विजय कुमार,
कुछ दिन पूर्व कांग्रेस कार्यकारिणी को सम्बोधित करते हुए राहुल गांधी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि पहले आदिवासी लोग हमें वोट देते थे; पर संघ वाले उनके बीच जाकर काम करने लगे और अब वे हमें वोट नहीं देते। उनका यह भाषण यू-ट्यूब पर भी आ गया; पर इससे कांग्रेस को नुकसान होता देख थोड़ी देर बाद उसे हटा लिया गया। यद्यपि इस दौरान हजारों लोगों ने इसे देख लिया।
राहुल गांधी ने जिन्हें आदिवासी कहा, उन्हें सरकारी भाषा में अनुसूचित जनजाति कहते हैं। इनके बीच काम करने वाली संघप्रेरित संस्था का नाम ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ है। संघ आदिवासी की बजाय वनवासी शब्द प्रयोग करता है। तुलसी बाबा ने भी मानस में ‘बनचर’ शब्द का प्रयोग किया है –
राम सकल बनचर तब तोषे, कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे। (अयो. 137/1)
आइये, वनवासियों के बीच काम करने वाली संस्था के बारे में कुछ जानें। यदि संभव हो तो राहुल बाबा भी इसे पढ़ें। फिर वे खुद से पूछें कि कांग्रेस को इनके बीच काम करने को किसने मना किया है ? देश में 50-55 साल तो कांग्रेस का ही राज रहा। तब उन्होंने इस क्षेत्र को मिशनरियों के लिए खुला क्यों छोड़ दिया ? जिन गांधी जी का नाम अपने साथ लगाकर राहुल और उनकी मम्मी श्री दुनिया को धोखा दे रहे हैं, उन गांधी जी ने ‘भारतीय आदिम जाति सेवक संघ’ नामक स्वयंसेवी संस्था बनायी थी; पर उनके जाने के बाद यह संस्था पूरी तरह सरकारी होकर मृतप्रायः हो गयी।
संघ और कल्याण आश्रम के लोग निःस्वार्थ भाव से काम करते हैं। उनका उद्देश्य सेवा और वनवासियों का उत्थान है, राजनीतिक कुर्सी पाना नहीं। इसलिए संघ आगे बढ़ रहा है और कांग्रेस पीछे खिसक रही है। जितनी जल्दी राहुल बाबा इसे समझ लें, उनके और देश के लिए उतना ही अच्छा है।
वनवासी कल्याण आश्रम
भारत के वनवासी क्षेत्र में ईसाई गतिविधियां बहुत समय से चल रही हैं। अंग्रेजों का यहां आने का असली उद्देश्य देश का ईसाइकरण ही था। सत्ता हाथ में आने से मिशनरियों को खूब देशी और विदेशी सहायता मिली। उन्होंने वनों में रहने और प्रकृति की पूजा करने वाले निर्धन हिन्दुओं को ‘आदिवासी’ कहकर शेष हिन्दुओं से काटने का षड्यंत्र रचा। सेवा के नाम पर विद्यालय, छात्रावास, चिकित्सालय, कुष्ठ आश्रम, वृद्धाश्रम जैसे केन्द्रों का उन्होंने व्यापक तंत्र खड़ा किया। सरकार उनके साथ थी ही। अतः म.प्र., झारखंड, उड़ीसा के साथ ही पूर्वोत्तर भारत के जनजातीय समाज का बड़ी संख्या में धर्मान्तरण हुआ।
आजादी मिलने के बाद सरसंघचालक श्री गुरुजी एवं समाजसेवी ठक्कर बापा के आशीर्वाद से जसपुर में कार्यरत सरकारी वकील श्री बालासाहब देशपांडे ने नौकरी छोड़कर 26 दिसम्बर, 1952 को वर्तमान छत्तीसगढ़ के जसपुर नगर में इस संस्था की स्थापना की। जसपुर नरेश श्री विजय भूषण सिंह जूदेव प्रखर हिन्दू थे। वे अपने क्षेत्र में चल रही ईसाई गतिविधियों से बहुत दुखी थे। अतः उन्होंने भी बालासाहब देशपांडे की सहायता की।
प्रारम्भ में यह काम मुख्यतः म.प्र. तक ही सीमित था; पर आपातकाल के बाद इसे पूरे देश में फैला दिया गया। संस्था का ध्येयवाक्य है, “नगरवासी, ग्रामवासी, वनवासी, हम सब हैं भारतवासी।” कल्याण आश्रम की मान्यता है कि वनों और पर्वतों में रहने वाले लोग भी हिन्दू ही हैं। यद्यपि सड़कों से दूरी के कारण उनका समुचित विकास नहीं हुआ; पर इस कारण उन्हें शोषित और पीड़ित मानना ठीक नहीं है। अंग्रेजों ने षड्यंत्रपूर्वक उन्हें ‘आदिवासी’ कहा, जिससे शेष हिन्दुओं को कहीं बाहर से आया हुआ हमलावर कहा जा सके। भारत की एकता और अखंडता के लिए नगर, ग्राम और वनवासी समाज की दूरी कम होना जरूरी है। आश्रम द्वारा संचालित सभी सेवा प्रकल्पों का उद्देश्य भी यही है।
आश्रम के काम के चार आयाम (शिक्षा, चिकित्सा, उद्योग प्रशिक्षण तथा धर्म जागरण) हैं। कल्याण आश्रम द्वारा किये गये राष्ट्रीय महत्व के दो कामों का उल्लेख आवश्यक है। आजादी के बाद मध्य भारत के पहले मुख्यमंत्री श्री रविशंकर शुक्ल जब रायगढ़ के जनजातीय क्षेत्र में गये, तो मिशनरियों की शह पर उन्हें काले झंडे दिखाकर भारत विरोधी नारे लगाये गये। इस पर शुक्ल जी ने 1950 में नागपुर उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में ‘नियोगी आयोग’ बनाया। कल्याण आश्रम की तब तक स्थापना नहीं हुई थी; पर वहां कार्यरत संघ के कार्यकर्ताओं ने साहसपूर्वक इस आयोग के सम्मुख प्रामाणिक तथ्य प्रस्तुत किये। इससे मिशनरियों के षड्यंत्रों का भंडाफोड़ हो सका।
1989 में अंतरराष्ट्रीय श्रम आयोग (International Labour Organisation) का अधिवेशन जेनेवा में हुआ था। भारत के सबसे बड़े श्रम संगठन ‘भारतीय मजदूर संघ’ के पदाधिकारी भी वहां गये थे। वहां उन्होंने भारत और अन्य देशों के जनजातीय समाज का अंतर स्पष्ट किया। अन्य देशों पर यूरोपीय लोगों ने हमला किया और वहां के मूल जनजातीय समाज को गुलाम बना लिया; पर भारत में गुलाम प्रथा कभी नहीं रही। यहां का जनजातीय और शेष समाज सब यहीं के मूल नागरिक हैं।
श्रम आयोग का विचार था कि अब परिस्थिति बदली है। अतः जनजातीय लोगों के लिए स्वशासन (Autonomy) की जरूरत है। भा.म.संघ ने कहा कि भारत में इससे अलगाव बढ़ेगा। अतः यहां एकात्मता (Integration) की जरूरत है। भा.म.संघ ने यह भी कहा कि जनजातीय समाज की देखरेख की जिम्मेदारी शासन तथा स्वदेशी संस्थाओं की है, चर्च या अन्य किसी बाहरी संस्था की नहीं। भा.म.संघ को ये तथ्य कल्याण आश्रम ने ही उपलब्ध कराये थे।