चूल्हा, चौका तक सीमित नही महिलाएं

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देश में पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाकर आज कल महिलाएं बड़ी कुशलता से काम कर रही है. घर परिवार को चलाने में बखूबी अपना हाथ बटाती हैं. बदलते दौर में महिलाएं पिछड़े जमाने की तरह घर में रहकर चूल्हा, चौका तक सीमित नही रहना चाहती. पति के जिम्मेदारियों को कम करने के लिए उनका हाथ बटाना चाहती हैं. जिसके लिए वो घर से बाहर नौकरी करती है. कभी-कभी यही नौकरी पति-पत्नी के रिश्ते और परिवार पर भारी पड़ने लगती है. देश में अभी बहुत जगहों पर संयुक्त परिवार की प्रथा बरकरार है.

अब जब परिवार बड़ा है, तो कामकाज का बोझ भी ज्यादा होगा. ऐसे में एक कामकाजी महिला को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. समाज में लोग जब अपने लड़के की शादी करके बहु लेकर आते हैं, तो एक पुराने जमाने की तरह सारा बोझ उसी के कंधों पर रख देते हैं. घर के सारी जिम्मेदारी का बोझ उठाते हुए पराए घर से आई हुई लड़की को इससे कोई परहेज नही होता. वो बड़ी खुशी से इसको स्वीकार करती है.

अगर लड़की शादी से पहले नौकरीपेशा है, तो शादी तय करते समय बहुत से परिवार एक शर्त रख देते है. वो शर्त होती है, शादी के बाद नौकरी नही करने की. एक लड़की शादी से पहले पैसे कमाने का जुनून रखे हुए हैं. जिसको लेकर उसने अपने परिवार के लिए सपने सजाए होते हैं. और कुछ ही पलों में उसके अरमान कुचल दिए जाते हैं. किसी कामकाजी पत्नी को हमारे देश बहुत से समस्याओं का सामना करना पड़ता है. भले वो पति और परिवार के प्रति समर्पित हो. लेकिन उसकी इस सोंच को बहुत से कम लोग समझते हैं.

कामकाजी पत्नी को लेकर यूपी के एक परिवार के बारे में बताना चाहूंगा. पूरे परिवार की जिम्मेदारी के साथ आगंनबाड़ी केंद्र में  काम करती है. कहने को तो बहुत आसान है लेकिन करके दिखाना मुश्किल भरा कदम होता है. जिस समय लोगों को चैन की नींद आती है उस समय वो अपने परिवार की जिम्मेदारी निभाती है. सुबह उठकर घर का सारा काम करना. परिवार के लिए नाश्ता तैयार करना. खाना बनाना. पति को नौकरी पर जाने से पहले लंच पैक करके देना. इन सब काम को करने के बाद फिर अपने आफिस के लिए जाना. ये कार्य तो सिर्फ सुबह का होता है. शाम को घर आकर फिर से वही कामचर्या शुरू हो जाती है. ऊपर से परिवार के लोगों की अलग से फरमाइश सुनना. एक उदाहरण देना चाहता हूं,

अगर किसी परिवार में पुरूष जब आफिस से घर वापस आता है. उसे तुरंत पानी पीने के लिए दिया जाता है. उसे काफी थका हुआ समझा जाता है.लेकिन उसी परिवार की वही महिला आफिस से आती है उसे अपना सारा कार्य खुद करना पड़ता है.

वो महिला भी आफिस में कार्य करके आई है. अपनी कमाई को परिवार पर बड़ी खुशी से न्वौछावर करती है. एक कामकाजी पत्नी के लिए जो आसान नही होता.

