लोकतंत्र के महाकुंभ पर धुंधलके क्यों?

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ललित गर्ग
अप्रैल-मई 2019  में संभावित लोकसभा चुनाव को देखते हुए अनेक प्रश्न खडे़ हैं, ये प्रश्न इसलिये खड़े हुए हैं क्योंकि महंगाई, बेरोजगारी, बेतहाशा बढ़ते डीजल-पेट्रोल के दाम, आदिवासी-दलित समाज की समस्याएं, भ्रष्टाचार आदि समस्याओं के समाधान की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये। आज भी आम आदमी न सुखी बना, न समृद्ध। न सुरक्षित बना, न संरक्षित। न शिक्षित बना और न स्वावलम्बी। अर्जन के सारे स्रोत सीमित हाथों में सिमट कर रह गए। समृद्धि कुछ हाथों में सिमट गयी है। स्वार्थ की भूख परमार्थ की भावना को ही लील गई। हिंसा, आतंकवाद, जातिवाद, नक्सलवाद, क्षेत्रीयवाद तथा धर्म, भाषा और दलीय स्वार्थों के राजनीतिक विवादों ने आम नागरिक का जीना दुर्भर कर दिया। सरकार अब नाराज लोगों की नाराजगी दूर करने, उन्हें लुभाने एवं वोटों को आकर्षित करने के कुछ तदर्थ किस्म के झुनझुने थमा रही हैं। क्या स्वस्थ एवं आदर्श लोकतंत्र के लिये मतदाताओं को लुभाने- रिझाने की यह परम्परा उचित है? जरूरी है समय के साथ-साथ येन-केन-प्रकारेण सत्ता हथियाने के राजनीतिक स्वार्थ बदले। कुछ सृजनशील राजनीतिक रास्ते खुलें। चुनाव ही वह क्षण है जब राजनीतिक विसंगतियों एवं विडम्बनाओं को विराम दिया जा सकता है। किसानों, नौजवानों और आदिवासी-दलितों-बहुजनांे के बीच मौजूदा सत्ता और व्यवस्था से जैसी नाराजगी है, उस नाराजगी को दूर करने के सरकार के प्रयास नाकाफी रहे हैं। जन असंतोष के असल मुद्दों को हल करने से सरकार भागती रही। पिछले दिनों अगड़े समुदायों को 10 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा रोजगार-सृजन की नाकामी ढकने के लिए काम में लिया गया एक अवसरवादी फार्मूला है। पिछले साल रोजगार में 1.1 करोड़ की कमी आई। हर समुदाय के पढ़े-लिखे युवा इस असलियत को समझ रहे हैं। हमें बहुत सावधान रहने की जरूरत है। धर्म की राजनीति हमेशा वोट बैंक को प्रभावित करने के लिये होती रही है। इस बार भी इन दिनांे सत्ता का सबसे महात्वाकांक्षी प्रकल्प प्रयाग का अर्द्धकुंभ है, जिसे कई-कई कुंभों से बड़ी भव्यता दी गई है। 4200 करोड़ से ज्यादा धन लगाया गया है। गांव-गांव इसका प्रचार है, मानो इससे किसानों का दुख दूर होने वाला है। लेकिन क्या इस तरह के धार्मिक प्रकल्पों से जनता की नाराजगी दूर हो सकेंगी? क्या किसानों के दर्द कम हो जायेंगे? क्या बेरोजगार युवकों के आक्रोश को कम किया जा सकेगा? यथार्थ तथ्य तो यह भी है कि यूपी का किसान लंबे समय बाद अब कदम-कदम पर शासन के खिलाफ आवाज उठा रहा है। शासकीय नीति के चलते इन दिनों यूपी में लावारिस पशुओं की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। कई इलाकों में किसान फसल बर्बाद कर रहे आवारा पशुओं को लेकर आन्दोलन कर रहे है ताकि सरकार पर दबाव बनाया जा सके। पारंपरिक मुद्दों के साथ आंदोलनों में नए सवाल भी जुड़ रहे हैं। जगह-जगह आक्रोश और प्रतिरोध की नई आवाजंे उभर रही हैं। पारंपरिक नेताओं और दलों की जगह प्रोफेशनल्स और छात्र-युवा आगे आ रहे हैं। जिस दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में प्रवासी भारतीय सम्मेलन का उद्घाटन कर रहे थे, उसी दिन सबके लिए मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा और हर छह करोड़ की आबादी पर एक ‘एम्स’ बनाने की मांग को लेकर आमरण अनशन कर रहे बीएचयू स्थित मेडिकल काॅलेज के मशहूर डाॅक्टर ओमशंकर के समर्थन में भारी संख्या में लोग सड़कों पर आ गए।आदिवासी-दलित-बहुजन के बीच इन सवालों पर गहरा आक्रोश है। बात केेवल भाजपा की ही नहीं है, कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के नेतृत्व की निष्क्रियता से जुड़ा आक्रोश एवं क्षुब्धता भी सामने आ रही है। राजनीतिक दलों की नाकामी एवं खोखलापन मतदाताओं को जागरूक बना रहा है। वे विकल्पहीनता में वोट भले दे दंे, पर इन्हें लंबे समय तक वे बर्दाश्त नहीं करना चाहते। विभिन्न इलाकों में नए आंदोलनों की जमीन तैयार हो रही है। भावी तस्वीर बहुत हद तक 2019 के चुनावी नतीजे पर निर्भर करेगी। अगर सत्ता-परिवर्तन हुआ और अपेक्षाकृत उदार सरकार आई तो संभव है, कुछ समय के लिए तनाव और जनाक्रोश में कमी आए। लोग