क्यों टूटा अमेरिका का गुरूर?

0
247

कुन्दन पाण्डेय

95 वर्षों के बाद शीर्ष वैश्विक क्रेडिट रेटिंग संस्था ‘स्टैंडर्ड एण्ड पुअर’ (एस एण्ड पी) ने अमेरिका की क्रेडिट (साख) रेटिंग ‘एएए’ से घटाकर ‘एए प्लस’ करके अमेरिकी गुरूर को तोड़ दिया। परन्तु इसका जिम्मेदार अमेरिका ही ज्यादा है, एस एण्ड पी नहीं। वैश्विक कर्ज बाजार में सोने से अधिक विश्वसनीय डॉलर पर अब निवेशकों का पहले जैसा विश्वास तो नहीं रहेगा। इससे अमेरिका को निवेश या कर्ज पाने के लिए पहले से अधिक मूल्य देना होगा। साथ ही डॉलर का मूल्य गिरने से उसकी लिवाली कम होती जाएगी। ठीक ही कहा गया है कि अहंकार सर्वनाश का मूल है।

अमेरिका ने सबसे पहले हिरोशिमा एवं नागासाकी पर अणु-बम बरसाये, फिर वियतनाम में मुंह की खायी। धन के बल पर अपने दुश्मन नम्बर एक रहे सोवियत संघ को अफगानिस्तान से उखाड़ फेंकने के लिए जिस तालिबान नामक दैत्य-संघ को खड़ा किया, उसी ने अमेरिका के गुरूर ‘वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर’ को जमींदोज किया। परमाणु बम बनाने के झूठे आरोप में इराक पर हमले किए। सोवियत संघ के विघटन से शीत युद्ध का खात्मा होने से भी अमेरिका चैन से नहीं रहा। एकध्रुवीय विश्व के अजेय, एकलौते थानेदार एवं भाई बनने के चक्कर में अमेरिका ने अपना रक्षा व्यय कुल बजट का 36 प्रतिशत तक कर दिया, जो 698 अरब डॉलर से ऊपर पहुंच चुका है। अमेरिका ने वर्ष 2001 के बाद से अपने रक्षा व्यय में 81 फीसदी की वृद्धि की है। यह जानकर किसी को भी ताज्जुब हो सकता है कि अमेरिकी सैन्य खर्च, वैश्विक सैन्य व्यय का 43 फीसदी है।

अमेरिकी उथल-पुथल के भारत पर पड़ने वाले प्रभावों का सवाल है तो 5 अगस्त को रेटिंग घटाये जाने के बाद से रुपए के मुकाबले डॉलर की कीमत गिरने से भारतीय उत्पाद महंगे हो जायेंगे, इससे अमेरिकी और वैश्विक मांग कम होने से भारत का निर्यात कम हो सकता है। तेल के दामों में कमी होने से भारत में महंगाई की दर में कुछ कमी आयेगी, क्योंकि अचानक पेट्रोलियम आयात बिल में कमी होगी। पेट्रोलियम उत्पादों की (वैश्विक) कीमतों का महंगाई की गणना में निर्णायक भाग शामिल होता है।

गत वर्ष हमारे कुल निर्यात का 13 प्रतिशत अमेरिका को किया गया था। अमेरिका इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी एवं गारमेन्ट के अपने आयात में कमी करेगा तो संबंधित भारतीय उद्योगों और कंपनियों को जरुर नुकसान होगा। भारतीय साफ्टवेयर कंपनियों को आउटसोर्सिंग काम मिलने बंद हो सकते हैं। परन्तु डॉलर के कमजोर होने से भारत का आयात सस्ता होगा। भारत की आधारभूत मजबूती पर 2008 की मंदी का खास असर नहीं पड़ा। इस कारण विदेशी संस्थागत निवेशक विकसित देशों की जगह भारत में निवेश बढ़ायेंगे। इससे भारतीय निवेशक भी निवेश बढ़ायेंगे, जिससे शेयर बाजार में तेजी फिर आ सकेगी। निवेश से डॉलर की आवक बढ़ने से रुपया दिनो-दिन मजबूत होता जाएगा।

