आतंकवादी माओवादी नक्सलिये देश के शत्रु
”भारत युद्धग्रस्त है”। ”भारत पर सब से बड़ा हमला”। यह हैं कल के कुछ समाचारपत्रों की सुर्खियां, जिनमें उन्होंने छत्तीसगढ़ में माओवादी नक्सलियों द्वारा सीआरपीएफ के जवानों पर हमले के समाचार दिये हैं।
इस घटना से अब इतना तो स्पष्ट ही हो गया है कि वर्तमान भारत सरकार सीमा पार से परोक्ष युद्धतथा अपनी धरती पर आतंकवादियों से लोहा लेने की न हिम्मत रखती है और न इच्छाशक्ति। वास्तविकता तो यह है कि हमारी सरकार तो यह निर्णय कर पाने में भी अक्षम है कि उसे नक्सलवादियों व माओवादियों से युद्ध करना है या कि शान्ति के घुटने टेकने हैं। वस्तुत: वर्तमान सरकार तो इन दोनों में से एक भी विकल्प चुन पाने में असफल है।
सच्चाई तो यह भी है कि माओवादी, नक्सलवादी तथा अन्य आतंकवादी भारत के विरूद्ध युद्ध छेड़ें हुयेहै और हमारी सरकार को तो अभी तक यह भी पता नहीं है कि उनके खूनी हमले का जवाब उनके ही द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे हथियारों से करना है न कि आत्मसमर्पण के द्योतक शान्ति के सफेद रूमाल हिला कर। महात्मा गांधी ने तो शान्ति-शान्ति के औज़ार से अंग्रेज़ों को देश छोड़ने पर मजबूर तो अवश्य किया था पर यह देश की राजनैतिक तथा नैतिक विजय थी जिसे किसी भी रूप में सैनिक विजय नहीं माना जा सकता। हमने अंग्रेज़ों को सत्ता छोड़ कर सत्ता भारतीयों को सम्भालने के लिये अवश्य विवश किया था पर अंग्रेज़ हम से युद्ध नहीं हारा था।
हमें यह भी भलीभान्ति समझ लेना चाहिये कि माओवादी नक्सलिये अंग्रेज़ नहीं है जो आज की सरकार के ”शान्ति-शान्ति” के अलाप की भाषा समझ लेंगे और हिंसा त्याग देगे। वह तो केवल एक ही भाषा जानते और समझते हैं और वह है जवाबी गोली की। ईंट का जवाब पत्थर से।
इसका प्रमाण कई बार मिल भी चुका है। जब हाल ही में केन्द्र व पश्चिमी बंगाल सरकार ने माओवादियों के विरूद्ध लालगढ़ में संयुक्ता कार्यवाही की, कई माओवादी माने भी गये और कई अग्रणी नेता पकड़े भी गये तो उनकी ओर से शान्ति, युद्ध विराम तथा बातचीत केलिये प्रस्ताव आने लगे। शक्ति व सीनाज़ोरी का जवाब शक्ति है कमज़ोरी नहींहै जिसका वर्तमान सरकार प्रदर्शन कर रही है।
कड़वी सच्चाई तो यह है कि वर्तमान सरकार और बहुत से हमारे राजनैतिक दल देशहित की लड़ाई चुनावी हथियार से कर रहे हैं। उन्हें देशहित नहीं वोट चाहिये, सत्ता चाहिये, सत्ता का भोग चाहिये। यही तो कारण है कि आन्ध्र प्रदेश में 2004 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने माओवादियों से गुप्त समझौता किया था जिसके बलबूते पर तब वह सत्ता में आ पाई थी। सब से पहले माओवादियों