अमित राजपूत
पिछली मनमोहन सरकार काजिसे संशोधित करने पर बीते दिनों से संसद से सड़क तक हंगामा मचा हुआ है, आख़िर इसकी असल वजह है क्या? ज़मीन एक ऐसा पेचीदा मामला है जिसके लिए लोग भाई-भाई का ख़ून बहा देते हैं। तमाम फसाद और मुटावों की जड़ होती है यो ज़मीन। तब ऐसे में निश्चित ही इससे संबंधित कोई भी पहलू हो हंगामा तो होना ही है। लेकिन, क्या इस हंगामें को सिर्फ हुंआ-हुंआ का राग दिया जाना ठीक है। मै समझता हूं, कि किसानों की ज़मीन से जुड़े मुद्दे पर किसी भी तरह की राजनीति, प्रलोभन, मातहती और अनायास धरने की निन्दा करनी चाहिए।
वास्तव में हम आज की बदलती परिस्थितियों के एवज में व्यवस्था को पुराने चश्म से नहीं देख सकते हैं, हमें अपने दीद का तरीक़ा और दृष्टिकोण दोनो बदल लेने चाहिए। देश की वर्तमान बनावट और गतिशीलता के मद्देनज़र हम राज्य के आधुनिकीकरण और ढांचागत आधारभूत संरचना की बनावट को अस्वीकार नहीं सकते हैं। ऐसे में हमें राष्ट्र-राज्य का सहयोग करना होता है, यही नीति है।
पेंच यहां पर फंसा है कि सरकार ने विधेयक के सेक्शन 10(ए) में संशोधन किया है। एससे सरकार किसी व्यक्ति या कंपनियों को भूमि अधिग्रहण के पहले वहां के 80 फीसदी लोगों से हरी झंडी लेने की ज़रूरत नहीं होगी। पूरा विपक्ष इसी बिंदु पर सरकार से दो-दो हाथ करने के मूड में है। हलांकि भूमि आधिग्रहण और पुनर्वास के लिए जो मसौदा तैयार किया गया है, उसके प्रावधानों के मुताबिक मुआवजे की राशि शहरी क्षेत्र में निर्धारित बाज़ार मूल्य के दो गुने से कम नहीं होनी चाहिए जबकि ग्रामीण क्षेत्र में ये राशि बाज़ार मूल्य के चार गुने से कम नहीं होनी चाहिए।
साफ़ है कि ज़मीन अधिग्रहण और पुनर्वास के मामलों को सरकार ऐसे भूमि अधिग्रहण पर विचार नहीं करेगी, जो या तो निजी परियोजनाओं के लिए निजी कंपनियां करना चाहेंगी या फिर जिनमें सार्वजनिक परियोजनाओं के लिए बहुफसली ज़मीन लेनी पड़े। यानी अगर ये अध्यादेश कानून बनता है तो बहुफसली सिंचित भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जा सकेगा।
तो फिर आख़िर हंगामा किस चीज़ का है, जबकि देश में किसानों की बदहाली भूमि अधिग्रहण की वजह से नहीं है, बल्कि उपज का सही मूल्य न मिलने, जोत का आकार छोटा होने, उन्नत तकनीक न मिलने, सिंचाई और बिजली न मिलने की वजह से है। फैक्ट्री की वजह से कोई किसान ग़रीब नहीं होता, वो इस वजह से गरीब होता है कि पिछले 60 साल में उसकी तीन पीढियों को ठीक से पढ़ाया नहीं गया और परिवार बढकर 44 लोगों का हो गया और जोत का आकार घट गया। वह इस वजह से ग़रीब होता है कि सरकार ने आसपास अस्पताल नहीं खोले और उसे कानपुर, इलाहाबाद या दिल्ली के डॉक्टरों ने घेरकर लूट लिया।
दरअसल, किसानों को असली समस्या भूमि अधिग्रहण से नहीं, मुआवजा और पुनर्वास में भ्रष्टाचार से है। एक आकलन के अनुसार सन् 1947 से लेकर 1990 तक देश में करीब 3.5 करोड़ लोग विस्थापित हुए थे जिनके पुनर्वास और मुआवजे में भारी गड़बड़ी हुई। बाद में भी गड़बड़ी हुई होगी, ये संदर्भ राम गुहा की किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में मिल जाएगी।
