गुलाम अली साहब की एक गजल है,जो अलग सुबह ही अखबार पढ़ते वक्त मुझे याद आ गयी,जो काबिलेगौर है ।
हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है,
डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है ।
अपने अर्थों में बेहद स्पष्ट ये गजल आज के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर पूरी तरह खरी उतरती है । स्मरण रहे कि हमारी राजनीति भी इन दिनों कुछ ऐसे ही हंगामों की मूक गवाह बन कर रह गयी है । इस हंगामे के मूल में हैं देश के न्यायालयों के कुछ निर्णय । वो निर्णय जो जनहित और राजनीति की शुचिता को देखते हुए अत्य आवश्यक हैं । बावजूद इसके इन निर्णयों का विरोध ये साबित अवश्य करता है कि दाल में कहीं न कहीं कुछ काला अवश्य है । जहां तक इस कालिख का प्रश्न है तो आप हम सभी इस कालिख से पूर्णतया परिचित हैं । ये कालिख है सत्ता में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं अनाचार कई मामलों में न्यायालय द्वारा प्रदत्त समानता के अधिकारों का अतिक्रमण । वाकई राजनीति के इसी दोहरे चरित्र ने देश को पतन के मुहाने पर ला खड़ा किया है । ऐसे में न्यायालय की ये भूमिका होती है वो देश को सही रास्ते की ओर जाने का निर्देश प्रदान करे । ज्ञात हो कि मर्यादा संक्षरण के इस दौर में जब समस्त संवैधानिक संस्थाएं अपनी मर्यादाएं खोती जा रही हैं,न्यायालय आज भी अपना अस्तित्व बचाये है । वैसे भी मानवीय सभ्यता के उद्गम की प्रथम आवश्यकता है एक समान न्याय पद्धति । कहने का अर्थ है न्याय की दृष्टि से प्रत्येक आम और विशिष्ट एक समान होने चाहीए अन्यथा न्याय अपनी प्रासंगिकता खो बैठेगा । इस प्रासंगिकता को बनाये रखने के लिए न्यायाधीशों की शुचिता जितनी आवश्यक है उतनी ही आवश्यकता है न्यायालय द्वारा किया गये निर्णयों के सम्मान की । किंतु दुर्भाग्यवश ऐसा होता नहीं है ।
जहां तक प्रश्न है न्यायालय के निर्णयों का जिनके विरोध में सियासी भूचाल आ रहा है,वो निर्णय राष्ट्र उन्नयन एवं राजनीति के उत्थान के लिए बेहद आवश्यक हैं । स्मरण रहे कि कुछ दिनों पूर्व इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों की जाति आधारित रैली पर रोक लगायी थी । निष्पक्ष नजरीये से देखें तो न्यायालय का ये निर्णय बेहद प्रशंसनीय है । जाति आधारित राजनीति के दुष्परिणामों से आज पूरा देश परिचित है,विशेषकर उत्तर प्रदेश। वोटबैंक की सियासत ने आज कई छुटभैयों को राजनीतिक मोलभाव की खुली छूट प्रदान कर दी है । सपा-बसपा के वोटबैंक की राजनीति एवं शासन के दोहरे मापदंडों से इस बात को बखूबी समझा जा सकता है । न्यायालय के इस निर्णय पर ऐतराज जताने वाली बसपा सुप्रीमो की विशेष योग्यता एवं शासन पद्धति से आज हम सभी परिचित हैं । बात चाहे भ्रष्टाचार की हो निरंकुश शासन की हो मायावती ने अपने शासन काल में सारे पूर्व कीर्तिमानों को ध्वस्त कर दिया था । उनके शासन के ये दाग आज भी उभर कर सामने आ रहे हैं । हां इस बीच यदि किसी का नुकसान हुआ तो वो थे आम जन । वो आम जन जिनके विकास के लिए प्राप्त धन का दुरूपयोग घोटालों एवं मायावती की मूर्तियों के निर्माण में हुआ । ऐसा ही कुछ काम सपा सरकार भी कर रही है जिनमें कब्रिस्तानों के लिए धन,रोजगार के स्थान पर लॉलीपाप थमाना या शहादत जैसे बलिदान को भ्रष्ट राजनीतिक मापदंडों पर कलंकित करना । सोचिये यदि न्यायालय के इंगित दिशा-निर्देर्शों के अनुसार राजनीति से वोटबैंक के कुत्सित संबंधों का समूल नाश हो जाए तो कहां से मोलभाव करेंगे ये तथाकथित राजनेता। इस आधार पर देखें तो न्यायालय का निर्णय वाकई स्वागत योग्य है । राजनीतिक पार्टियों को इस निर्णय के विरोध के बजाय इसका स्वागत करना चाहीए था । बहरहाल जो भी हो न्यायालय ने अपना काम करके अपनी मंशा जाहिर कर दी है ।
