हकीकत से फसाना बनता जा रहा महिला आरक्षण विधेयक

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-तनवीर जाफरी

संसद का ग्रीष्मकालीन सत्र अपने समापन की ओर अग्रसर है। महिला आरक्षण विधेयक के पक्षधर राज्‍यसभा में इस बिल के पारित होने के बाद अब इस प्रतीक्षा में हैं कि यथाशीघ्र इसी ग्रीष्मकालीन सत्र में लोकसभा के पटल पर यह विधेयक भी रखा जाए तथा राय सभा की ही तरह लोकसभा भी इसे पारित करे। हालांकि संसद के दोनों सदनों में पारित हो जाने के बावजूद महिला आरक्षण विधेयक फ़ि लहाल कानून का रूप नहीं लेने वाला है। क्योंकि लोकसभा में पारित होने के बाद भी इस विधेयक को देश की आधी राय विधानसभाओं द्वारा पारित किया जाना भी जरूरी है। फिर भी लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक का पारित होना इस दिशा में एक बड़ा कदम अवश्य होगा। ठीक इसके विपरीत महिला सशक्तिकरण के विरोधी टाल-मटोल की मुद्रा में हैं तथा वे हरगिज नहीं चाहते कि फिलहाल इस सत्र में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया जाए। ऐसे में यह प्रश् उठना स्वाभाविक है कि जिस साहस तथा बुलंद हौसले का परिचय देते हुए प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह तथा यू पी ए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भारतीय जनता पार्टी तथा वामपंथी दलों के सहयोग से इस विधेयक के विरोधियों की परवाह किए बिना रायसभा में यह विधेयक पारित कराए जाने जैसा ऐतिहासिक कदम उठाया था क्या इन नेताओं तथा विधेयक समर्थक राजनैतिक दलों द्वारा रायसभा जैसा निर्णायक कदम लोकसभा में भी उठाया जा सकेगा? यदि हां तो कब? इस सत्र में या इससे अगले सत्र यानि उस सत्र में जिसके शुरु होने की तिथि का अभी कोई पता नहीं है।

देश यह देख रहा है कि महिला आरक्षण विधेयक के राज्‍यसभा में पारित हो जाने के बाद भी इस विधेयक के विरोधी नेताओं द्वारा कैसे-कैसे बयान दिए जा रहे हैं। समाजवादी पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को इस बात की चिंता सता रही है कि यदि इस विधेयक ने कानून का रूप ले लिया तो महिला सांसदों व विधायकों के पीछे ‘नवयुवक सीटियां बजाएंगे’। यह बात और है कि अपनी बहु डिंपल यादव को फिरोजाबाद से लोकसभा प्रत्याशी बनाते समय उन्हें अपनी इस ‘विशेष चिंता’ का जरा भी ख़याल नहीं था। परंतु संभवत: फिरोजाबाद के मतदाताओं को मुलायम सिंह यादव की इस ‘विशेष चिंता’ का एहसास हो गया था इसीलिए उन्होंने डिंपल यादव के बजाए राजबब्बर को विजयी बनाना बेहतर समझा। सीटी बजाने की चिंता से अलग एक और चिंता इन यादव ‘बंधुओं’ अर्थात् मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव तथा शरद यादव को सता रही है और वह है महिला आरक्षण विधेयक के वर्तमान स्वरूप में मुस्लिम तथा पिछड़ी जातियों की महिलाओं हेतु अलग से कोटा निर्धारित न किया जाना। अब इन यादव ‘बंधुओं’ की यह चिंता कितनी सही है और यह नेतागण इस बात का कितना बहाना बना रहे हैं यह तो इन्हीं को बेहतर मालूम है। परंतु इनकी ‘चिंताओं’ के जवाब में इन नेताओं से यह सवाल ारूर किया जा रहा है कि आख़िर अपने राजनैतिक जीवन काल में अब तक आप लोगों ने कितने महिला प्रत्याशी चुनाव मैदान में ऐसे उतारे हैं जो मुस्लिम तथा पिछड़ी जातियों से संबंधित थे? इस पर समाजवादी पार्टी का जवाब आता है फूलन देवी तथा डिंपल यादव। लालू व शरद यादव के खाते में न कोई फूलन न कोई डिंपल। ले-देकर लालू जी की अपनी धर्मपत्नी राबड़ी देवी का ही नाम पिछड़े वर्ग की ओर से बिहार की राजनीति के क्षितिज पर चमकता दिखाई देता है।

