कहा गया कि “भाजपा नरेन्द्र मोदी पर अपनें रूख को स्पष्ट करे.” नरेन्द्र मोदी जो कि स्पष्टतः भाजपा का एक सबसे तेजोमयी और जनप्रिय चेहरा है के विषय में जदयू भाजपा से किस प्रकार का रूख स्पष्ट करवाना चाहती है? भाजपा से गठबंधन धर्म के नाम पर जदयू का नरेन्द्र मोदी के विषय में अनावश्यक बयान की आशा रखना धर्म है या ब्लैकमेल का घिनौना दाग??? और उस पर तुर्रा यह कि इसी जदयू ने और आगे बढ़कर इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि “गठबंधन धर्म का पालन नहीं नहीं हो रहा है.” यदि अपनें दल के किसी करिश्माई, चमत्कारिक और तेजी से उभरते चुनावी फिगर के सन्दर्भ में इस प्रकार का अनावश्यक दबाव सहन करनें और अपनी अंदरूनी व्यवस्था को बाहरी तत्वों से चुनौती मिलनें पर चुपचाप देखतें रहनें का नाम ही गठबंधन धर्म है तो निश्चित ही ऐसे गठबंधन की गठरी को किसी कोने में ताक पर टांग देना ही अधिक उचित, सटीक, सामयिक और प्रासंगिक होनें के साथ साथ जनता जनार्दन के दरबार में स्वीकार्यता को बढानें वाला सुकार्य ही सिद्ध होगा. भाजपा को चाहिए कि वह इस बार सर्वस्व दांव पर लगानें के चरित्र को ही अपना मूल चरित्र बना ले. भाजपा वैसी ही रहे जैसी वह है न कि वैसी जैसा उसे अपनें साँचें में ढालनें का दुष्प्रयास करनें वालें कतिपय और तथाकथित प्रगतिशील, बुद्धिजीवी, इंटेलेक्चुअल, बूर्जुआ और वामप्रेरित लोग देखना चाहते हैं.

आज के परिदृश्य में जबकि एक ओर भाजपा के समक्ष एक चमकदार भविष्य बाँहें परसाए, नयन बिछाएं खड़ा है और दूसरी ओर अपनें ही परीक्षा लेनें को तैयार बैठे हैं तब भाजपा के पितृपुरुष अटलबिहारी वाजपेयी की कविता घोर प्रासंगिक लगती है और बरबस ही स्मरण हो आती है-

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा

अपनों के विघ्नों ने घेरा

अंतिम जय का वज़्र बनाने-

नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ.

हम पड़ाव को समझे मंज़िल

लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल

वतर्मान के मोहजाल में-

आने वाला कल न भुलाएँ,

आओ फिर से दिया जलाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ

भरी दुपहरी में अंधियारा

सूरज परछाई से हारा

अंतरतम का नेह निचोड़ें-

बुझी हुई बाती सुलगाएँ

आओ फिर से दिया जलाएं

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