संस्कृत भाषा में शोध एवं गहन अध्ययन पर किसका नियंत्रण होना चाहिए?

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यह लेख श्री राजीव मल्होत्रा के व्याख्यान पर आधारित है जो उन्होंने विश्व संस्कृत सम्मेलन, बैंकाक में २८ जून २०१५ को दिया था।

( राजीव मल्होत्रा का व्याख्यान) – भाग २

अपनी पुस्तक (The Battle For Sanskrit, दी बैटल फॉर संस्कृत) में मैंने एक विशेष आउटसाइडर विचारधारा पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है । इस विचारधारा को मैं अमेरिकन ओरिएण्टलिस्म (American Orientalism) कहता हूँ। अपनी पुस्तक में मैंने पुरानी विचारधारा यूरोपियन ओरिएण्टलिस्म (European Orientalism), [जो विलियम जोन्स और यूरोप के अन्य लोगों ने शुरू की थी] और अमेरिकन ओरिएण्टलिस्म में अंतर स्पष्ट किया है।

मैंने अपनी पुस्तक में बताया है कि यह अमेरिकन ओरिएण्टलिस्म विचारधारा पिछली आउटसाइडर विचारधाराओं से कैसे अलग है और परम्परावादी मत इस अमेरिकन ओरिएण्टलिस्म विचारधारा से कैसे भिन्न है? मैंने यह भी बताया है कि परम्परावादी मत (इनसाइडर) को कैसे इस अमेरिकन ओरिएण्टलिस्म का पूर्व पक्ष करना चाहिए और फिर उसका प्रत्युत्तर कैसे देना चाहिए।

मैं तीन या चार ऐसे मुख्य अंतर देखता हूँ जिनके अध्ययन में एक परम्परावादी (इनसाइडर) इच्छुक होगा।

अमेरिकन ओरिएण्टलिस्म में धार्मिकता व पवित्रता का पूरी तरह से अभाव है। साथ ही साथ संस्कृत भाषा के परमार्थिक विचार को या तो कम आँका गया है या कोई स्थान ही नहीं दिया गया है क्योंकि उनके हिसाब से यह विचार एक सामजिक कुप्रथा (socially abusive) है और यह विचार यथास्थिति रखना चाहता है। इस विचार के लिए जो शब्द प्रयोग किये गए हैं, वे हैं: विषाक्त (toxic), अपमानजनक (abusive), सामाजिक व्यवस्था (social hierarchy) आदि।

तो अमेरिकन ओरिएण्टलिस्म ने एक तरफ धार्मिकता के विचार को तो हटाया है, और दूसरी तरफ सामाजिक व राजनीतिक उत्पीड़न के विचार को शामिल कर लिया है (इस तरह दोगुना नुकसान किया)।

एक और बात है। अमेरिकन ओरिएण्टलिस्म के लेखकों के लिखने की शैली बड़ी क्लिष्ट है, बड़ी गूढ़ है और उसे समझना आसान नहीं है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि उनकी बात पश्चिमी सिद्धांतों पर आधारित हैं।

उदाहरण के लिए मैं यह कह सकता हूँ कि बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने एक यूरोपियन विचारक वीको (Vico) के बारे में सुना होगा। यहाँ तक कि संस्कृत के परम्परावादी लेखक भी इस नाम से अधिक परिचित नहीं होंगे।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अमेरिका में संस्कृत अध्ययन के प्रधान केंद्र जैसे कोलंबिया यूनिवर्सिटी, शिकागो यूनिवर्सिटी और ऐसे अन्य केंद्र, परमार्थिक विचारधारा का खंडन करने के लिए वीको के विचार और उनके सिद्धांत का उपयोग करते हैं।

अब एक परम्परावादी लेखक जो वीको से अपरिचित है, अमेरिकन लेखकों के तर्क को काट ही नहीं पायेगा क्योंकि उसे पता ही नहीं हिगा कि वो किस बारे में बात कर रहे हैं।

बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने बेंजामिन के बारे में और उनकी विचारधारा Aestheticization of Power के बारे में सुना होगा। इसी मूल विचारधारा से “अमेरिकन ओरिएण्टलिस्म”, पूरे एशिया में संस्कृत के प्रचार प्रसार को समझता है।

इस विचार के हिसाब से दक्षिण पूर्व एशिया में जो संस्कृत का प्रचार प्रसार हुआ है, वह ब्राह्मणों और शासनतंत्र के मिलीजुली साजिश थी। इस साजिश के तहत राजपुरुषों को दिव्य दिखाया गया और ब्राह्मणों ने अपने यज्ञ और दूसरे अनुष्ठानों से उन्हें दिव्य दिखने में भूमिका निभाई। बेंजामिन के विचार के हिसाब से यह साजिश बड़े करीने से की गयी। लोगों को ऐसा लगता था कि यह उनकी ही सत्ता है और वे कभी भी ऐसा नहीं सोचते थे कि राजतन्त्र या पुरोहित अपने हित के लिए कुछ कर रहे हैं। काव्य, रामायण का मंचन, नृत्य, स्थापत्य कला, चित्रकारी आदि में आम जनता भाग लेती थी और सबको बहुत अच्छा लगता था। मगर यह सारे मनोरंजन के कार्यक्रम स्थापित व्यवस्थातंत्र को ही मजबूत करते थे।

तो अब एक परम्परावादी विचारक को अगर अमेरिकन लेखकों के तर्क को काटना है तो उसे पहले उन विचारों के मूल स्रोत को समझना होगा।

इन मूल स्रोतों को ठीक से समझने के लिए आपको किसी अमेरिकन स्कूल में जाना होगा और वहां कई साल पश्चिमी विचारों को समझने में लगाने होंगे। आपको Frankfurt School of Marxism और ग्राम्सकी की माओवादी विचारधारा को समझना होगा। इसके लिए एक परम्परावादी विचारक को सालों तक पश्चिमी वामपंथी माओवादी विचारों को समझना होगा, और अगर उसने ऐसा किया तो वो खुद ही एक आउटसाइडर बन जायेगा।

ऐसे कई भारतीय हैं जिन्होंने अमेरिकन ओरिएण्टलिस्म के व्यवस्था के अन्दर अध्ययन किया और फिर वे भारत वापस आये और उन्होंने इसी व्यवस्था के अंतर्गत भारत में ही संस्कृत भाषा का अध्ययन और व्याख्या करवाना शुरू कर दिया। इनमे से कुछ लोग भारत के शिक्षा तंत्र और मीडिया में काफी प्रभावशाली पदों पर हैं। इन्ही लोगों के कारण भारत में संस्कृत अध्ययन को लेकर एक “परिष्कृत” दृष्टिकोण पैदा हुआ कि “संस्कृत एक उत्पीड़न की व्यवस्था है”।

इनसाइडर और आउटसाइडर संस्कृत को कैसे देखते हैं?

हम इनसाइडर, संस्कृत को एक पवित्र व्यवस्था मानते हैं, एक पॉजिटिव व्यवस्था मानते है जो हमें जीवन में मूल्य और उद्देश्य देती है। उसमे कुछ दिक्कते हैं मगर हम उन्हें ठीक कर सकते हैं, जैसे हमने पहले भी ठीक की हैं।

आउटसाइडर इसे एक पॉजिटिव व्यवस्था नहीं मानते। वे संस्कृत को माओवादी वर्ग संघर्ष के रूप में देखते हैं और उसे सामाजिक / राजनीतिक उत्पीड़न की व्यवस्था मानते हैं।

आउटसाइडर समूह के हिसाब से रामायण को वाल्मीकि ने दक्षिण एशिया और  दक्षिण पूर्व एशिया में तानाशाही (oriental despotism) लाने के लिए लिखा था। यह व्यवस्था राजा को तो भगवान बताती है और दुश्मन को राक्षस। तो देवता-दानव के इस सिद्धांत का उपयोग राजा लोग करने लगे अपने दुश्मनों से लड़ने के लिए – जनता को समझाया गया कि आप देवताओं के (राजा के) साथ रहो और दुश्मन (जो एक दैत्य है, उस) का मुकाबला करो।

