संतुलित विकास से सुखी बनेगा जीवन

राजीव मिश्र

पृथ्वी का तीन भाग जल से आच्छादित है एवं एक भाग सूखा है। इस सूखे भाग पर भी जलाशय है, नदियां हैं तथा वर्फ से आच्छादित पर्वत शृंखलाएं हैं। जंगल हैं जिनमें अनेक प्रकार के पेड़-पौधे, लताएं, घास, फल, फूल इत्यादि हैं। भारत के क्षेत्रफल के अनुरूप एक तृतीय भाग जंगलों से आच्छादित होना चाहिए। शेष जमीन पर खेती हो सकती है। पेड़ों के लगातार काटने के तथा जंगलों के कम होने से पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है। बरसात कम या अधिक होकर सुखा क्षेत्र या जलाशय क्षेत्र बन रहे हैं।

भारत नदियों एवं पहाड़ों की भूमि हैं। इसके लगभग 329 मिलियन हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्रों में सैकड़ों बड़ी एवं छोटी नदियां गुजरती हैं। इन नदियों का भारतीय संस्कृति एवं भारतीय धर्म से सतत् संबंध प्राचीन काल से हीं रहा है। पवित्र नदी गंगा को तो मोक्षदायिनी तक कहा गया है। इसी प्रकार कृष्णा, कावेरी, गोदावरी आदि नदियों का भी प्रातः स्मरणीय श्लोकों में उल्लेख है।

प्राचीन काल में भारतीय जल प्रबंधन एवं संरक्षण, जल की गुणवत्ता एवं भूगर्भ स्थिति जल दोहन तकनीकों से भलिभांति परिचित थे। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में उल्लिखित तालाब, बांध, कुंड बनाने की विधियां इस बात की सूचक है कि प्राचीन काल से ही जल विज्ञान में समृद्ध रहा है।

भारतीय ॠषि, मुनि जल विज्ञान के विभिन्न जटिल पहलुओं से परिचित थे। वैदिक काल में जल चक्र के ज्ञान का उल्लेख मिलता है। वनस्पतियों द्वारा जल ग्रहण, सूर्य एवं वायु के द्वारा जल का वाष्पीकरण, विभिन्न प्रकार के मेघों, इनकी ऊंचाई, आकार एवं रंग भेद के अनुसार इनकी वर्षा करने की क्षमता इत्यादि विषयों का उल्लेख ‘पुराणों’, ‘वराहसंहिता’, ‘मेघमाला’ एवं अन्य ग्रंथों से प्राप्त होता है। कौटिल्य रचित ‘अर्थशास्त्र’ में, जिसकी रचना ई. पू. चौथी शताब्दि में की गई है एवं पाणिनी कृत ‘अष्टाध्यायी’ जो ई. पू. सातवीं शताब्दि में रची गई है, वर्षा मापने के यंत्र का उल्लेख प्राप्त होता है। यहां तक कि कौटिल्य के पास भारत के विभिन्न भागों में होने वाली वर्षा की मात्रा की जानकारी भी थी। ‘वृहदसंहिता’ में जल विज्ञान संबंधी विभिन्न विषयों जैसे भू-संरचना, भूमि में जल का अवशोषण, कुंओं को बनाने की विधि, जल द्वारा भूमि कटाव एवं उसे रोकने के उपाय पर चर्चा हुई है।

