सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से चर्च बेचैन क्यों?

हरिकृष्ण निगम

सर्वोच्च न्यायालय ने बजरंग दल से जुड़े दारा सिंह को आजीवन कारावास की उड़ीसा उच्च न्यायालय द्वारा दी गई सजा को बरकरार तो रखा, पर धर्मांतरण के मुद्दे पर जिस तरह न्यायालय ने प्रलोभन, दबावों व दुष्प्रचार की मिशनरियों की रणनीति को कटघरे में खड़ा किया है, उससे अनेक चर्च संप्रदाय बौखलाए से दिखते हैं। दारा सिंह जैसे व्यक्ति के 22 जनवरी, 1999 के उस निजी जघन्य की भर्त्सना यद्यपि तर्क संभव कभी भी, या कहीं भी स्वभाविक मानी जाएगी पर निर्वोध आदिवासियों की सेवा के नाम पर आस्था का बदलना स्वयं किसी मानवाधिकार उल्लंघन से कम नहीं है, यह न्यायाधीशों ने भी स्वीकार किया है। वेटिकन की धार्मिक श्रेष्ठता की ग्रंथि इस देश की पंथनिरपेक्षता के संवैधानिक प्रावधानों का फायदा उठाकर अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए एक निगमित बहुराष्ट्रीय कंपनी की तरह अरसे से लगी हुई है जो हमारे देश की गरीबी, विपन्नता और पिछड़ेपन का एक प्रकार से भयादोहन है।

भारत में सर्वोच्च न्यायालय के निण्रय से चर्च, आरोपी के कड़ी सजा अंतिम रूप से सुनाए जाने के बाद भी व्यक्ति और अप्रसन्न है। यह दिल्ली के क ैथोलिक चर्च के जनसंचार निदेशक फादर डोमिनिक इमैनुअल की हाल की प्रतिक्रिया से आज स्पष्ट है। इसका मुख्य कारण यह है कि न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम् और न्यायमूर्ति बी. एस. चौहान ने निर्णय में यह बात भी जोड़ी थी कि ग्राहन स्टेंस निर्धन आदिवासियों को ईसाई आस्था में धर्मांतरित करने की गतिविधियों में लगे हुए थे। उनके अनुसार इस बात में कोई शक नहीं है कि किसी के विश्वासों में बल पूर्वक उत्तेजना या प्रभाव द्वारा परिवर्तन लाना मात्र इसलिए भी अनुचित है यदि यह कहा जाए कि एक धर्म दूसरे धर्म से बेहतर है। यह व्यवस्थित समाज की जड़ पर आघात करता है यदि कोई कहे कि उसका धर्म श्रेष्ठतर है। यह संविधान निर्माताओं के उद्देश्यों के विरूध्द जो धार्मिक क्षेत्र में किसी एक धर्म की श्रेष्ठता ग्रंथि के विरूध्द थे।

फादर इमैनुअल सेवा के नाम पर मतांतरण को अपना अधिकार मानते हैं और जाति व्यवस्था के भेदभाव को बहाना बनाकर कहते हैं क्योंकि इस्कॉन और दूसरे अन्य हिंदू संगठन नियमित रूप में इस्लाम, यूरोप व अमेरिका में ईसाइयों के बीच हिंदू धर्म प्रचार क रते हैं और क्योंकि उनके इस कार्य में वहां जीवित नहीं जलाया जाता है इसलिए कदाचित उन्हें भी यहां अपनी मतांतरण गतिविधियां चलाने का अधिकार है। शायद पहली बार किसी केथोलिक फादर – डोमिनिक इमैंनुयल जिसे 2008 में राष्ट्रीय सांप्रदायिक समरसता पुरस्कार भी दिया गया था, इतनी बचकानी बात कर विश्व तर्कों में उलझते दिखते हैं। इन्हे इस बात का भी अत्यंत कष्ट हैकि हमारे सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय शायद साध्वी प्रज्ञा सिंह और स्वामी असीमानंद जैसे बम विस्फोटों में लिप्त लागों को कर्ण-प्रिय लग सकता है जो कथित मुस्लिम आतंकवादियों से बदला लेने की बात करते हैं क्योंकि ईसाईयों पर कर्नाटक और दूसरे स्थानों पर उनके अनुसार हमले नहीं रूक रहे हैं इसलिए वे इस बात का रोना रो रहे हैं कि सर्वोच्च न्यायालय की मतांतरण के विरूध्द टिप्पणी गलत संकेत दे सकती है।