एक दुर्भाग्यपूर्ण मगर महत्वपूर्ण बात यह है कि संस्कृत अध्ययन के प्रमुख केंद्र एशिया से बाहर हैं। सबसे प्रतिष्ठित जर्नल्स पश्चिम में छपती हैं, सबसे प्रभावशाली अध्ययनकर्ता पश्चिम से हैं, सबसे बढ़िया पुस्तकालय पश्चिम में हैं, और सबसे प्रतिष्ठित नियुक्तियां पश्चिम में होती हैं। जिन परम्परावादी विद्वानों से मैंने बात की है, वे सभी अगर मौका मिले तो पश्चिम जाना पसंद करेंगे और वहां की यूनिवर्सिटी में स्थाई या विसिटिंग प्रोफेसर बनना पसंद करेंगे। इस स्थापित तंत्र के कारण नया विचार लाना बड़ा मुश्किल हो जाता है।

कुछ मूल प्रश्न

१.      संस्कृत भाषा पर “अधिकार” से बात करने के स्थिति में कौन है?

२.      संस्कृत प्रचार प्रसार में जो व्यय (खर्चा) होगा – उसका निर्णय कौन कर रहा है?

३.      संस्कृत का ज्ञान कैसे बाँटना है इसका निर्णय कहाँ से हो रहा है?

४.      संस्कृत भाषा के बारे में नीतियां कौन बना रहा है?

इन सभी प्रश्नों का उत्तर है – यह चीज़ें इनसाइडर लोगों के हाथों में नहीं हैं, सभी का नियंत्रण आउटसाइडर कर रहे हैं।

एक और बात, यह बाहर से नियंत्रण करने की प्रथा पुरानी है। जब आप किसी को गुलाम बना रहे होते हो, तो आप कह सकते हो कि हम आपको आपका इतिहास सिखा कर एहसान कर रहे हैं। आपको अपनी परंपरा नहीं पता, हम आपको बताएँगे। हमारे लोग भी खुश हो जाते हैं, प्रभावित हो जाते हैं और कहते हैं – धन्यवाद। यह हमारी मानसिक दासता का ही प्रतीक है।

अगर हमें सही अर्थों में स्वाधीन होना है तो हमें राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता के अलावा भी कुछ करना होगा। भारत को १९४७ में राजनीतिक स्वतंत्रता मिली और अब हम आर्थिक स्वतंत्रता की और बढ़ ही रहे हैं मगर बौद्धिक स्वतंत्रता, सांस्कृतिक स्वतंत्रता, शैक्षिक स्वतंत्रता अभी मिलनी बाकी है।  इस स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है कि हम अमेरिकन ओरिएण्टलिस्म विचारधारा के प्रमुख स्कूलों का पूर्व पक्ष करें, ऐसे स्कूल जो हमको हमारा ही ज्ञान वापस दे रहे हैं।

अब मुझे एक आंतरिक टीम (Home Team) चाहिए जिसके सदस्य परंपरागत विद्वान हों। इन लोगों को इस कुरुक्षेत्र और इस संघर्ष के महत्व की पूरी समझ होनी चाहिए। उन्हें यह पता होना चाहिए इस खेल के मुख्य पात्र कौन हैं? उनकी रणनीति क्या है? उन्हें किसके साथ काम करना है, और किससे बचकर रहना है? मेरी अपेक्षा है कि इस आंतरिक टीम (Home Team) के सदस्य अमेरिकन ओरिएण्टलिस्म का पूर्व-पक्ष करें और फिर उसका उत्तर-पक्ष करें (प्रत्युत्तर दें)।

