किसान आन्दोलन में हिंसा,दुष्कर्म और अराजकता क्यों

लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने,शन्ति पूर्ण ढंग से विरोध करने,असहमति प्रकट करने अथवा  आन्दोलन करने का अधिकार है | किन्तु प्रत्येक आन्दोलन का एक निश्चित उद्देश्य होता है | आन्दोलन के प्रणेता व्यक्ति या समूह आन्दोलन क्यों करना चाहते हैं ? कैसे करेंगे और कहाँ करेंगे इसकी पूर्व  अनुमति भी लेते हैं और समय-समय पर इसकी सूचना सरकार के साथ-साथ  जनता को भी देते हैं | किन्तु जब कोई  आन्दोलन किसी एक व्यक्ति या निर्धारित समूह  के अधिकार क्षेत्र से बाहर निकल जाता है तब वह आन्दोलन एक अनियंत्रित उपद्रवी भीड़ में परिवर्तित हो जाता है | चूँकि ऐसी भीड़ किसी भी मनमानी पर उतर सकती है इसलिए समझदार नेता ऐसी स्थिति निर्मित होने से पूर्व ही अपने अन्दोलन को समाप्त या स्थगित का देते हैं | महात्मा गांधी जी थोड़ी-सी हिंसा या अराजकता होते ही अपने आन्दोलन वापस ले लिया करते थे | तीन कृषि कानूनों के विरोध के नाम पर आरंभ हुआ कथित किसान आन्दोलन आरंभ से आज तक भटकता ही जा रहा है | अब इसका न कोई एक नेता बचा है और न ही कोई उपादेयता  |

विडंबना की बात तो यह है कि तीन कृषि कानूनों के विरोध में आरंभ हुआ किसान आन्दोलन अपने ही साथियों  द्वारा किये तीन अपराधों  से कलंकित होकर अपनी चमक और आकर्षण खो चुका है | इसका पहला अपराध है ट्रेक्टर रैली के नाम पर दिल्ली में भयंकर हिंसा और लाल किले का अपमान, दूसरा है आन्दोलन में शामिल होने आई पश्चिम बंगाल की एक बेटी के साथ बलात्कार और अब तीसरा कलंक है 34 वर्षीय दलित मजदूर लखबीर सिंह की तड़पा –तड़पा कर हत्या |  यद्यपि हत्यारों के समर्थक कह रहे हैं कि कोई भी गवाही नहीं देगा, आशा है न्यायालय हत्यारों को कठोर दंड अवश्य देगा ताकि भविष्य में इस प्रकार के कृत्य करने से पहले लोगों को सौ-सौ  बार सोचना पड़े | आज देश का आम आदमी यह सोचने पर विवश है कि जो लोग बहुत ही अराजक  और हिंसक हैं, जो भारत के संविधान को न मानने की बात कह रहे हैं उनके सहयोग से चलने वाला आन्दोलन  संवैधानिक और लोकतांत्रिक कैसे हो सकता है | क्या इस आन्दोलन के मुख्य रणनीतिकारों ने केवल अपनी राजनीति चमकाने के लिए देश की जनता के विश्वास को ठेस नहीं पहुँचाई है ?

     इन लोगों से कोई क्यों नहीं पूछता कि जब कृषि कानून स्थगित कर दिए गए हैं तब यह आन्दोलन किसके विरोध में है ? और यदि आन्दोलन कर ही रहे हो तो इन कार्यकर्ताओं के द्वारा किए जा रहे अपराधों का उत्तरदायित्व किसका है ? क्या कम्युनिस्ट अपने अस्तित्व को बचाने के लिए देश को किसी गृहयुद्ध में झोंक देना चाहते हैं? यदि उनकी मंशा ठीक होती तो कृषि कानूनों के स्थगित होते ही वे अपने कथित आन्दोलन को भी स्थगित कर देते | किन्तु इन लोगों का उद्देश्य कृषि कानूनों की आड़ में राजनीतिक जमीन तैयार करना ही था जो कि अब स्पष्ट दीखने लगा है | योगेन्द्र यादव को जब से आमआदमी पार्टी से अपमानित करके निकाला गया है तब से वे स्वयं को स्वतंत्र आन्दोलन चेता के रूप में स्थापित करने के लिए जुटे हैं | दिल्ली आन्दोलन से केजरीवाल को सत्ता मिली ठीक वैसे ही योगेन्द्र यादव इस आन्दोलन से चाहते थे | आन्दोलन को हाथों से निकलता और कलंकित होता  देख उन्होंने अपने निष्कासन  का नाटक भी करा लिया है | संभवतः इसीलिए वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं  किन्तु दिल्ली उपद्रव के बाद से ही उनकी असफलता द्रष्टिगोचर होने लगी है |  यदि दिल्ली हिंसा के बाद ही वे इस आन्दोलन को स्थगित कर देते तो इसका उन्हें बड़ा लाभ मिल सकता था किन्तु नृशंस हत्या,बलात्कार और भयानक अराजकता के बाद भी वे  इस उपद्रव को आन्दोलन कह कर इसका श्रेय लेने के लिए अड़े रहे और अभी भी अड़े हैं | अराजकता से आरंभ हुआ आन्दोलन अब अपने ही साथी  की हत्या और हत्यारों के समर्थकों द्वारा दी जा रही धमकियों तक उन्मादी हो गया है |  अब आन्दोलन के प्रमुख नेता धर्म संकट में फंस गए हैं कि उन्हें एक मृतक दलित-मजदूर का साथ देना चाहिए या हत्यारों के समर्थकों का जो इस आरम्भ से ही इस आन्दोलन में जनबल और धनबल के साथ खड़े हैं | मेरे विचार से इस कथित आन्दोलन को यदि शीघ्र ही विसर्जित नहीं किया गया तो यह किसी और बड़ी घटना को जन्म दे सकता है |

  अब जबकि देश के अधिकांश किसान संगठनों ने स्वयं को इस आन्दोलन से दूर कर लिया है और अब आम जनता भी इसके हिंसक चरित्र को पसंद नहीं कर रही, भाजपा सरकार के धुर विरोधी भी विरोध के लिए अन्य ज्वलंत मुद्दों को उठाने की बात कह रहे हैं तब भी टिकैत क्यों टिके हुए हैं ? क्या राकेश टिकैत को उत्तर प्रदेश चुनाव में राजनीतिक लाभ मिलेगा ? पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इस आन्दोलन को खड़ा करने में पूरी शक्ति लगा दी थी किन्तु आज उनके हिस्से में निराशा ही है | जो लोग इस आन्दोलन का राजनीतिक लाभ लेने की सोच रहे हैं उन्हें इस बारे में पुनः विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि अब यह आन्दोलन पूर्णरूपेण राजनीतिक हो चुका है |

देश के लिए चिंता की बात यह है कि चौरासी के सिक्ख दंगों के बाद बड़ी मुश्किल से सिक्ख और हिन्दुओं में समरसता का वातावरण निर्मित हो पाया है | ऐसा लगता है कि किसान आन्दोलन की आड़ में कम्युनिस्ट नेता खालिस्तानियों के उपद्रव के लिए भूमि तैयार करने और आम सिक्खों को उकसाने में लगे हैं | सिक्ख बंधुओं को भी इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि एक किसान के रूप में उनका आन्दोलन  अहिंसक,गैर राजनीतिक और संविधान सम्मत होने पर ही स्वीकार किया जा सकता है | लोकतंत्र में किसी भी हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है फिर चाहे वह धर्म के नाम पर हो या आन्दोलन के नाम पर  |

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