जहां तक प्रश्न दूसरे निर्णय का तो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लिया गया निर्णय कई मायनों में ऐतिहासिक कदम है । किंतु दुर्भाग्य वश ये निर्णय भी सियासत का शिकार बन गया । अपने इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने अदालत द्वारा सजायफ्ता अपराधियों के संसद में प्रवेश पर रोक का प्रावधान किया था । अपने तर्क में न्यायालय ने ये स्पष्ट किया था कि यदि सजा प्राप्त कोई आम आदमी अपने कई मूल अधिकारों से वंचित किया जा सकता है तो राजनेताओं के मामलों में दोहरा मापदंड क्यों अपनाया जाता है ? क्या ये संविधान की मूल भावना का अपमान नहीं है ? क्या ये देश के आमजन के साथ अन्याय नहीं है ? हैरत की बात है जिस अपराध के आधार पर आम आदमी को उसके मूल अधिकारों से वंचित किया जाता है,उसी अपराध के आधार पर भ्रष्ट नेताओं की संसद में भागीदारी पर रोक क्यों नहीं लगायी जा सकती ? इन संदर्भों को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय ऐतिहासिक एवं अतुल्य कहा जा सकता है । बात को यदि दूसरे नजरीये से देखें तो यूं भी लगभग प्रत्येक दल राजनीति में दागियों की भागीदारी का रोना रोते देखा सकता है । अब जब न्यायालय ने इस मुद्दे पर कड़े फैसलों की पैरोकारी की तो ये बेवजह विरोध क्या प्रदर्शित करता है ? या दूसरे शब्दों में विकृत राजनीति का रोना रोने वालों को अब दाग अच्छे क्यों लगने लगे ? आप ही सोचीये राजनीतिक दलों का ये दोहरा चरित्र क्या प्रदर्शित करता है ?
अभी कुछ दिनों पूर्व समाचार पत्रों में प्रकाशित एक खबर के अनुसार चीन के रेल मंत्री की भ्रष्टाचार में संलिप्तता पाए जाने के बाद न्यायालय ने उनके लिए मौत की सजा का प्रावधान किया था । बेहद चर्चित इस खबर ने राष्ट्र में न्यायालय के स्थान का बेहद सुंदर चित्रण किया था । वास्तव में न्याय की कुर्सी पर बैठे न्यायाधीशों को ऐसे विकृत मानसिकता वाले अयोग्य नेताओं के विरूद्ध कठोर कठोर से दंड देने का अधिकार मिलना ही चाहीए । ये दंड आने वाले नेताओं के लिए एक नसीहत होंगे । इस प्रक्रम में जहां तक भारत का प्रश्न है तो न्यायालय की विवशता को हम बखूबी समझ सकते हैं । बात चाहे राष्ट्रमंडल खेलों की हो या कोल गेट कांड की ,ट्राटा ट्रक कांड हो या हालिया पूर्व रेलमंत्री पवन बंसल को सरकारी गवाह बनाने का प्रकरण हो न्याय के दोहरे मापदंड स्पष्ट दिख रहे हैं । इस विषय में सबसे दुर्भाग्य जनक बयान दिया प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष मार्कंडे काटजू ने । ज्ञात हो कि अपने विवादास्पद बयानों एवं मीडिया पर कठोर टिप्पणियों के लिए चर्चित काटजू साहब पूर्व में स्वयं भी न्यायाधीश रह चुके हैं ।अपने इस बयान में उन्होने सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को विधायिका के काम में दखल देना बताया है । स्मरण रहे कि ये वही काटजू साहब हैं जो संजय दत्त की सजा के वक्त खुलकर सजा के विरोध में आ खड़े हुए थे । उनका ये दोहरा बर्ताव क्या प्रदर्शित करता है ? संजय दत्त प्रकरण में सबसे हास्यापद तर्क तो ये थे जिनमें उन्होने संजय दत्त को एक सम्मानित परिवार का होने के कारण सजा में नरमी की मांग की थी,और भी कई तर्क थे जो आप हम सभी जानते हैं । बहरहाल काटजू साहब के आधार पर यदि न्यायाधीशों का आकलन करें तो सभी जांच कमेटियां जिनकी अध्यक्षता पूर्व न्यायाधीश कर रहे हैं व्यर्थ ही नजर आएंगी । इस बात को हम जांच एजेंसी पर व्यय एवं उसके परिणामों से भी समझ सकते हैं । अंत में न्यायालय के प्रशंसनीय निर्णयों पर सियासत को निंदनीय ही कहा जाएगा । अपराध-अपराध ही होते हैं चाहे वो नेता,न्यायाधीश करें या आम आदमी करे । न्याय की दृष्टि से सभी के लिए एकसमान सजा का प्रावधान होना चाहीए ,ये न्यायसम्मत भी है और तर्कसम्मत । अंत में यक्ष प्रश्न और बात खत्म –
हंगामा हैं क्यों बरपा ?