महिला आरक्षण के विरोधी केवल यही तीन यादव ‘बंधु’ तथा इनके राजनैतिक दल नहीं हैं। भारतीय जनता पार्टी के भी कई सांसद कभी खुली जुबान से तो क भी दबी जुबान से महिला आरक्षण विधेयक पर उंगलियां उठा रहे हैं। कांग्रेस में भी कुछ ऐसे ही हालात देखे जा रहे हैं। सूत्र तो बताते हैं कि सोनिया गांधी को उनके कुछ गैर तजुर्बेकार सलाहकारों ने रायसभा में भी इस विधेयक को पेश न किए जाने की सलाह दी थी। परंतु सोनिया गांधी ने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए प्रधानमंत्री को विश्वास में लेकर तथा भाजपा व वामपंथी दलों में प्रथम श्रेणी में महिलाओं के नेतृत्व की क्षमता को भांपकर इतना बड़ा कदम उठाया। एक भारतीय मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना कल्बे जव्वाद ने तो गत् दिनों अपनी ‘दूरदर्शिता’ की उस समय हद ही ख़त्म कर दी जबकि उन्होंने औरतों को केवल बच्चे पैदा करने मात्र के लिए दी गई कुदरत की एक देन बताया। निश्चित रूप से यह उनके निजी विचार थे। परंतु मीडिया ने उनके इन विचारों को ऐसे प्रसारित किया गोया कि यह देश के मुसलमानों के किसी इकलौते प्रतिनिधि अथवा मुख्य धर्मगुरु के विचार हों। मौलाना ने यह भी कहा था कि संसद व विधानसभाओं में बैठना औरतों का काम नहीं है। जनाबे मौलाना संभवत: बेनजीर भुट्टो, खालिदा जिया तथा शेख हसीना वाजिद जैसी और कई मुस्लिम महिलाओं की राजनैतिक हैसियत, उनके राजनैतिक योगदान तथा उनके बुलंद राजनैतिक रुतबे को नकार देना चाहते हैं।

जव्वाद साहब का संबंध शिया समुदाय के देश के सबसे प्रतिष्ठित समझे जाने वाले घराने से है। शिया समुदाय में करबला के इतिहास को अन्य इस्लामिक घटनाओं में सर्वोपरि माना जाता है। इस घटना में भी हारत जैनब नामक चरित्र ने वह भूमिका अदा की जो संभवत: कोई मर्द भी अदा नहीं कर सकता था। हारत हुसैन व उनके 72 साथियों की शहादत के बाद हारत हुसैन के लुटे हुए कांफिले का नेतृत्व करने वाली हारत जैनब एक महिला ही थीं। दरअसल धर्मगुरुओं का यह कथन कोई उनका मनगढंत कथन नहीं है। बल्कि धर्मशास्त्रों ने ही महिलाओं को कुछ ऐसे रूप में प्रस्तुत किया है कि गोया वे हर कीमत पर मर्द से कमतर हैं, कमजोर हैं तथा मर्द की तुलना में अल्प ज्ञान रखती हैं। यदि ऐसा न होता तो इस्लाम धर्म में एक मर्द की गवाही के बराबर दो औरतों की गवाही दिए जाने का प्रावधान न होता। केवल इस्लाम धर्म ही नहीं बल्कि हिंदु धर्म के सबसे पावन एवं सर्वमान्य ग्रंथ राम चरित मानस में भी तुलसी दास ने अपनी एक चौपाई में लिखा है-ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥

