ननदिया न आये मोरे अंगना…

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-बीनू भटनागर-
women

‘ननदिया न आये मोरे अंगना हमारे घर लाला हुए’ ये उत्तर प्रदेश का एक लोक गीत है, जिसे सोहर कहते हैं, जो बच्चे के जन्म के समय गाया जाता है। लोकगीत सामाज के रीति रिवाजों और विसंगतियों का दर्पण होते हैं। इस गीत के माध्यम से मै सभी विवाहित महिलाओं को संबोधित कर के कहना चाहती हूं कि बहनों! आप सबने अपने बड़ों से यह तो बहुत सुना होगा कि ससुराल मे जाकर सबका आदर करना, अपना उत्तरदायित्व ठीक से निभाना पर शायद ही किसी ने समझाया हो कि शादी के बाद अपना व्यवहार मायके में भी संतुलित और ज़िम्मेदारी वाला रखना। यदि मायके से सौहार्दपूर्ण संबध बनाये रखना है, तो अपने व्यवहार और आचरण पर ध्यान देना ही पड़ेगा।

जिस घर में लड़की पैदा होती है, पलती है, बड़ी होती है, उस घर से उसका नाता बना रहता है, वो घर भी उसका अपना होता है पर यदि उसने सावधानी न बरती तो हो सकता है, ये घर कभी उसे पराया लगने लगे, या लगे कि अब उसकी वहां वह जगह नहीं है जो कभी हुआ करती थी। यदि मायके में कोई आर्थिक समस्या नहीं है और घर में माता-पिता और भाई बहन ही हैं, तो लड़कियां मायके मे एक तरह से छुट्टियां मनाकर और उपहार लेकर वापिस आती हैं, हमारी परंपरा ऐसी ही हैं।

धीरे-धीरे समय बीतता है तो बदलता भी है, घर की ज़िम्मेदारियां माता-पिता के हाथ से निकलकर भाई-भाभी के हाथ में आ जाती हैं। रिश्तों में माधुर्य हो पर विचारों में मतभेद हो सकता है, प्राथमिकतायें अलग हो सकतीं है। भाइयों का परिवार बढ़ता है, तो उनकी ज़िम्मेदारी भी बढ़ती हैं, ऐसे समय में यदि मायका कुछ बदला सा लगे, तो उसे स्वाभाविक बदलाव समझना चाहिये और निष्पक्ष रहना चाहिये। यहां अगर कोई ग़लती हुई तो आप कटु अनुभव लेकर अपने घर लौटेंगी। मायके जाने के मज़े कम न हों, इसके लिये कुछ बातें ध्यान में रखना ज़रूरी है। थकान मिटाने या आराम करने के लिये वहां न जायें, बल्कि मिलजुल कर घर के काम सभांलने और परिवार के साथ समय बिताने के इरादे से मायके जायें। कभी-कभी वहां उपहार और अन्य चीज़ों पर कुछ ख़र्चा करें, ये सोच कि मायके से केवल लेने का ही हक़ है, ग़लत है। यदि आप कई बहने हैं तो मायके को अपना मिलन स्थल बनाकर पूरी छुट्टियां बिताने के लिये वहां एक साथ न पहुंच जायें। यदि कभी एक साथ पहुंच भी जायें तो माता या पिता के चारों ओर एक अदृश्य घेरा बनाकर न खड़ी रहें। भाई भाभी भतीजे भतीजी की ओर भी ध्यान दे, काम में हाथ बटायें।

बेटियां मायके आकर अपनी मां से अपने सुख-दुख बांटती हैं तो कभी मां अपने बेटे बहू के साथ हुए कुछ कटु अनुभव बेटियों से बांट लेती हैं। ऐसे में बेटियों को तटस्त बने रहना चाहिये। यदि माता-पिता का पक्ष लेंगी तो स्थिति बिगड़ सकती है। आप कुछ दिन को भले ही माता-पिता को अपने घर ले जायें, परन्तु निभाना तो बेटे बहू के साथ ही होता है। माता-पिता भी बेटियों के घर अधिक रहना पसंद नहीं करते और बेटियां भी अपनी ससुराल की ज़िम्मेदारियों के चलते बहुत दिन नहीं रख पाती। अच्छी हो या बुरी, परंपरा यही है। मायके जाते समय माता पिता ही नहीं यदि घर में भाई भाभी हों तो उनसे भी पूछ लेना चाहिये। ऐसा न हो कि उनके बच्चों की परीक्षा का समय हो या वो कहीं जा रहे हों। यदि माता-पिता आपके भाई पर निर्भर हों तो कभी वहां जाकर या उन्हें अपने यहां बुलाकर भाई के परिवार को कुछ दिन छुट्टी पर भेज दें तो उन्हें अच्छा लगेगा। माता-पिता को परिस्थितियों से सामंजस्य पैदा करने की सलाह दें और उनकी शिकायतों को तूल न दें। यदि आपने माता-पिता को लेकर कुछ ऐसा वैसा कहा.. तो शायद संबंध बिगड़ जायें।

