हर सांस के साथ तुम हो !

पंडित विनय कुमार

हर सांस के साथ तुम हो
और तुम्हारी पीड़ा भी ।
जो पीड़ा हवाओं में
हर क्षण मौजूद दिख रही है।
जिसका होना सुनिश्चित है इस धरा पर।
जैसे होना जरूरी है हवाओं का
जैसे होना जरूरी है बादलों का
जैसे होना जरूरी है नदियों का
जैसे होना जरूरी है सागर का
जैसे होना जरूरी है सागर के खारे जल का
जैसे होना जरूरी है सर्वत्र देवताओं का
जैसे होना जरूरी है हमारे भीतर भावनाओं का
जैसे होना जरूरी है हमारे भीतर संवेदनाओं का
जैसे होना जरूरी है आसमान में चमकते तारों का

जैसे होना जरूरी है पूरब में सूरज की लाली का
जैसे होना जरूरी है काली अंधियारी रातों का।

हां, तुम्हारी पीड़ा सदियों से अनुत्तरित रहेगी।
तुम्हारी पीड़ा जीवन में सर्वत्र सौंदर्य बोध का
सृजन करेंगी
क्योंकि हम हैं इसीलिए —
तुम्हारे आसपास पीड़ा का साम्राज्य फैला हुआ है।
हमारे स्वार्थ ने तुम्हारे भीतर पीड़ा के
बीज बपन कर दिए हैं…

तुम्हारे भीतर की पीड़ा हमें हर रोज पुकारती है
तुम्हारे भीतर अनंत सौंदर्य है और
उसी सुंदरता ने तुम्हें अनंत- अनंत पीड़ाएं दी हैं।
इसीलिए तुम बार-बार अपहृत होती रही हो।
तुम्हारे भीतर का काम और सौंदर्य
इसीलिए मुझे बार-बार खींचता है।
तुम्हारे भीतर की दया, क्षमा, करुणा, प्रेम,
त्याग और समर्पण शक्ति
एक ओर0हमें आकर्षित करती है
तो दूसरी ओर वह हमें अपने बाहु पाश में
बांध लेने के लिए प्रेरित भी करती है…

सब कुछ सहते हुए
तुम मेरे लिए त्याग करती हो
सब कुछ सहते हुए
तुम मेरे लिए घर- बार तजती हो!
अद्भुत हो तुम और तुम्हारा रूप भी
अद्भुत है।
अद्भुत है तुम्हारा प्रेम और सौंदर्य
जो कभी काली बनकर आता है हमारे सामने
और विकराल बना जाता है इस दुनिया को
तो तुम्हारा रूप कभी दुर्गा बनकर
आता है हमारे सामने और
हमें अद्भुत शक्ति प्रदान कर देता है क्षण भर में
तो तुम्हारा रूप कभी लक्ष्मी बनकर आता है
हमारे सामने और
सुख के संसाधन से ओतप्रोत कर देता है
क्षण भर में–
तो तुम्हारा रूप कभी सरस्वती बनकर आता है
हमारे सामने और
ज्ञान की मंदाकिनी से पवित्र बना जाता है
क्षण भर में !

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