फादर डोमिनिक इमैनुअल द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से यह मांग की गई है कि वह गंभीरता से सोचकर अपनी धर्मांतरण के विरूध्द की गई टिप्पणी को वापस ले। हर बार न्यायपालिका की दुहाई देने वाले मतांतरण में लगे हुए ईसाई धर्म के नेता, जो देश के संविधान की अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए दुहाई देते नहीं थकते हैं, आज सर्वोच्च न्यायालय के जजों की असुविधाजनक टिप्पणी पर हाहाकार करने में लगे हैं।

यदि हमें सत्य का ज्ञान होता, तो कदाचित हमारी सोच बदली हुई होती और न्यायालय की मिशनरियों के विरूध्द टिप्पणी का मर्म हम अधिक अच्छी तरह समझ लेते हैं। ईसाई धर्माध्यक्ष आज भी हिंदू आस्था को किस दृष्टि से देखते हैं यह हम उनके प्रचार माध्यमों और सेमिनारियों में पढ़ाए जाने वाले साहित्य में स्पष्ट पाये जा सकते हैं। विश्वविख्यात धर्म प्रचारक पैट राबर्टसन हाल तक कहते रहे कि हिंदू धर्म राक्षसी और नारकीय है। वाचटावर बाईबिल की कोई भी पुस्तक उठाइए जो आज भी मानती है कि हिंदूधर्म का जन्म बेबीलन में हुआ। अमेरिकी मीडिया चर्च के अन्य बड़े प्रचारकों के वक्तव्य को दोहराता रहा है कि हिंदू अमरनाथ यात्रा पर शिव के कामवासना के अंगों की पूजा के लिए जाते हैं, कोई महिना नहीं जब उनकी पत्र-पत्रिकाओं में हिंदू देवी-देवताओं के बारे में गंदी बातें नहीं छपती है। और वे हमेशा धन मांगते रहते हैं कि भारत के हिंदुओं को अंधकार से प्रकाश में लाने के लिए, सभ्य बनाने के लिए, उनकी जातिवादी भेदभाव मिटाने के लिए धन चाहिए। पश्चिमी देशों में लाखों-करोड़ों लोग आज भी हमारी आस्था के बारे में इन धारणाओं के साथ जीते हैं। साधारण सत्यों का अज्ञान हमारे लिए अभिशाप बन सकता है। ईसाई धर्मोंपदेशक हमारे धर्म निपरेक्ष संविधान का पूरा लाभ, मतांतरण के लिए उठाते हैं। यद्यपि वेटिकन के सर्वोच्च स्तर पर यही कहा जाता है कि ईसाइत के लिए आगे आनेवाले वर्षों में सर्वाधिक बड़ा खतरा यूरोप और अमेरिका के ‘सेक्यूलरिज्म’ की अवधारणा से है।

क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के दारा सिंह प्रकरण में दिए हुए निर्णय के साथ मतांतरण के विरूध्द एक स्पष्ट संकेत भी जुड़ा है इसिलिए धर्म-प्रचार से जुड़े विदेशी संगठन व मिशनरी इस अप्रिय सत्य को पचा नहीं पा रहे हैं।

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

1 COMMENT

  1. किसी भी तरह की अंध-आस्था गलत है और उसे फ़ैलाने वाला सभ्यता को एक कदम पीछे ले जाने वाला है…यह सभी धर्मों और धर्मावलम्बियों के साथ लागू होने वाला सत्य है….हिन्दू, मुस्लिम, इसाई, सिख, बौध सभी के साथ……….

    धर्म को आधार बनाकर लड़ाने और धमांतरण की चाल चलने वाले किसी भी धर्म के मतावलंबी क्या अपने इश्वर की सत्यता सिद्ध कर सकता हैं…..और यदि कोई है भी तो क्या उसकी संख्या और धर्माधार्रित पृथकता का प्रमाण दे सकते हैं……

    अरे भारत और विश्व के नागरिकों ”इस हमाम में सभी नंगे हैं” अपना नंगापन छिपाने के लिए सब धर्मों के अगुआ धर्मांतरण और पर-धर्म विरोध की गोटी चलते हैं

    ये उनके गरीबों का धंधा है भाई……… ”हे इश्वर, यदि तुम हो तो इनकी विद्वेश्कारी कुचालों के लिए इन्हें कभी माफ़ मत करना”

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