10 फरवरी को कृमिनाशक दिवस मनाया गया।इस अवसर पर मध्यप्रदेश के सभी शासकीय विद्यालयों के बच्चों को कृमिनाशक दवा एल्बेन्डाजोल खिलाया-पिलाया गया ।चैकाने वाली बात यह है कि इस दवा को खिलाने-पिलाने की जिम्मेदारी स्कूल के मास्टरों के सुपुर्द की गई थी।
आपको ज्ञात होगा कि पिछले साल छत्तीसगढ में बिलासपुर जिले के पेंडारी गांव की दर्जनों महिलाएं नकली दवाओं का शिकार होकर दम तोड चुकी हैं। ऐसे में लगता नहीं है कि हमारी सरकार इन घटनाओं से कोई सबक लेती है। गौरतलब है कि छत्तीसगढ के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल के गृह नगर बिलासपुर से 10 किलोमीटर दूर तखतपुर ब्लाक के एक अस्पताल में पिछले साल आठ नवम्बर को आयोजित परिवार कल्याण शिविर में 83 महिलाओं की नसबंदी के आपरेशन किए गए थे जिसमें 12 महिलाओं की मौत हुई थी. इसके दो दिन बाद 10 नवम्बर को पेंड्रा ब्लॉक में हुए 56 ऑपरेशनों में एक बैगा आदिवासी महिला की मौत हो गई थी।जबकि बिलासपुर के अपोलो और सिम्स अस्पताल में नसबंदी मामले में अस्वस्थ हुई 122 महिलाएं भर्ती की गई थीं.
सवाल यह उठता है कि यह कार्यक्रम सवालों के घेरे में क्यों है ? क्या यह महज शिक्षकों के गैर शैक्षणिक कार्यों में संलिप्तता है या इसके आगे भी कुछ और है।जहां तक मामला शिक्षकों के गैर शैक्षणिक कार्यों में संलिप्तता का है , वह तो है ही। शिक्षकों को बेपेदी का लोटा समझने की मानसिकता नई नहीं ,पुरानी है ।स्कूलों में गुणवत्ता के अभाव का एक महत्वपूर्ण कारण शिक्षकों के गैर शैक्षणिक कार्यों में संलिप्तता है ।सरकार तमाम दावे करती है कि शिक्षकों को गैर शैक्षणिक कार्यों में संलिप्त नहीं किया जाएगा, किंतु वह सारे वायदे अखबारों के पन्नों तक ही सीमित होते हैं। कमोवेश परिस्थितियां आज भी जस का तस हैं ।स्कूलों में उपस्थित रहकर भी शिक्षक तमाम गैर शैक्षणिक कार्यों में संलिप्त रहते हैं जिसकी किसी को चिन्ता नहीं है।
किन्तु यहां पर मामला सिर्फ शिक्षकों के गैर शैक्षणिक कार्यों में संलिप्तता का नहीं है ।एल्बेन्डाजोल जो कृमिनाशक दवा है निश्चित रूप से इस दवा की अनियमित खुराक से स्वास्थय पर विपरीत प्रभाव पडने वाले दुर्गुण भी होंगे जैसे कि मिचली आना, चक्कर आना आदि ।दूसरी बात इस दवा को खिलाने-पिलाने की कोई परिस्थिति होगी जैसे कि खाली पेट नहीं खाना आदि ।किन्तु यह दवाइयां थोक के भाव में स्कूलों में पहुंचाई गई और बिना पर्याप्त प्रशिक्षण के स्कूलों के बच्चों को दवा खिलाने-पिलाने का हुक्म जारी किया गया। आपको अवगत करा दें कि ऐसे बहुत से शिक्षक हैं जिन्हें मिलीलीटर की माप भी पता नहीं है ।ऐसे में दवाईयों के बुरे असर पर नाहक में शिक्षकों को फांसी के फंदे पर चढाने का काम आश्चर्य चकित करता है।
दूसरी बात यह कि दवा विभाग के पास पर्याप्त कर्मचारी होते हुए दवा विभाग के कर्मचारियों के बजाय यह काम मात्र शिक्षकों के भरोसे क्यों छोंडा गया। क्या जरूरत थी कि एक ही दिन में सारे बच्चों को क़मिनाशक दवा दी जाय ।पोलियो वायरस की विशिष्टता के कारण एक ही दिन में सभी जगह दवाई देने का प्रावधान किया गया था ।क्या कृमियों के बारे में भी वही विशिष्टता है ,यदि नहीं तो फिर ऐसा क्यों किया गया। महज आंकडे एकति्रत करने के लिए न ?