भारतीय अर्थव्यवस्था में मांग अनवरत पूर्ति से अधिक बनी हुई है। रिजर्व बैंक के बार-बार दरें बढ़ाने पर भी मांग कम नहीं हो पा रही है। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था में उत्पादन बढ़ाने के लिए कंपनियां तीव्र आर्थिक क्रियायें करती रहेंगी। इस वर्ष विश्व अर्थव्यवस्था की विकास दर 4.2 प्रतिशत है, इसमें भारत 10 प्रतिशत का, तो चीन 33 प्रतिशत का भागीदार है। हालिया संकट पर गवर्नर डी. सुब्बाराव ने कहा है कि हमारी संस्थाएं मजबूत हैं औऱ हम मौजूदा संकट से जूझने के लिए पूरी तरह से तैयार है। निकट भविष्य में हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी रुपए और विदेशी मुद्रा की तरलता पूरी तरह से बनी रहे। उद्योगों को तरलता के संकट का सामना नहीं करना पड़ेगा।

स्थिति यह हो गयी है कि 99 फीसदी साक्षरता जिसमें अधिकतर व्यावसायिक रुप से कुशल हैं, के बावजूद बेरोजगारी की दर अमेरिका में भारत से ज्यादा 11 प्रतिशत हो गयी है। अमेरिका की सबसे बड़ी ताकत उसका डॉलर है, जो विश्व अर्थव्यवस्था में सोने से भी विश्वसनीय माना जाता रहा है। ‘ट्रिपल ए’ रेटिंग से अमेरिका को सबसे सस्ता कर्ज मिल जाता था, इसी कारण अमेरिका ने इतना अधिक कर्ज ले लिया कि केवल चीन का कर्ज लौटाने से उसकी अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लग सकता है। टाइम पत्रिका के अनुसार यदि केवल चीन अमेरिका से कर्ज वापस ले तो इससे उसकी अर्थव्यवस्था में प्रलय की स्थिति निर्मित हो सकती है। अब विश्व अर्थव्यवस्था को डॉलर की स्थानापन्न मुद्रा की खोज तेजी से करनी होगी। यह अमेरिकी वर्चस्व के एक छत्र राज के अवसान का आरंभ हो सकता है।

अमेरिकी सरकार उद्योगपति तो नहीं है। किन्तु अमेरिका के उद्योगपतियों और सरकार में मामूली अंतर रहा है। इस तरह अमेरिका के राजनीतिक नेतृत्व ने अमेरिकी कंपनियों के न केवल दबाव में, बल्कि उनकी इच्छानुसार नीतियां बनाकर अपनी इकॉनमी को रसातल में पहुंचाने की तैयारी कर ली थी। अमेरिका में उद्योगपतियों के मनमाफिक नीतियां बनते रहने से राष्ट्रीय हित को लगातार नुकसान होता गया और स्थितियां इतनी खतरनाक हो गयीं कि अमेरिका एक बड़े ऋण-चक्र में फंसने के कगार पर पहुंच चुका है।

वैसे अमेरिका एक बार फिर 8,133.5 टन रिजर्व सोने के दम पर इस संकट से पार पा सकता है। इसके अतिरिक्त ब्याज दर जीरो करने, नये नोट छाप कर आंतरिक भुगतान की व्यवस्था करने तथा अमरीकी सीनेट (संसद) द्वारा कर्ज लेने की सीमा को 400 अरब डॉलर और बढ़ाने से अमेरिका को फौरी राहत तो मिल सकती है। परन्तु प्रस्तावित कर्जों में अगले दस वर्षों में 2.1 ट्रिलियन डालर की कटौती करने व कांग्रेस की सुपर कमेटी द्वारा 1.5 अरब डॉलर की बचत प्राप्त करने के लिए सुझाई गई नीतियों को अमल में लाना अमेरिका के लिए अग्निपरीक्षा के सदृश होगा।

Previous articleकहो कौन्तेय-३३ (महाभारत पर आधारित उपन्यास-अंश)
Next articleभ्रष्टाचार देश की बड़ी समस्या
कुन्दन पाण्डेय
समसामयिक विषयों से सरोकार रखते-रखते प्रतिक्रिया देने की उत्कंठा से लेखन का सूत्रपात हुआ। गोरखपुर में सामाजिक संस्थाओं के लिए शौकिया रिपोर्टिंग। गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातक के बाद पत्रकारिता को समझने के लिए भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी रा. प. वि. वि. से जनसंचार (मास काम) में परास्नातक किया। माखनलाल में ही परास्नातक करते समय लिखने के जुनून को विस्तार मिला। लिखने की आदत से दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण, दैनिक जागरण भोपाल, पीपुल्स समाचार भोपाल में लेख छपे, इससे लिखते रहने की प्रेरणा मिली। अंतरजाल पर सतत लेखन। लिखने के लिए विषयों का कोई बंधन नहीं है। लेकिन लोकतंत्र, लेखन का प्रिय विषय है। स्वदेश भोपाल, नवभारत रायपुर और नवभारत टाइम्स.कॉम, नई दिल्ली में कार्य।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here