‘इंडिया आफ्टर गांधी’ के अनुवादक प्रखर पत्रकार सुशांत झा इस विषय पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए इसे एकाध आपत्ति के अलावा पूर्णतः स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं कि “इस बिल में जिन पांच बिंदुओं में किसानों की सहमति न लेने की बात कही गई है उसमें सिर्फ एक पर या ज्यादा से ज्यादा डेढ़ पर मेरी आपत्ति है, वो भी स्पष्टता के संदर्भ में। इंडस्ट्रियल कॉरीडोर पर ख़ासतौर पर। मान लिया जाए कि पटना से दरभंगा इंडस्ट्रियल कॉरीडोर विकसित करने को मंजूरी दी जाती है, (माफ़ करें संदर्भ हमेशा मैं अपने ही इलाके का सोच पाता हूं, रुस या पोलैंड जेहन में नहीं आता) तो उस कॉरीडोर में अधिग्रहित ज़मीन सिर्फ़ सरकार उपयोग करेगी या कोई और..? बाद में वह औने-पौने दाम पर औद्योगिक घरानों को तो नहीं दे देगी? तो यह एक नया SEZ टाइप मामला भी हो सकता है। सरकार को इस पर स्पष्टीकरण देने की जरूरत है। बाकी सुरक्षा, ग्रामीण विकास, सस्ते आवास और पीपीपी प्रोजेक्ट में आप चाहें तो पीपीपी पर आपत्ति कर लें और स्पष्टीकरण मांग ले। लेकिन पीपीपी प्रोजेक्ट भी अंतत: सरकार और समाज के लिए ही होते हैं, चाहे वो दिल्ली मेट्रो हो या कोई मेगा सड़क परियोजना।”
महत्वपूर्ण है कि अण्णा हजारे के आन्दोलन के मूड में आते ही सारा माहौल गरमा गया है। अण्णा हजारे जो बात कर रहे हैं उस पर सुशांत जी का कहना है कि “अगर अन्ना हजारे की बात मान ली जाए तो देश में नई सड़क और विद्यालय तो दूर की बात है, सरकार एक कुंआ तक नहीं खोद पाएगी। वो वैसी बात है कि ज़मीन पर किसानों का ‘शाश्वत’ या ‘अध्यात्मिक’ हक है। यह किसी पंचतंत्र की कहानी के वक्त सा लगता है, जबकि आधुनिक राष्ट्र-राज्य में ज़मीन पर वास्तवकि हक ‘स्टेट’ का है जिसका नेतृत्व एक संप्रभु संसद का हिस्सा होता है। गांधी और बिनोवा ने भी कहा था कि ‘सभै भूमि गोपाल की…’ यहां गोपाल का मतलब गाय चरानेवाला नहीं, गांधी का ईश्वर (या सामूहिक विवेक?) था और लोकतंत्र में ‘सार्वभौम सत्ता’ है। लेकिन अन्ना कह रहे हैं कि जमीन पर असली हक किसान का है और वो हक वो किसी कीमत पर उससे छीना नहीं जा सकता। कई बार यह बात तो परले दर्जे की पूंजीवादी सोच लगती है जिसमें जो मेरा है वो मेरा है, कोई छीन नहीं सकता। हालांकि मैं किसानों की तुलना पूंजीवादियों से यहां नहीं कर रहा।”