भारतीय दर्शन के अनुसार वृष्टि का जनक सूर्य है। सूर्य की ऊर्जा से हीं वाष्प बनती है तथा पृथ्वी गर्म होकर कम दबाव का क्षेत्र बनाती है जिससे वाष्प मुक्त वायु समुद्र से पृथ्वी की ओर बहती है। इसी प्रकार चन्द्रमा के आकर्षण से ज्वार भाटा का निर्माण होता है। इसी प्रकार सूर्य मंडल के अन्य ग्रह बुद्ध, शुक्र, मंगल, शनि, बृहस्पति इत्यादि भी अपनी-अपनी गति तथा स्थिति के अनुरूप पृथ्वी पर होने वाली बरसात पर प्रभाव डालते हैं। इसलिए भारतीय गणितज्ञों ने फलित ज्योतिष के आधार पर बरसात के पूर्वानुमान की पद्धति विकसित की जिसका विस्तृत उल्लेख वराह मिहिर रचित ‘वृहतसंहिता’ में है। अनेक कीट, पक्षी तथा जानवर भी बरसात का पूर्वानुमान लगाकर अपना व्यवहार बदल लेते हैं। इसी प्रकार कुछ पेड़-पौधों में भी पहले से ही परिवर्तन होने लगते हैं जिनका यदि निरीक्षण किया जाए तो बरसात का पूर्वानुमान हो सकता है। यह अनुमान कहावतों एवं लोकोक्तियों के रूप में प्रसिद्ध है। इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध महाराष्ट्र में सहदेव भाडली, गुजरात में मडली वाक्यों, उत्तर प्रदेश में घाघ मड्डरी इत्यादि है।

भारत विविधता में एकता के लिए जाना जाता है। मानसून की वर्षा में भी ऐसी ही विविधता देखने को मिलती है। जहां एक ओर पश्चिमी तट एवं पूर्वोत्तर राज्यों में 200 से 1000 से.मी. की मानसूनी वर्षा होती है वहीं दूसरी ओर पश्चिमी राजस्थान तथा तमिलनाडु के कुछ क्षेत्रों में यह केवल 10-15 से.मी. तक ही होती है। इसे मानसून की विविधता नहीं तो क्या कहेंगे कि केरल में मानसून लगभग 7 महीने रहता है, वहीं पश्चिमी राजस्थान के कुछ भागों में केवल 45 दिनों के लिए आता है।

शायद यही कारण है कि मानसून का उल्लेख भारतीय पौराणिक ग्रंथों एवं कथाओं में काफी मात्रा में हुआ है। इन ग्रंथों में मानसून को समृध्दि का सूचक माना गया है। भारतीय संगीत, वेश-भूषा, मकानों की बनावट तथा खान-पान वगैरह पर भी मानसून की छाप देखी जाती है।

पृथ्वी पर उपलब्ध जंगलों, पेड़-पौधे, वन्यजीव, जलाशय, नदियां तथा उनमें उपलब्ध प्राणी यह सभी पर्यावरण का आवश्यक भाग है। यदि हम पृथ्वी को माता मान कर उसका दोहन करें तो हमारी सारी आवश्यकताएं पूरी करने की उसमें क्षमता है। परंतु यदि हम पृथ्वी का शोषण करेंगे तो प्रकृति का तो नाश होगा ही साथ हीं साथ हमारा भी नाश हो जाएगा। इसलिए जीवन के चक्र को समझते हुए हम संतुलित विकास की नीति अपनाएं तो जीवन सुखी तथा समृद्ध बनेगा।

* लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

1 COMMENT

  1. महाराष्ट्र के सहदेव भाडली हो ,गुजरात के भडली बिहार के डाक भडरी या राज स्थान के डंक भड्डली या यू पी के घाध भडुरी सभी ने कृषि और मौसम विषयक कहावतें कही।ये सभी प्राचीन मौसम और कृषि के पंडित ऋषि भड्डर और ऋयि डंक के वंशज थे जिन्होंने अपने पूर्वजो के ज्ञान को लोक भाषा में प्रस्तुत किया उसमें अपना अनुभव भी जोड़ा उनकी बात उनके नाम से और अपनी बात अपने नाम से कही ।ये असुर अनार्य किसानों के पुरोहित थे ।इन्ही की जाति के घुमंतू जोतसी भडुरी डाकोत लोक पुरोहितों ने इन कहावतों का न केवल प्रचार किया उसे अपनी जीविका का आधार बनामा और कृषक समाज का मार्ग दर्शन किया ।

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