पर से प्रतिबन्ध हटाया गया। फिर उनसे वातचीत शुरू हुई। उनके नेता खुले तौर पर हैदराबाद की सड़कों पर अपने अस्त्र-शस्त्र के साथ घूमते फिर रहे थे मानों सरकार ही उनकी है — वह आतंकवादी जिनके विरूद्ध देशद्रोह, हत्या, बलात्कार आदि के गम्भीर आरोप थे और जिनको ज़िन्दा या मुर्दा पकड़ने केलिये सरकार ने लाखों रूपए के इनाम घोशित कर रखे थे। जब वह माओवादी शान्तिवार्ता के लिये आंध्र के मन्त्रियों व अधिकारियों के साथ मेज़ पर बैठते तो वह अपने अस्त्रों-शस्त्रों से लैस थे मानो वह शान्तिवार्ता केलिये नहीं सरकार से युद्ध करने आये हों।
सरकार के इस सौहार्द के वातावरण को माओवादियों ने अपने आपको और मज़बूत करने केलिये इस्तेमाल किया। कांग्रेस सरकार के इस शान्ति-शान्ति के अलाप का उन्होंने कांग्रेस सरकार के ही एक मन्त्री की हत्या के रूप में दिया। तब सरकार की आंखें खुली और उसे माओवादियों पर दोबारा प्रतिबन्ध लगाने पर मजबूर होना पड़ा।
जब 2004 में यूपीए की प्रथम सरकार बनी तो वह साम्यवादियों की बैसाखियों पर चल रही थी। इस कारण वह साम्यवादी विचारधारी माओवादियों के विरूद्ध कोई कार्यवाही करने से कतराती थी क्योंकि उसे अपनी गद्दी से प्यार था। उसे तो हर सूरत में सत्ता में रहना था जिसके लिये वह कुछ भी करने को तैयार थी। नक्सलवादियों के हाथों सैकड़ों-हज़ारों निर्दोश व्यक्तियों व अर्धसैनिक कर्मचारियों-अधिकारियों की शहादत पर उन्हें केवल गर्व होता था और कुछ नहीं कर पाते थे।
विभिन्न प्रदेशों में उग्र हो रहे नक्सलियों व माओवादियों के हमलों से निपटने की बात आई तो कांग्रेस नीत इस सरकार ने इस समस्या को एक स्थानीय व क्षेत्रीय मुद्दा बना दिया। जब इस उग्र समस्या से पीड़ित प्रदेशों ने केन्द्र की अगुआई में संयुक्त अभियान चलाने की बात की तो सरकार ने उन्हें दो टूक जवाब दे दिया कि राज्य अपने तौर पर स्वयं इस समस्या से निपटें। स्पष्ट है कि सरकार अपने साम्यवादी समर्थकों को रूष्ट नहीं करना चाहती थी चाहे देश का हित इस सें रूष्ट हो जाये।
यूपीए सरकार की खोटी नीयत इस बात से भी स्पष्ट हो जाती है कि वह आतंक से निपटने के मामले में दोगली भाशा बोलती है। कांग्रेस या यूपीए समर्थित प्रदेशों में एक और ग़ैरकांग्रेसी प्रदेशों में दूसरी जहां दोष का ठीकरा उनके सिर फोड़ दिया जाता है।
सरकार की संकीर्ण सोच तो इस बात से ही नंगी हो जाती है कि वह एक राष्ट्रीय समस्या को एक क्षेत्रिय समस्या बना कर राजनीति खेल रही है। देश के लगभाग 15 प्रदेशों के लगभग 200 ज़िले इस समय इस समस्या से जूझ रहे हैं। देश का आधे से अधिक भाग इस समस्या से पीड़ित है पर फिर भी यह समस्या वर्तमान केन्द्र सरकार को एक राष्ट्रीय समस्या नहीं दीखती क्योंकि उसे कोई अपना राजनैतिक या चुनावी हित पूरा होता नहीं दिखता।