अपने पैरों पर खड़ा होना- बदलते दौर में महिलाएं अपने आप के काफी आगे लेकर चली आई हैं. आज कल पुरूषों की अपेक्षा महिलाएं हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाए हुए है. समाज के हालात को देखते हुए हर महिला की यही सोंच होती है कि वो अपने पैरों पर खड़ी हो. उनको किसी के सहारे के लिए मजबूर न होना पड़े. ये सोंच एक अच्छे परिवार और समाज का निर्माण करती है. पुराने ख्यालात के लोगों के लिए ये बात कुछ ज्यादा हजम नही होती कि उनके घर की कोई महिला नौकरी करें. उनका मानना होता है कि औरतों का जन्म सिर्फ अपने पति, घर परिवार तक ही सीमित है. पति बाहर जाकर काम करें  पूरे परिवार का खर्च उठाए.पत्नी घर की पूरी जिम्मेदारी निभाएं. लेकिन 21वीं सदी की महिलाओं ने उनकी ये सोंच को बदलने पर मजबूर कर दिया है. अपने पैरों पर खड़ा होकर महिलाओं ने ये साबित कर दिया कि अपनी जरूरत के साथ परिवार का भी पूरा ख्याल रखने में सक्षम होती है.

पति के जिम्मेदारी में भागीदारी- अगर कोई महिला नौकरीपेशा है, किसी पति, परिवार के लिए ये काफी खुशी की बात होती है. पति के साथ हर कदम अर्धांगिनी बनकर खड़ी उसकी पत्नी बखूबी समझती है कि उसके पति के ऊपर परिवार की काफी जिम्मेदारी है. इस जिम्मेदारी का बोझ हल्का करने के लिए पत्नी अपनी पूरी भागीदारी पति और परिवार के बीच निभाती है. आज कल सरकारी नौकरी पाना एक सपनों के जैसा है. ऐसे में लोग प्राईवेट जाँब पर ज्यादा निर्भर हैं. इस नौकरी में कब किसको निकाल दिया जाए कोई भरोसा नही होता. अगर किसी की नौकरी चली जाती है. फिर उस परिवार की आर्थिक स्थिति चरमरा सी जाती है. लेकिन अगर पति-पत्नी दोनों नौकरी करते हैं, एक कि नौकरी जाने से कुछ दिनों तक य जब तक उसे नौकरी नही मिलती घर का खर्च चल सकता है. दिन प्रतिदिन बढ़ रही कमर तोड़ महंगाई में परिवार के एक सदस्य की कमाई से जीवनयापन करना काफी मुश्किल भरा काम होता है. ऐसे हालात में अगर पत्नी भी नौकरी कर रही होती है ते घर का खर्च चलाना आसान हो जाता है.

कामकाजी महिलाओ का रखें ख्याल- देश में पुरूषों की अपेक्षा कामकाजी महिलाओं का ख्याल कम रखा जाता है. हालांकि महिलाएं अपना ख्याल खुद रख सकती है. लेकिन पति के साथ-साथ परिवार की एक जिम्मेदारी बनती है कि नौकरी कर रही महिला का भी उतना ही ख्याल रखा जाए जितना कि नौकरीपेशा पुरूष का. जिससे मतभेद की स्थिति उत्पन्न न होती. परिवार की गाड़ी लगातार चलती रहती है.

जागरूकता- घरों में चूल्हा, चौका तक सीमित महिलाओं की अपेक्षा बाहर निकलकर काम कर रही महिलाएं अधिक जागरूक होती है. बात चाहे घर, परिवार की हो या फिर आफिस की. अगर कोई महिला जागरूक है तो दूसरों को जागरूक करने में अहम भूमिका निभा सकती है. जो एक सभ्य समाज के निर्माण में सहायक है. एक कामकाजी महिला अपने आस-पास के वातावरण को अच्छे से समझती है. साथ ही परिवार और रिश्तों को निभाने की अहम भूमिका भी निभाती है.