नई सरकार का रूख भांपकर अपने लिए अनुकूल फैसले का इंतजार करना चाहेंगे। आज के तीव्रता से बदलते समय में, लगता है राजनीतिक दल मतदाता को तीव्रता से भुला रहे हैं, जबकि और तीव्रता से उन्हें सामने रखकर उन्हें अपनी व राष्ट्रीय जीवन प्रणाली की रचना करनी चाहिए। लोकसभा चुनावों की सरगर्मियों के बीच सभी दल सरकार बनाने की या सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने की तैयारी कर रहे हैं, किसी भी दल के एजेंडे में राष्ट्रीय चरित्र बनाने की बात नहीं है। इससे बड़ा लोकतंत्र का दुर्भाग्य क्या होगा? राष्ट्रीय चरित्र का दिन-प्रतिदिन नैतिक हृास हो रहा था। हर गलत-सही तरीके से राजनीतिक दल सब कुछ पा लेना चाहते थे। उन्होंने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कत्र्तव्य को गौण कर दिया है। इस तरह से जन्मे हर स्तर पर भ्रष्टाचार ने राष्ट्रीय जीवन में एक विकृति पैदा कर दी थी। देश में एक ओर गरीबी, बेरोजगारी और दुष्काल की समस्या है। दूसरी ओर अमीरी, विलासिता और अपव्यय है। देशवासी बहुत बड़ी विसंगति में जी रहे हैं। एक ही देश की धरती पर जीने वाले कुछ लोग पैसे को पानी की तरह बहाएँ और कुछ लोग भूखे पेट सोएं-इस असंतुलन की समस्या को नजरंदाज न कर इसका संयममूलक हल खोजना चाहिए। भारत के समक्ष चुनौतियां गंभीर है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी और सार्वजनिक सेवाओं के मोर्चे पर सरकारें एकदम नाकाम रही हैं। उच्च शिक्षा क्षेत्र इतना महंगा कर दिया गया है कि अब आम भारतीय परिवार बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने के बारे में सोच भी नहीं सकता। यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि आने वाले वक्त में भारत के गरीब तबके की तस्वीर कैसी होगी। यह सोच कर खुश हुआ जा सकता है कि हम दुनिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बनने की ओेर अग्रसर हैं, फ्रांस को पछाड़ चुके हैं और ब्रिटेन को पीछे छोड़ने वाले हैं, लेकिन इसके स्याह पहलू को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। समावेशी विकास हो या फिर मानव पूंजी सूचकांक, भारत अपने छोटे पड़ोसी देशों से भी पीछे है। दरअसल भारत अब अमीरों की मुट्ठी में है। नीतियां अमीरों के लिए ही बन रही हैं और इनका असर भी साफ नजर आ रहा है। कर्ज लेकर मौज करने वालों की संख्या में इजाफा भी अमीरों की संख्या को बढ़ाता है। ऐसे में गरीबों की तादाद तो बढ़ेगी ही, लेकिन उनकी संपत्ति और ताकत घटेगी। बढ़ती असमानता से उपजी चिंताओं के बीच देश में करोड़पतियों की तादाद का तेजी से बढ़ना खुश होने का नहीं, बल्कि गंभीर चिन्ता का विषय है। ऐसे गंभीर विषय क्यों नहीं राजनीति में चर्चा के विषय बनते? क्यों नहीं इन बुनियादी मुद्दों को चुनावी एजेंडा बनाया जाता? गरीबी अमीरी की बढ़ती खाई को पाटकर ही हम देश की अस्मिता एवं अखण्डता को बचा सकते हैं। क्यों नहीं गरीबी को समाप्त करने का मुद्दा वास्तविक अर्थों में चुनाव जीतने का हथियार बनता? सरकार संचालन में जो खुलापन व सहजता होनी चाहिए, वह गायब है। सहजता भी सहजता से नहीं आती। पारदर्शिता का दावा करने वाले सत्ता की कुर्सी पर बैठते ही चालबाजियों का पर्दा डाल लेते हैं। पर एक बात सदैव सत्य बनी हुई है कि कोई पाप, कोई जुर्म व कोई गलती छुपती नहीं। कुछ चीजों का नष्ट होना जरूरी था, अनेक चीजों को नष्ट होने से बचाने के लिए। जो नष्ट हो चुका वह कुछ कम नहीं, मगर जो नष्ट होने से बच गया वह उस बहुत से बहुत है। यह भी सच है कि इन 70 सालों में जहां हमने बहुत कुछ हासिल किया, वहीं हमारे संकल्पों में बहुत कुछ आज भी आधे-अधूरे सपनों की तरह हैं। भूख, गरीबी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, सांप्रदायिक वैमनस्य, कानून-व्यवस्था, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं जैसे तमाम क्षेत्र हैं जिनमें हम आज भी अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं कर पाए हैं। सिर्फ सरकार बदल देने से समस्यायें नहीं सिमटती। अराजकता एवं अस्थिरता मिटाने के लिये सक्षम नेतृत्व चाहिए। उसकी नीति और निर्णय में निजता से ज्यादा निष्ठा चाहिए। ऐसा होने से ही लोकतंत्र का आगामी महाकुंभ सार्थक हो सकेगा। प्रेषक

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