आतंकवाद का कभी सफाया नहीं हो सकता जब तक कि हमारी सरकारें और राजनैतिक दल अपने संकीर्ण राजनैतिक व चुनावी हितों की चिन्ता नहीं छोड़ते और जहां देश व राष्ट्र का हित हो उस पर एकजुट नहीं हो जाते।
केंन्द्रिय गृह मन्त्री पी0 चिदम्बरम छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ के शहीदों को श्रद्धान्जलि देने दन्तेवाड़ा गये थे। वहां उन्होंने एक बार फिर सार्वजनिक घोषणा कर दी कि इन राष्ट्रविरोधी तत्वों से सख्ती से निपटने के लिये सेना का उपयोग नहीं किया जायेगा। उनका तर्क है कि सेना का इस्तेमाल अपने ही लोगों के विरूद्ध नहीं किया जा सकता। इससे तो सरकार की ही सोच के दिवालियेपन की झलक मिलती है।
वह अपने लोग
तो क्या यह सरकार उन व्यक्तियों या संस्थाओं को अपना सगा समझती है जो इस देश की निर्दोष जनता और जनसेवा में कार्यरत पुलिस व अर्धसैनिक बल के जवानों कीहत्या करती है? कौन सा कानून व नैतिक मूल्य यह कहते हैं कि निर्दोष व्यक्तियों की हत्या करने वाले देशभक्त व सम्माननीय नागरिक होते हैं और उन्हें सज़ा नहीं मिलनी चाहिये? सभी जानते हैं कि हत्या के पीछे कोई प्रयोजन होता है। पर आतंकी हमलों को आम हत्या की संज्ञा देना अपनी ही सोच व समझ का जनाज़ा निकालना है। यदि उनके प्रयोजन की ओर ध्यान दिया जाये तो यह हत्यायें स्पष्टत: देशद्रोह के प्रयोजन से की जा रही हैं। फिर साधारण हत्या में तो कानून के मुताबिक तो मुकद्दमा भी चलता है और उस में सज़ा भी हो जाती है पर इन आतंकी वारदातों में न तो कोई पकड़ा ही जाता है और न कोई उनके विरूद्ध गवाही देता है। ऐसे हालात में दोशी ससम्मान बरी हो जाते हैऔर छाती ठोंक कहते फिरते हैं कि सरकार ने हमारा क्या बिगाड़ लिया। बाद में इन्हीं धूर्त हत्यारों से हमारी सरकारे हाथ मिलाती फिरती हैं और उनके साथ अपने फोटो छपवा कर अपने आपको धन्य समझने लगती हैं।
न रक्षा न कर्तव्य
किसी भी निर्दोष नागरिक की जान और सम्पत्ति की रक्षा करना हर संवैधानिक सरकार का कर्तव्य है। पर न तो सरकार इस पावन कर्तव्य को निभा रही है और न दोशियों को सज़ा ही दिला पा रही है। तो क्या ऐसा शासन गर्व से अपना सिर ऊचा रख सकता है?
जो व्यक्ति या संगठन राष्ट्र के विरूद्ध कार्य कर रहा है, निर्दोष लोगों की हत्या कर रहा है, देश के संविधान व कानून को नहीं मानता, जो देश मे समानान्तर सरकार चला रहाहै, वह किस आधार पर हमारा अपना है? यह तो केवल पी0 चिदंबरम ही जनता को अपने तर्क से समझा सकते हैं और कोई नहीं।
ब्लूस्टार आप्रेशन में सेना क्यों?
