ईश्वर है तो दिखाई क्यों नहीं देता?

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मनमोहन कुमार आर्य

                हम मनुष्य है और हमारा जन्म हुआ है। मनुष्य की आयु पर विचार करें तो यह अनिश्चित होती है। कुछ ऐसे बच्चे होते तो जन्म लेते ही व गर्भ में ही मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं और कुछ जन्म के बाद के वर्षों में किसी रोग व अज्ञात कारणों से मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। सामान्यतः मनुष्य की मृत्यु 60 वर्ष व उसके कुछ वर्ष बाद होती है। बहुत से लोग सौभाग्यशाली होते हैं जो 60 व 100 के बीच स्वस्थ रहते हुए सामान्य रूप से मृत्यु का शिकार होते है। प्रत्येक व्यक्ति यही कल्पना करता है, परन्तु सबको यह सुख व सुखद मृत्यु प्राप्त नहीं होती है। हमारे संसार में आने से पहले से यह सारा संसार बना हुआ है। हमारे माता-पिता हमें जन्म देने के बाद हमारा पालन-पोषण व शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध करते हैं। जब हम किशोर व युवावस्था में पहुंचते हैं तो हम कुछ-कुछ व पूर्ण स्वावलम्बी हो जाते हैं। संसार व माता-पिता को देखकर हमारे मन में कुछ स्वाभाविक प्रश्न भी उत्पन्न होते हैं। यह संसार कब व कैसे बना? इसको बनाने का प्रयोजन क्या है? क्या इस संसार में ऐसी कोई ज्ञान व शक्तिशाली सत्ता है जिसने इस संसार को बनाया है? मनुष्य आदि जो प्राणी हमें दिखाई देते हैं इनका शरीर जड़ होता है तथा इनके भीतर चेतन आत्मा निवास करता है जिसका अनुभव शरीर की क्रियाओं से होता है। मनुष्य के जन्म व स्थिति का कारण क्या है? मनुष्य व अन्य प्राणियों में जो चेतन आत्मा, तत्व, पदार्थ व सत्ता है, क्या वह नाशवान है या अविनाशी है? उसकी उत्पत्ति कब व कैसे होती है अथवा वह अनादि व अनन्त एवं अमर है? हम इन प्रश्नों पर विचार करते हैं तो इसका निश्चयात्मक उत्तर हमें नहीं मिलता। हमारे माता-पिता तथा ज्ञानी व विज्ञान जानने वाले लोग भी ऐसे प्रश्नों पर प्रायः मौन होते हैं या फिर वह जो उत्तर देते हैं वह सन्तोष उत्पन्न करने वाला नहीं होता। अतः हमें वेद व प्राचीन ऋषियों के ग्रन्थों सहित महर्षि दयानन्द सरस्वती के ‘‘सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थ की सहायता लेनी पड़ती जिससे हमारा व किसी भी मनुष्य का भी पूर्ण समाधान हो जाता है।

                हम संसार में ईश्वर की अनेक प्रकार की चर्चायें सुनते हैं। ईसाई ईश्वर के बारे में कुछ कहते तो मुसलमानों के विद्वान कुछ। पौराणिक ग्रन्थों में ईश्वर का स्वरूप कुछ अन्य प्रकार से ही वर्णित है। वहां अवतारवाद की चर्चा है जिनमें परस्पर अनेक विरोधाभास हैं। इन सब में ईश्वर विषयक जो उत्तर व समाधान मिलते हैं उन्हें यदि तर्क बुद्धि से तोला जाये तो ईश्वर का निश्चयात्मक ज्ञान नहीं होता। इसके लिये वेद अथवा इसके व्याख्या ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की शरण लेनी पड़ती है। सत्यार्थप्रकाश के प्रथम एवं सातवां समुल्लास में ईश्वर की चर्चा पढ़ने को मिलती है। सत्यार्थप्रकाश से ज्ञात होता है कि इस संसार को बनाने चलाने वाली तथा अवधि पूर्ण होने पर इसकी प्रलय वा नाश करने वाली एक सत्ता है जिसे ईश्वर कहते है। सभी धार्मिक माने जाने वाले समुदाय व मत ईश्वर के अस्तित्व को मानते हैं परन्तु कुछ वामपन्थी कहे जाने वाले नास्तिक लोग भी हैं जो ईश्वर को नहीं मानते और न जानने का प्रयत्न ही करते हैं। जो मनुष्य व समुदाय किसी विषय को न माने और न उसे जानने का प्रयत्न करे, उसे सत्य बात समझाना भी असम्भव होता है। वेद और सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर की विस्तार से चर्चा की गई है और इसका अध्ययन करने पर ईश्वर का सत्य यथार्थ स्वरूप हमें प्राप्त हो जाता है। हमारा सौभाग्य है कि हम आर्यावर्त्त भारत में जन्में हैं जहां सृष्टि के आरम्भ में अब से 1.96 अरब वर्ष पूर्व परमात्मा से चार ऋषियों को चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान प्राप्त हुआ था। वेद क्या हैं? इसका सर्वाधिक युक्ति संगत उत्तर महर्षि दयानन्द सरस्वती ने यह कह कर दिया है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है संसार के लोगों के सामने ऋषि दयानन्द जी की यह चुनौती है कि वह वेदों का अध्ययन करें और स्वयं इस तथ्य को जानें कि वेद एक, दो व तीन नहीं अपितु सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं।