फिर भी कुल मिलाकर मै इस बिल को स्वीकार करता हूं और भरोसा करता हूं कि ये राष्ट्रहित में होगा। हलांकि कुछेक बिंदुओं पर वास्तव में सरकार को एक मर्तबा फिर से विचार कर लेना चाहिए। जैसे भूमि अधिग्रहण के ‘अरजेन्सी प्रावधान’ की काफी आलोचना हुई है। इसके तहत सरकारें ये कहकर किसानों की ज़मीने बिना सुनवाई के तुरत-फुरत ले लेती हैं कि परियोजना तत्काल शुरू करनी चाहिए। दूसरा, अधिग्रहण से जीविका खोने वालों का निर्वाह-भत्ता और समयावधि दोनो कम हैं और सीधी दी गई रकम अनुपयोगी है। इस विषय पर भी सुशांत जी थोड़ा अलग तरह से बात कहते हैं, जिस पर विचार करने की ज़रूरत है। उनका मानना है कि “किसान एकमुश्त इतना पैसा लेकर करेंगे क्या? उन्हें शेयर बाजार में लगाना या फ्लैट ख़रीदना आता नहीं, उनका हाल वहीं होगा जो नोएडा के किसानों का हुआ। 10-12 साल में दारू पीकर फूंक देंगे। इसका उपाय ये है कि सरकार सिर्फ पैसा न दे, बल्कि परिवार में लोगों को सरकारी नौकरी भी दे। वह ज्यादा ठोस उपाय है।”
भूमि अधिग्रहण का एक पहलू यह भी है कि जब किसी इलाके में उद्योग लगाए जाने की योजना आती है तो उस इलाके के आसपास के शहरों में बसे धन्ना सेठ गिद्ध की तरह गाँव की ज़मीन पर झपट पड़ते हैं। सूचना हासिल करने में आगे ये तबका किसानों को उद्योग के आने की भनक भी नहीं लगने देता और दलालों के माध्यम से उनकी ज़मीन को सस्ते दामों में ख़रीद लिया जाता है। अगर बचे-कुचे किसान अपनी ज़मीन बचाने का आंदोलन करें तो उसमें तोड़-फोड़ करने वाले भी यही लोग होते हैं। और अंत में सारे मुआवजे-नौकरी का फायदा इन्हीं धन्ना सेठ दलालों को जाता है। इसलिए इस अध्यादेश पर इतना हंगामा मचाने की कोई ख़ास ज़रूरत नही है, जितनी की किसानो को सताने वाले, उनको प्रत्यक्ष उपेक्षित करने वालों के आचरणों में सुधार के लिए हंगामा मचाने की है।
यदि आंदोलन भूमि अधिग्रण बिल को एकदम किसान विरोधी बताता है तो सरकार के प्रतिनिधियों ने इस विषय पर खुलकर देहात की चौपाल ,चौराहे,और ग्राम पंचायत स्तर पर चर्चा कर लेनी चाहिए. सरकार को इतनी जल्दी किस बात की है/इस सरकार का मुद्दा है भ्र्ष्टाचार का उन्मूलन/सबका साथ,सबका विकास. तो सबको साथ लेकर ,विस्तृत चर्चा कर, ऐसे दीर्घ कालीन विधेयक को चर्चा के माद्यम से संसद से अनुमोदित करवाना चाहिए. दूसरे वेदिन लद गए जब सरकारें मनमर्जी से अध्यादेश प्रचंड बहुमत लाने के कारण। ले आया करती थीं। यदि कोई राष्ट्रीय मुद्दा अचानक आपड़े ,जैसे कोई विपदा,युद्ध ,महामारी और उस परिस्थति में कोई अध्यादेश निकालना पड़े तो बात समझ में आती है. अभी सरकार को दिल्ली चुनावो में केजरीवाल ने घेर ही लिया है. मोदी सरकार इस देश की भोली भली किसान जमात को पहिचाने. आजादी के बाद इस वर्ग का विकास उतना नहीं हुआ जितना अन्य वर्गों का हुआ. अभी तक १६ मई के बाद सरकार पर या उसके किसी मंत्री पर भ्र्ष्टाचार का एक भी आरोप नहीं लगा है. विरोधी इसे पचा नहीं पा रहे है.तो संसद जाम करने के लिए मुद्दे तो चाहिए भाई। कभी साधवी का मुद्दा,हालांकि उन्होंने माफ़ी मांग ली. मोदीजी को उनके घर के लोग भी तो काम नहीं करने देते. कभी साधु का बयां,कभी साध्वी का बयान. कभी बड़े बंधू का बयां ,ऍन दिल्ली चुनाव के वक्त शत्रुघ्न का केजरीवाल के प्रभाव का बयान. मुझे तो लगता है मोदी जी और उनकी सरकार कुछ उनके लोगों को ही रास नहीं आ रही.