घूंघट- देश में घूंघट की प्रथा आज भी बरकरार चल रही है. वक्त बदल गया दौर बदल चला गया, लेकिन घूंघट का दौर आज भी हैं. ऐसे में एक कामकाजी महिला के लिए थोड़ी सी परेशानी खड़ी करती है. शहरों में तो चलो कोई देखने नही आता लेकिन खासकर गांव में रहने वाली कामकाजी पत्नियों के लिए ये आज भी सम्सया का विषय है. अब इस सोंच को बदलने की जरूरत है, उस महिला का पल्लू जरा सा सर से नीचे हुआ कि समाज में बैठे इसके ठेकेदारों की उंगली उठने लगती है. जो कि एक आग की तरह फैलकर उसके घर तक पहुचंती है. जिसे लेकर किसी-किसी परिवार में के बीच पति-पत्नी लड़ाई झगड़े तक हो जाते हैं. समाज में रहने वालों को ये सोच बदलनी होगी. जब महिला घर के बाहर जाकर नौकरी करती है तो वो अपने आफिस का काम देखे या फिर घूंघट को सही करती रहे.

नागालैंण्ड की हेरेना गैंगमई जो दिल्ली में टेलर एण्ड फ्रांसेंज कम्पनी में एडिटोरियल रिसर्चर है इनका मानना है कि 21 शताब्दी की महिलाएं अपनी नौकरी के साथ-साथ घर के काम और परिवार की देखभाल अच्छे से कर सकती हैं।  वो अपने घर की चारदीवारों तक ही सीमीति नही हैं। संसार में काम को लेकर महिलाओं का काफी योगदान है।

पटना की रहने वाली पूजा कुमारी टेलर एण्ड फ्रांसेंज कम्पनी में एडिटोरियल रिसर्चर है, इनका कहना है कि महिलाएं नौकरी शौक के लिए नही करती हैं। आजकल समाज को देखते हुए आवश्यकता भी है। क्योंकि बहुत सारे लोग जब लड़की की शादी के लिए जाते हैं तो लड़के की तरफ से मांग भी होती है कि कमाने वाली लड़की मिल जाए तो अच्छी बात है ? बढ़ती हुई मंहगाई को देखते हुए ये जरूरी है कि महिलाओं को घर तक सीमीति न होकर अपने पति की जिम्मेदारी में भागीदारी में भाग लेकर परिवार का बोझ हल्का करने का काम करे। आज कल की लड़कियां लड़कों को छोड़ते हुए हर क्षेत्र में आगे निकल रही हैं। अगर लड़की खुद अपने पैरों पर खड़ी है तो अपनी जरूरतों के साथ-साथ घर वालों का ध्यान अच्छे से रख सकती हैं। इसलिए महिलाओं को चूल्हा चौका तक सीमित नही होना चाहिए।

नई दिल्ली की कनिता सक्सेना मार्केटिंग कंटेंट राइटर  मानती है कि नारी सशक्तिकरण की परिभाषा ही उसके पसंद से ही बनती है। महिलाएं अपने जीवन को आगे बढ़ाती हैं ये उनपर निर्भर होना चाहिए। वो क्या पहनती हैं, और अपना करियर के लिए क्या चुनती है साथ ही किसके साथ जिंदगी बिताना चाहती है ये सब उन पर निर्भर होना चाहिए तभी देश की नारी सशक्तिकरण होगी ?

रायबरेली की रहने वाली हेमलता ने कहा कि घर परिवार को चलाने के लिए महिलाओं का काम करना जरूरी है। बढ़ती मंहगाई को देखते हुए पति के साथ हम भी मजदूरी के लिए जाते है। जिससे घर का खर्च चलाने में आसानी होती है।

अपने सम्मान और योगदान को लेकर 21वीं सदी की महिलाएं पुरूषों से कम नही हैं। घर की भागीदारी में पुरूषों से काफी आगे निकल चुकी हैं। क्या शहर, क्या गांव महिलाएं नौकरी और मजदूरी कर परिवार को चलाने में अपनी भागीदारी अच्छे से निभा रहीं हैं।

रवि श्रीवास्तव

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