कौन जानता था कि छत्तीसगढ की महिलाओं को दी जा रही दवाएं जहरीली हैं। और यदि दवाओं में ही दोष था तेा फिर डॉक्टरों का उसमें क्या दोष। परंतु फिर भी डॉक्टरों को शक के घेरे में रखा गया और डॉक्टरों की छवि पूरी दुनिया में धूमिल हुई ।जबकि यह मामला स्वास्थय से ज्यादा प्रशासनिक भ्रष्टाचार का था। ऐसे में क्या गारंटी है कि एल्बेन्डाजोल जो कि एक सरकारी सप्लाई है,में इस तरह का दोष नहीं रहा होगा। और यदि इस प्रकार के दोष से कोई दुष्प्रभाव सामने आता तो उसकी जिम्मेदारी किसकी होती। साफ तौर पर स्वास्थय विभाग अपना पल्ला झाड लेता और यह तर्क दिए जाते कि शिक्षक ने उचित परिस्थितियों में दवाई नहीं दी होगी या उसके ही हाथ में कोई जहरीली चीज रही होगी ।स्वास्थय विभाग ए एन एम और आंगनबाडियों के माध्यम से गांव भर के बच्चों , किशोर-किशोरियों और महिलाओं को दवा देने का काम करता है । जिसके लिए वह प्रशिक्षित भी हैं। ऐसे में एल्बेन्डाजोल दवा का डोज उन प्रशिक्षित कर्मचारियों के बजाय अप्रशिक्षित शिक्षकों के माध्यम से क्यों दिलाया गया ,यह सवाल स्वास्थय अधिकारियों और कार्यक्रम के जिम्मेदार लोगों से जरूर पूछा जाना चाहिए।
गौरतलब है कि छत्तीसगढ में नसबंदी प्रकरण में उठे सवालों के बाद डॉक्टरों ने कैम्प में नसबंदी ऑपरेशन करने से मना कर दिया था। क्योंकि कैम्प में ऑपरेशन के सारे बंदोबस्त नहीं हो पाते और लापरवाही साबित होने पर डॉक्टरों केा जिम्मेदार ठहराया जाता है। किंतु शिक्षकों की एकजुटता के अभाव में शिक्षकों ने इस कार्य को मना नहीं किया जबकि शिक्षक दवा के प्रभाव और दुष्प्रभाव से पूर्णतया अनभिज्ञ थे ।
सरकार को प्रत्येक कार्यक्रम को महज आंकडों के तौर पर देखने की भूल नहीं करनी चाहिए । स्वास्थ्य के नाम पर स्वास्थ्य के साथ खिलवाड करने का कतई हक नहीं है । जब स्वास्थ्य विभाग का प्रशिक्षित अमला ए एन एम और आंगनबाडियों के रूप में पदस्थ है ,तो निश्चत रूप से यह कार्य शिक्षकों के बजाय उन्हें ही सुपुर्द किया जाना था । आशा है सरकार आइंदा सबक लेगी ।
-सुरेन्द्र कुमार पटेल
आदरणीय, मेरे (म. प्र. )में मास्टर बहुआयामी व्यक्तित्व का धनि माना गया है. एक बार पुलिस भर्ती में शारीरिक योग्यता जैसे सीना,लम्बाई, वजन नापने के लिए मास्टर को लगाया गया था. रतलाम जिले में एक बार नदी घाटी या सिंचाई योजना के भुगतान में भ्र्ष्टाचार नहीं हो इसलिए उन्हें नगद राशि का भुगतान करने हेतु लगाया गया था. चुनाव के अलावा अन्य विभागों के सर्वेक्षण भी मास्टर के जरिये ही बखूबी होते हैं. जैसे जनसँख्या सर्वेक्षण,आर्थिक सर्वेक्षण, गरीबी रेखा के नीचे सूचि बनाना ,आदि. चुनाव,पोलियो, मध्यान्ह भोजन तो शिक्षक के बाएं हाथ का खेल और अवश्यम्भावी कार्य मान लिया गया है. में क्षमा प्रार्थी हूँ ,शायद एक बार किसी जिलाधीश ने देशी शराब से सम्बधित कुछ कार्य भी शिक्षकों को दिया था किन्तु प्रखर विरोध के बाद उसे वापस ले लिया गया। हो सकता है यह गलत हो और गलत होगा ही. ऐसे आदेश कैसे दिए गए होंगे. वैसे एक बात मान ना पड़ेगी की सरकारी योजनाओं के तहत यूरिया, कंट्रोल,दुकानो पर सामग्री , परिवार नियोजन से सम्बधित साहित्य या सामग्री ,नारकोटिक्स कार्य,लाटरी कार्य शिक्षकों को अभी तक नहीं दिए गए हैं. यह प्रशंसनीय है.