महिलाओं को अपने दोनों परिवारों की निजता (privacy) का ध्यान रखना चाहिये। जब तक किसी गंभीर मामले मे अपने घरवालों की सलाह लेना ज़रूरी न हो, या उनसे मदद लेनी ज़रूरी न हो ससुराल की हर बात आकर मायके में बताना वांछनीय नहीं है। मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि आप अपने किसी कष्ट को मायके वालों से छुपायें। यदि ससुराल मे आपको प्रताड़ित किया जा रहा है तो आप ज़रूर उनकी मदद लें, पर हर छोटी बडी बात न बतायें। औरते ही दोनों परिवारों के बीच का पुल होती हैं, इसलिये दोनों परिवारों की निजता बनाये रखना उनकी ज़िम्मेदारी होती है।
यदि आपके दोनों परिवारों मे आर्थिक असमानता है तो कुछ और बातों का ध्यान रखना और भी ज़रूरी होगा। मायका ससुराल की अपेक्षा आर्थिक रूप से कमज़ोर हो तो अपनी ससुराल की संपन्नता का दिखावा कभी न करें और उन सुविधाओं की उम्मीद न करें जिनसे उन पर आर्थिक बोझ पड़े। उनके दिये हर उपहार का मूल्य उनकी भावना से आंके। अपनी तरफ़ से उपयोगी वस्तुएं उपहार में दें, दिखावे के लिये नहीं। यदि मायका ज़्यादा संपन्न है तो अपनी ग़रीबी का रोना लेकर न बैठें, इससे पति और उनके परिवार के सम्मान को ठेस लगेगी। बड़े बड़े उपहार मांग कर लेने की भी ज़रूरत नहीं है।

आजकल लड़कियों को पैतृक संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिलने का क़ानून है, पर ऐसा कोई क़ानून नहीं है जो कहे कि महिलाओं का मायके की ज़िम्मेदारियां उठाना भी कर्तव्य है। माता-पिता यदि वसीयत करते हैं या अपने जीवनकाल में ही अपनी चल-अचल संपत्ति बच्चों मे बांट देते हैं तो ठीक है, यदि वे ऐसा नहीं करते तो भाई बहनों के बीच मनमुटाव न हो, यह ध्यान में रखकर बंटवारा किया जाना चाहिये। सभी को अपने से ज़्यादा अपने भाई बहनों की ज़रूरतों का ध्यान रखना चाहिये। माता पिता की सेवा जिसने सबसे ज़्यादा की हो, परिवार की ज़िम्मेदारियां उठाई हों, उस भाई या बहन को कुछ बड़ा हिस्सा देने के लिये सबको तैयार रहना चाहिये, इसके बाद जिसके पास साधन कम हों और ज़िम्मेदारियां अधिक उसे भी सब रज़ामन्दी से कुछ अधिक दे सकते हैं। सामान्य परिस्थितियों मे सबको बराबर-बराबर हिस्सा मिल जाय तो ठीक है।

बेटियों को भी यह सोचना चाहिये कि उनका मायका अब भाभी से ही है। माता पिता ने दहेज़ में बड़ी रक़म ना भी दी हो तो हमारे देश में बेटी की शादी का ख़र्चा बहुत होता है। समय-समय पर तीज त्योहारों पर माता पिता और भाई भी देते रहते हैं। बेटियों के बच्चों जन्म पर, नाती नातिन के विवाह पर तो ननिहाल वालों की तरफ़ से काफ़ी ख़र्च करने की परम्परा सभी जगह है। बेटियों को बदलते समय मे इसे कम करने की कोशिश करनी चाहिये, ना कि ससुराल में इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अपने मायके वालों पर बोझ डालना चाहिये। यदि मायका संपन्न भी है तो भी इस प्रकार के लेनदेन की परम्परा को कम करना चाहिये क्योंकि रीति रिवाज के नाम पर ये मजबूरी बन जाते हैं और जो नहीं कर पाते, उन्हें ग्लानि होती है, या कर्ज़ लेना पड़ता है। इन सब बातों को ध्यान में रखकर जो बहने भाइयों के पक्ष में अपना हिस्सा कम करने या न लेने का निर्णय करती हैं वो अपने मायके में सदैव के लियें अपनी जगह बना लेती हैं। माता पिता के बाद भाई बहनों में संपत्ति के पीछे विवाद हो, या बात मुक़दमेबाज़ी तक पहुंचे इससे बुरा संबधों के लिये कुछ नहीं हो सकता।

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बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

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