“माई री मैं कासे कहूं पीर…!”

-गिरीश बिलोरे-
indian wodow

विधवा जीवन का सबसे दु:खद पहलू है कि उसे सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकारों से आज़ भी समाज ने दूर रखा है. उनको उनके सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकार देने की बात कोई भी नहीं करता. जो सबसे दु:खद पहलू है. शादी विवाह की रस्मों में विधवाओं को मंडप से बाहर रखने का कार्य न केवल गलत है, वरन मानवाधिकारों का हनन भी है. आपने अक्सर देखा होगा… घरों में होने वाले मांगलिक कार्यों में विधवा स्त्री के प्रति उपेक्षा का भाव. नारी के खिलाफ़ सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाने का साहस करना ही होगा. किसी धर्म ग्रंथ में पति विहीन नारी को मांगलिक कार्यों में प्रमुख भूमिका से हटाने अथवा दूर रखने के अनुदेश नहीं हैं. जहां तक हिंदू धर्म का सवाल है उसमें ऐसा कोई अनुदेश नहीं पाया जाता न तो विधवा का विवाह शास्त्रों के अनुदेशों के विरुद्ध है… न ही उसको अधिकारों से वंचित रखना किसी शास्त्र में निर्देशित किया गया है. क्या विधवा विवाह शास्त्र विरुद्ध है? इस विषय पर गायत्री उपासकों की वेबसाइट पर स्पष्ट लिखा है कि यह अनाधिकृत है.

अगर शास्त्रों द्वारा विधवाओं को सामान्य जीवन से प्रथक रखने की कोशिश के निर्देश दिये भी जाते तो ऐसे निर्देशों को सभ्य-समाज को बदल देना चाहिये. सनातन धर्म अन्य धर्मों की तरह कठोर नहीं है. धर्म देख काल परिस्थिति अनुसार विकल्पों के प्रयोग की अनुमति देता है. किंतु ब्राम्हणवादी व्यबस्था के चलते कुछ मुद्दे अभी भी यथावत हैं. नारी के पति विहीन होने पर उसका श्रृंगार अधिकार छिनना, उसकी चूड़ियां सार्वजनिक तौर पर तोड़ना एक लज्जित कर देने वाली कुरीति है. पति के शोक में डूबी नारी को क़ानून के भय से सती भले ही न बनाता हो ये समाज पर नित अग्नि-पथ पर चलने मज़बूर करता है. उसके अधिकार छीन कर जब मेरी दादी मां के सर से बाल मूढ़ने नाई आता था तब मै बहुत कम उम्र का था पर समझ विकसित होते ही जब मुझे इस बात का एहसास हुआ कि सत्तर वर्ष की उम्र में भी उनको विधवा होने का पाठ पढ़ाया जा रहा है तो मैं बेहद दु:खी हुआ.

तेज़ी से सामाजिक परिवर्तन हो रहा है. किंतु समाज ने अपनी विधवा मां, बहन, बेटी, भाभी, बहू किसी के अधिकार छिनते देख एक शब्द भी नहीं कहा. किसी में भी हिम्मत नहीं है. किस बात का भय है. हम सनातन धर्म के अनुयायी हैं जो लचीला है.. कर्मकांडी अथवा पंडे इसे रोजी-रोटी कमाने लायक ही जानते हैं. पंडे क्या हमें धर्म के मूल तत्व आ अर्थ बता सकते हैं. वे सिखाएंगे भी क्या..उनका काम सीमित है, हमें सामाजिक बदलाव लाना है. ऐसा सामाजिक बदलाव जिससे किसी प्राणी मात्र को पीडा से मुक्त रखा जा सके. शंकराचार्यों को ऐसे विषय पर समाज को मार्गदर्शन देने की ज़रूरत है, न कि विवादित बयानों की. सुधि पाठको पूरी ईमानदारी से विचारमग्न हो के सोचिये कि आप मेरे इस आह्वान पर क्या सोचते हैं. नारी के तिरस्कार वाली क्रियाओं से समाज के विमुक्त करने विधवाओं के प्रति सकारात्मक दायित्व निर्वहन से क्या धरती धरती न रहेगी ?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here