                संसार में दो प्रकार के ही पदार्थ हैं। एक चेतन व दूसरे जड़ या निर्जीव पदार्थ। चेतन पदार्थों में ईश्वर व जीवात्मा आते हैं और जड़ पदार्थ में सृष्टि का उपादान कारण मूल प्रकृति आता है। सब जड़ पदार्थ मूल प्रकृति का ही विकार हैं। मूल प्रकृति सत्व, रज व तम गुणों वाली है। इसकी साम्यावस्था ही प्रकृति कहलाती है। रचना के लिये कार्य के परिमाण के अनुरूप ज्ञान व सामर्थ्य की आवश्यकता होती है। ज्ञान चेतन में ही होता है, जड़ पदार्थों में नहीं। अब यदि यह सृष्टि निर्भ्रान्त रूप से हमें दिखाई दे रही है तो निश्चय ही इसका कर्ता व उत्पत्तिकर्ता होना अवश्य है। इस दृश्यमान सृष्टि का रचयिता ईश्वर चेतन है और वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वार्न्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, जीवों के पूर्व जन्मों के कर्मानुरूप उन्हें विभिन्न योनियों में जन्म देकर न्याय करने वाला, सृष्टि का रक्षक, पालक और सृष्टिकर्ता है। ईश्वर का यह स्वरूप वेदों के मन्त्रों में पाया जाता है। ईश्वर के इन गुणों का साक्षात्कार हम सृष्टि में कर सकते हैं। सच्चिदानन्द का अर्थ है कि ईश्वर सत्तावान, चेतन व आनन्दस्वरूप है। संसार की सत्ता को देखकर इसको बनाने वाले चेतन पदार्थ जो ज्ञान व शक्ति से युक्त है, उस ईश्वर का बोध व ज्ञान हम अल्पज्ञ जीवात्माओं वा मनुष्यों को होता है। यदि कोई इस बात को न माने तो उसका कर्तव्य है कि वह बताये कि इस जड़ प्रकृति जो परमाणु व सूक्ष्म कणों के रूप में है, उसको किसने, कब व कैसे पृथिवी, अग्नि, वायु, जल, चन्द्र, सूर्य, सौर्यमण्डल व इसके ग्रहों-उपग्रहों तथा इस अखिल ब्रह्माण्ड के रूप में परिवर्तित किया? कोई मनुष्य इसका सत्य व यथार्थ उत्तर नहीं दे सकता। इसका सत्य उत्तर यही है कि सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर से ही इस सृष्टि की रचना हुई है और वही इसका पालन कर रहा है।

                ईश्वर आनन्दस्वरूप है। इसका प्रमाण यह है कि यदि वह आनन्दस्वरूप न होता तो वह सुख-दुःखस्वरूप होता। दुःखी व्यक्ति रोगी होता है। उसमें उत्साह व पुरुषार्थ करने की भावना व शक्ति सुखी व पूर्ण आनन्दयुक्त पुरुष से न्यून होती है। ऐसा व्यक्ति सृष्टि व ब्रह्माण्ड की रचना तो क्या छोटे से छोटा काम भी कठिनाई से कर पाता है। अतः इस असीम ब्रह्माण्ड को बनाने व इसका पालन करने वाली सत्ता का आनन्दस्वरूप होना अत्यावश्यक एवं अनिवार्य है। ईश्वर निराकार है का तात्पर्य है कि उसका मनुष्य आदि व जड़ पदार्थों के अनुरूप आकार नहीं है। आकार वाली वस्तुयें सीमित होती हैं। ब्रह्माण्ड अनन्त है अतः इसका उत्पत्तिकर्ता भी अनन्त ही हो सकता है। निराकारस्वरूप वाला ईश्वर ही ब्रह्माण्ड को बना सकता है। अनेक मत ऐसे हैं जो ईश्वर को एकदेशी व आसमान में किसी स्थान विशेष पर रहने वाला बताते हैं। यह बात तर्क व युक्ति से असत्य सिद्ध होती है। ईश्वर आसमान में भी है और पृथिवी तथा इसके कण-कण के अन्दर व्यापक है। माता के गर्भ में शिशु का निर्माण होता है। इसका अर्थ होता है कि ईश्वर बाहर-भीतर एवं माता के गर्भ में भी समान रूप से विद्यमान है। किसान खेती करता है और बीज बोता है। इससे अन्न उत्पन्न होता है। अन्न बनाने की इस प्रक्रिया को ईश्वर पूरा करता है। किसान तो केवल बीज बोता, सिंचाई करता व खेत की निराई व गुडाई ही करता है। अन्य सब काम वर्षा करना, बीज बोना, बीज का अंकुरित होकर अन्न से संयुक्त होना व पकना, यह सब काम ईश्वर व उसकी व्यवस्था से होते हैं। ईश्वर के जो गुण बतायें गयें हैं वह सब ईश्वर में घटते हैं जिन्हें तर्क व युक्तियों से सिद्ध किया जा सकता है। इसके लिये ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये जिससे सभी शंकाओं का निर्मूलन हो जाता है। जो चीज तर्क से सिद्ध हो जाती है वह सत्य कहलाती है। अतः तर्क से सिद्ध ईश्वर निश्चय ही अस्तित्ववान है। अब वह दिखाई क्यों नहीं देता इस पर विचार करते हैं।

