क्यों न करा ली जाय रायशुमारी?

देश की राजधानी दिल्ली के आस-पास कोई तीन महीने से केन्द्र सरकार द्वारा लागू किये गये तीन नये कृषि सुधार कानूनों के विरोध में चल रहा किसानों का आंदोलन अब महज ‘दुराग्रह का प्रतीक बनकर रह गया है।
२६ जनवरी को लाल किले की प्राचीर से धार्मिक व कथित खालिस्तानी झण्डा फ हराकर हिंसा का तांडव करने की घृणित व लज्जाजनक घटना के बाद यह किसी से छिपा नहीं रह गया है कि किस तरह किसानों के नाम पर देश के अंदर व बाहर सक्रिय देश विरोधी ताकतों ने देश की साख को मिट्टी में मिलाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी है। देश की एकता, अखण्डता व सम्प्रभुता को चुनौती देने की ऐसी घटना देश का कोई किसान करना तो दूर सोच भी नहीं सकता। क्योंकि देश का किसान न केवल अन्नदाता है वरन् राष्ट्र की अस्मिता का गौरव, रक्षक व पहरेदार है।
नि:संदेह उसके पीछे देश के वे बड़े किसान घराने व वो किसान नेता रहे हंै जिनके अपने निजी स्वार्थ है तो विरोध में वे ताकतें है जो भारत को अस्थिर करना चाहती हैं। इससे भी ज्यादा अफ सोस जनक यह है कि कांग्रेस जैसी पार्टी जो कृषि सुधार कानूनों की पक्षधर रही है वो किसानों के कंधे पर सवार होकर अपनी खोई ताकत वापस पाने का ख्वाब देख रही है। पूरा देश देख रहा है कि किस तरह राहुल गांधी व प्रियंका वडेरा व उनके सिपहसालार किसानों को भड़काने में दिन रात जुटे हुये हैं।
जिस ‘आपÓ पार्टी के प्रमुख व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल भी नये कृषि कानूनों को लागू करने का फ रमान जारी कर चुके थे अब वे पलटी मारकर किसानों को भड़काने में कांग्रेस से भी आगे निकलने को बेताब है ताकि खासकर उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हैसियत बढ़ाई जा सके। नये कृषि कानूनों को किसानों के लिये ‘डेथ वारंटÓ बता देना किसानों को भड़काने की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है?
अब जब किसान आंदोलन सिफर् पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चुनिंदा क्षेत्रों व पंजाब तथा हरियाणा के कुछ खास क्षेत्रों में ही सिमट कर रह गया है और पंजाब व हरियाणा के कई कथित किसान नेता या तो पर्दे के पीछे चले गये हंै या महज दिखावे के तौर पर जुड़े हैं तो राकेश टिकैत की बैचेनी देखने लायक है। वे नाना प्रकार से दुराग्रह पर उतर आये हैं। कभी किसानों को खड़ी फसल नष्ट करने का फ रमान जारी करते हैं तो कभी खाद्यान्न फ सलें यथा गेहूं, धान, अरहर, मटर आदि पैदा न करने की धमकी देते हैं। और अब तो वह यह धमकी दे रहे है कि यदि उनकी मांगे न मानी गई तो वे दिल्ली वालों को दूध की आपूर्ति ही ठप कर देंगे। और यदि दूध देगें भी तो १०० रुपये प्रति लीटर में देगें।
राकेश टिकैत की पोल पट्टी पूरी तरह खुल चुकी है। उन्हे अच्छी तरह मालूम है कि किसान आंदोलन में जान नहीं रह गई है। उनकी मजबूरी यह है कि आंदोलन वापस लेते है तो भद्द पिटेगी ही भविष्य की उम्मीदों की राजनीति भी ध्वस्त हो जायेगी और यदि ये सब हुआ तो उन्हे सरकार अब तक दायर किये जा चुके विभिन्न मुकदमों में इस कदर उलझा देगी कि उन्हे ताजीवन शायद ही मुक्ति मिले।
ऐसे में उनकी कोशिश है कि किसान आंदोलन उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव तक किसी भी कीमत पर घिसटता रहे ताकि वो रालोद के बल पर ‘विधायक बन जाये। यह भी कि यदि वह खुद विधायक न भी बन सके तो अपने समर्थक दल ‘रालोदÓ को ताकतवर बनाकर विधान सभा में पहुंचाये ही ताकि भाजपा की सरकार पुन: न बनने पाये।
यह भी पता चला है कि अब उन्होने ‘आपÓ पार्टी प्रमुख अरविन्द केजरीवाल से हाथ मिला लिया है ताकि उन्हे चुनाव में आप का भी समर्थन मिल सके।
हालांकि इसी बीच यह खबरें भी मिलने लगी हैं कि अब राकेश टिकैत सरकार से पर्दे के पीछे ऐसे समझौते की फि राक में है ताकि उनकी इज्जत महफ ूज रह सके और भविष्य की मुसीबतों से बचा जा सके। इसका सबसे बड़ा कारण यह बताया जा रहा है कि एक तो उनके पुराने साथी साथ छोड़ते जा रहे हैं, दूसरे उनके क्षेत्र के किसानों व गाजियाबाद बार्डर समेत दिल्ली के अन्य बार्डर के किसानों व कारोबारियों ने खुलकर विरोध शुरू कर दिया है। वे टिकैत पर तरह-तरह के आरोप भी मढ़़ने लगे हैं।
एक और सबसे बड़ा कारण अब यह बताया जाने लगा है कि सरकार देश के किसानों के बीच नये कृषि कानूनों को लेकर ‘रायशुमारी कराने पर गंभीरता से विचार कर रही है।
ज्ञात रहे देश में लघु व सीमांत किसानों की संख्या क्रमश: १८ व ६७ फसद से अधिक है और इन किसानों को सरकार भारी भरकम सब्सिडी व नकद धनराशि से मदद कर रही है। उन्हे अच्छी तरह पता है कि जो किसान आंदोलन चला रहे हैं वे बड़े किसान हैं और नेतागीरी भी करते हैं। नये कृषि कानूनों से उन्हे या उनके समर्थकों को ही नुकसान पहुंचने वाला है। खासकर उन बिचौलियों को जो हर तरह से किसानों का दोहन करते हैं।
लघु व सीमान्त किसानों को आशंका है कि कही टिकैत जैसे नेता अपने स्वार्थ में उन्हे सरकार से मिलने वाली सुविधाओं पर ही ग्रहण न लगा दें।
ऐसे किसानों के बीच से भी आवाजें उठने लगी हंै कि आखिर उनसे राय क्यों नहीं ली जाती? सरकार देश के हर तरह से मजबूत मुट्ठी भर किसानों व उनके पैरोकारों को ही क्यों तरजीह देती नजर आती है?
बेशक ! सरकार को जल्द से जल्द देश के सारे किसानों से नये कृषि कानूनों के बारे में ‘रायशुमारी कराने की घोषणा करनी ही चाहिये। बहुत संभव है कि ऐसी घोषणा होते ही टिकैत जैसे किसान नेता व कांग्रेस तथा आप जैसी पार्टियों के पक्षधर नेता बिलों में घुस जाये और नहीं भी तो पूरे देश को इस सच का पता चल जायेगा कि आखिर देश के असली अन्नदाता क्या चाहते हैं? क्या उन्हे भी सरकार के नये कृषि कानून मान्य नही है?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here