हमारी बहुत सी समस्याओं केलिये हमारी सरकार की गलत सोच ही जिम्मेदार है। यदि अपने भारतीय भाईयों के विरूद्ध सेना का उपयोग नहीं हो सकता तो केन्द्र में हमारी कांग्रेस सरकार ने 1984 में ब्लूस्टार आप्रेशन के दौरान सेना का इस्तेमाल क्यों किया था?इस सारे आप्रेशन में सभी मरने वाले भारतीय थे। माना कि तब अमृतसर के एक वर्ग किलोमीटर से भी कम क्षेत्र में भिण्डरांवाले और उसके आदमियों का ही कब्ज़ा तथा कानून चलता था और संवैधानिक सरकार तो केवल मूकदर्शक थी। पर आज तो हज़ारों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में संवैधानिक सरकार का कोई अस्तित्व नहीं है और यदि तूती बोलती है तो केवल नक्सलियों व माओवादियों की।
अजीब विडम्बना यह भी है कि पिछले कई दशकों में अनेक सरकारों ने अनेक राजनैतिक दलों व व्यक्तियों के विरूद्ध देशद्रोह के मुकद्दमें दाखिल किये पर नक्सलवादियों व माओवादियों के विरूद्ध एक भी नहीं जिन्होंने अनेक हत्यायें कीं, सरकार के विरूद्ध विद्रोह किया। उन्हें तो चिदम्बरम ससम्मान वार्ता का न्योता देते हैं।
यदि मित्र नहीं, तो दुश्मन
अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने एक बार बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा था कि या तो तुम हमारे साथ हो या हमारे विरूद्ध। दुर्भाग्य से यह स्पश्टता हमारी सरकार और कई राजनैतिक दलों की सोच में नहीं झलकती। कारण वही राजनैतिक और चुनावी दृष्टिकोण की संकीर्णता। हम क्यों यह निर्णय नहीं ले पाते कि जो हमारे संविधान का सम्मान नहीं करते, जनादेश को नहीं मानते, हमारे कानून की धज्जियां उड़ाते हैं, वह कभी राष्ट्र के मित्र नहीं हो सकते और यदि वह मित्र नहीं हैं तो इसका स्पष्ट अर्थ निकलता है कि वह राष्ट्र के शत्रु हैं और शत्रुओं से शत्रुओं की तरह ही व्यवहार होना चाहिये न कि मित्रों की तरह। वरन् मित्र व शत्रु में तो भेद ही समाप्त हो जायेगा। यही हमारी सोच का दोष है और हमारी समस्याओं और दु:खों की जड़। और यही है हमारी पार्टियों की सत्तता प्राप्त करने और सत्ता में बने रहने की कुंजी।
ठीक है किसी को भी अपनी भूल सुधारने और ठीक रास्ते पर लौटने का अवसर मिलना चाहिये। हम तो कहते ही हैं कि सुबह का भूला यदि शाम को वापस आ जाये तो उसे भूला नहीं समझना चाहिये। पर जो अपने भूल ही मानने को तैयार नहीं, दूसरों की अच्छी बात भी सुनने को तैयार नहीं, पश्चाताप ही करने को तैयार नहीं तो उनके विरूद्ध कार्यवाई करने के सिवा रास्ता ही क्या है?
मान लेते हैं कि चिदम्बरम राह से भटके इन आतंकी नक्सलियों-माओवादियों को राष्ट्रीय धारा में लौट आने का अवसर देना चाहते है। पर यह तो तभी सम्भव है जब सरकार एक समय सीमा निश्चित कर दे कि उन्हें उसके अन्दर अपने हथियार डाल देने होंगे और समस्या के समाधान के लिये वार्तालाप का रास्ता अपनाना होगा। याद रखना होगा कि कुछ समच पूर्व जब दस्यू सम्राटों ने समर्पण किया था तो वह बिना शर्त था। उन्हें उनके अपराधों के लिये खुली मुआफी नहीं दी गई थी। तो इन आतंकियों पर विषेष दयादृष्टि क्यों?
सरकार को एक समय सीमा निश्चित करनी होगी। जो इस अवधि में अपना आत्मसमर्पण नहीं करते उनके साथ सख्ती से निपटना होगा ठीक उसी तरह जैसे वह आजकल निर्दोष जनता व हमारे जवानों से कर रहे हैं। समय सीमा के बाद तो उनके साथ वही सलूक करना होगा जो दुश्मन के साथ होता है। जब तक सरकार और हमारे राजनैतिक दल यह दो-टूक निर्णय नहीं कर लेते तब तक इन राष्ट्रविरोधी व्यक्तियों व संगठनों के हौसले बुलन्द होते रहेंगे और निरीह निर्दोष अपनी जान व्यर्थ में ही गंवाते रहेंगे। यह स्थिति किसी भी समाज व सरकार केलिये गर्व नहीं चिन्ता और शर्म की ही बात रहेंगी।
सरकार और आतंकी नक्सलवादी-माओवादियों दोनों को ही दो में से एक ही रास्ता चुनना होगा — युद्ध का या शान्ति का। कोई भी एक ही समय में दोना रास्तों पर नहीं चल सकता। जो ऐसा प्रयास करेगा वह खता ही खायेगा।
-अम्बा चरण वशिष्ठ