                ईश्वर संसार की सूक्ष्मतम सत्ता है। वह वायु, जल, अग्नि एवं पृथिवी आदि के परमाणु से भी सूक्ष्म है। जब हम किसी तत्व वा पदार्थ का एक परमाणु भी आंखों से नहीं देख सकते तो उनसे भी सूक्ष्म परमात्मा का दिखाई देना कोई आश्चर्य की बात नहीं है? हमारा शरीर जड़ है। इसमें हमारी आत्मा निवास करती है जो कि हम स्वयं हैं। यह आत्मा चेतन, अल्प ज्ञानवान अर्थात् अल्पज्ञ, कर्म करने की सामर्थ्य से युक्त, सूक्ष्म, निराकार (आकार रहित), अनादि, अमर, अविनाशी, एकदेशी, समीम, जन्म-मरण धर्मा, पाप-पुण्य रूपी कर्म के फलों के बन्धनों में बंधा हुआ, सद्कर्मों से मोक्ष को प्राप्त होने है। यह आत्मा का स्वरूप है। क्या कोई मनुष्य अपनी व दूसरों की आत्मा को देख पाता है? इसका उत्तर है नहीं। हम अपने व दूसरों के शरीरों को देखकर ही उनमें आत्मा होने का प्रत्यक्ष अनुमान करते हैं। आत्मा निकल जाये तो मनुष्य मृतक कहा जाता है। शरीर की सभी क्रियायें बन्द हो जाती हैं। अतः आत्मा का अस्तित्व है और हम उसे देखने पर भी मानते अवश्य हैं। ईश्वर आत्मा से भी सूक्ष्म, निराकार सर्वव्यापक है, अतः उसका दिखाई देना इसी कारण से है। मनुष्य बहुत सूक्ष्म व बहुत दूर की वस्तु को भी नहीं देख पाते। आंखों में पड़ा तिनका दिखाई नहीं देता। ईश्वर हमारी आत्मा के भीतर, बाहर व अनन्त सीमा तक फैला हुआ व विद्यमान है। इस कारण भी हम उसे नहीं देख पाते। ईश्वर का प्रत्यक्ष हमारी आत्मा में ईश्वर की प्रेरणा से होता है। जब मनुष्य कोई पुण्य या शुभ काम करता है तो उसकी आत्मा में आनन्द, निःशंकता, निर्भयता व उत्साह उत्पन्न होता है और जब चोरी, जारी आदि बुरा काम करने लगता है तो उसे भय, शंका व लज्जा की अनुभूति होती है। मनुष्य की आत्मा में यह दो विपरीत प्रकार की प्रेरणायें व अनुभूतियां कौन कर व करा रहा है? यह ईश्वर ही करता है और यही ईश्वर का प्रत्यक्ष है। फूल में सुगन्ध होती है परन्तु दिखाई नहीं देती। नासिका से उस सुगन्ध का ग्रहण होता है और इसी को सुगन्ध का प्रत्यक्ष कहा जाता है। हम रसगुल्ला पसन्द करते हैं। हमें आकार वाले जड़ पदार्थ के दर्शन होते हैं। जबकि रसगुल्ला उसका विशेष प्रकार का एक स्वाद होता है जो उसे खाकर अनुभव होता है। वह स्वाद रसगुल्ले का गुण होता है। उसे आंखों से नहीं देखा जाता अपितु वह जिह्वा से अनुभव होता है। इसका तात्पर्य है हम गुणी का नहीं गुणों से, अर्थात् आकर व स्वाद आदि से, गुणी रसगुल्ला का साक्षात करते हैं। इस दृश्यमान जगत में मनुष्य, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु आदि में जो रचना-विशेष-गुण हं,ै उनसे ही ईश्वर का साक्षात करता है। यह सृष्टि वा ब्रह्माण्ड ईश्वर की की विशिष्टि कृति है और इसमें विद्यमान गुण विशेषों से ही ईश्वर को देखा जाता है व वह दिखाई देता है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य

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