अंत में मैं यह कहना चाहता हूँ कि मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि एक पक्ष सही है या नहीं। मैं यह कह रहा हूँ कि सिर्फ आउटसाइडर लोगों के पास संस्कृत भाषा का पूरा नियंत्रण नहीं हो सकता। इनसाइडर लोगों को भी अपनी बात कहने का मौका मिलना चाहिए। अगर इन दोनों पक्षों के सामान भागीदारी हो और आपस में तर्क-वितर्क हो तो मुझे इस बात से ख़ुशी ही होगी। अभी इनसाइडर लोगों की बिलकुल भागीदारी ही नहीं है।

धन्यवाद।

हिंदी अनुवादक: प्रहरी

 

1 COMMENT

  1. यह लेख पढ़ते न जाने क्यों बचपन याद आ गया| आँख मूंदे मैं आज भी १९४० के प्रारंभिक दशक के छोटे से गाँव में तीज त्यौहार पर प्रातः अपने घर पंडिताइन को आते देखता हूँ| नाईन भी रविवार को घर आ बच्चों और स्त्रियों के सिर में तेल कंघी करती दिखाई दे जाती है| अपने घर लौटते, दादी उन्हें आटा घी चावल शक्कर और उड़द की दाल देती थीं| चूड़ी (भंगिन) न जाने कब प्रभात में ऊपर छत पर पाखाना साफ़ कर चली जाती थी लेकिन कभी कभार उसे साफ़ सुथरे कपड़े पहने दिन में दादी के हाथों रोटी-दाल-भाजी ले जाते भी देखता हूँ| खेतों में फसल काटने पर उनके परिवारों में अनाज भेजा जाता था| घर आँगन और बाहर छोटे से गाँव के गली और चौराहों में स्वच्छता का वास था और गाँव के लोग परस्पर सहयोग द्वारा संतुष्ट जीवन यापन करते थे| सांस्कृतिक स्वरूप को छोड़, संस्कृत भाषा अथवा उस पर किसी प्रकार के किये शोध से गाँव के लोगों का कभी दूर का नाता भी न था| और यह भी नहीं कि आज गाँव की नई पीढ़ी में संस्कृत भाषा का ज्ञान जागृत हो गया है| शोध कार्य तो दूर उनकी पंजाबी भाषा केवल स्थानीय बोलचाल की भाषा बन कर रह गई है| अन्य प्रान्तों में भी आज कुछ ऐसा ही वातावरण है| टिप्पणी लिखते मेरे चंचल मन में विचार आया कि यदि भारत के विभिन्न प्रान्तों में स्थित वहां किसी एक गाँव में से दस दस सरलमति नागरिकों को किसी अनुसंधान निहितार्थ एकत्रित किया जाए तो देखें वे आपस में कैसे वार्तालाप करते हैं! ऐसी स्थिति में संस्कृत भाषा में शोध कार्यों व उनके नियंत्रण पर बात करना मेरे लिए संस्कृत के श्लोक मात्र है|

    संस्कृत श्लोक की बात कही तो आधुनिक संतों द्वारा भारतीयों को काम क्रोध लोभ मोह और अहंकार से बचने को कहा जाता रहा है और परिणामस्वरूप आज अधिकांश लोग (क्षमा करें) खाना पीना और हगना (वो भी ठीक से नहीं) जैसी आधारभूत मानवीय आवश्यकताओं में लगे हुए हैं| कई दशकों से संयुक्त राष्ट्र अमरीका में रहते मुझे ऐसा आभास हुआ है कि निम्नलिखित श्लोक पर शोध करते और उसे दैनिक जीवन में कार्यान्वित करते यह देश संसार में सबसे अधिक प्रबुद्ध और समृद्ध देश बना हुआ है|

    प्राणान् प्रपीड्येह संयुक्तचेष्टः
    क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वसीत ।
    दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं
    विद्वान् मनो धारयेताप्रमत्तः ॥

    इसी कारण मैं अपने दैनिक जीवन में हिंदुत्व के आचरण को भली प्रकार निभा रहा हूँ|

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