अब जरा गौर कीजिए कि राम चरित मानस में दर्ज इस श्लोक को पूरा हिंदु धर्म यहां तक कि उनकी महिलाएं भी पढ़ती व रटती आ रही हैं। स्पष्ट है कि इस चौपाई में नारी को किस श्रेणी में रखा जा रहा है। ऐसे में नारी का कमतर होना धार्मिक संस्कारों से प्राप्त हुई एक सौगात कही जा सकती है। हालांकि इन सब धर्मशास्त्रों द्वारा दी जाने वाली सीख के बावजूद हम इन्हें यह कहकर अवश्य ख़ारिज कर सकते हैं कि आख़िरकार इन ग्रंथों तथा इनमें दर्ज दिशा निर्देशों को भी स्वयं पुरुषों द्वारा ही गढ़ा गया है।

बहरहाल, अब युग तेजी से बदल रहा है। कहा जा सकता है कि एक ओर जहां पुरुष प्रधान समाज का नायक पुरुष अपने ही आचरणों द्वारा अपनी विश्वसनीयता को कम करता जा रहा है, वहीं महिलाओं द्वारा कुछ ऐसे कारनामे दिखाए जाने लगे हैं जिनसे समाज में उनकी विश्वसनीयता व स्वीकार्यता दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। यहां भी यदि मुलायम सिंह यादव की सीटी बजाने वाली बात का हम थोड़ी देर के लिए समर्थन कर दें तो भी हम उन्हीं के शब्दों में यह पाते हैं कि ‘युवक सीटी बजाएंगे’ अर्थात् दोषी कौन? सीटी बजाने वाले पुरुष वर्ग के लोग अथवा वह महिला जो जनप्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होकर किसी सदन का प्रतिनिधित्व करने जा रही हो? मुलायम सिंह यादव की अपनी ही बातों में सांफ यह एहसास छिपा हुआ है कि पुरुष समाज ही दिन-प्रतिदिन दोषपूर्ण होता जा रहा है न कि महिलाएं।

महिला आरक्षण विधेयक को लेकर आम लोगों की भी यही राय देखी जा रही है कि यदि महिलाएं देश की राजनीति मे आगे आती हैं तथा उनकी संख्या पर्याप्त मात्रा में होती है तो कम से कम राजनीति में बढ़ते जा रहे अपराधीकरण पर कांफी हद तक अंकुश लगेगा। क्योंकि राजनीति को अपराधीकृत करने का जिम्मा तो दरअसल पुरुष राजनीतिज्ञों ने ही उठा रखा है। भ्रष्टाचार में भी पुरुष राजनीतिज्ञ ही सबसे आगे हैं। जाहिर है जनता को उम्मीद है कि महिला आरक्षण विधेयक के कानून बन जाने के बाद भ्रष्टाचार में भी लगभग 33 प्रतिशत की ही गिरावट आने की भी संभावना है। सरकारी धन पर ऐश करने, परिवारवाद तथा वंशवाद की राजनीति को बढ़ावा देने जैसी प्रवृति में भी कमी आना संभावित है। लिहााा केवल इस संकीर्ण सोच के चलते कि महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण के बाद पुरुषों के 33 प्रतिशत अधिकारों का हनन होगा या उनकी 33 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं का कब्‍जा हो जाएगा यह सोच अति घृणित,स्वार्थपूर्ण तथा निकम्मी सोच कही जा सकती है। देश की राजनीति पर सभी का बराबर अधिकार है। पुरुषों का भी और महिलाओं का भी। जाति आधारित आरक्षण का बहाना लेकर राजनीति पर पुरुषों के वर्चस्व को पूर्ववत् बनाए रखने की चाल हरगिज नहीं चली जानी चाहिए। सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह की लाख गंभीर कोशिशों के बावजूद यदि संसद के चालू सत्र में भी यह विधेयक सदन में न आ सका तो यह संदेह बना रहेगा कि महिला आरक्षण विधेयक कहीं हंकींकत से फसाना तो नहीं बनता जा रहा है।

1 COMMENT

  1. अपन भी समर्थक हो गए हैं महिला आरक्षण के. लेकिन फिर भी बुद्ध का एक सन्दर्भ याद आ रहा है. कृपया इस सन्दर्भ को गंभीरता से नहीं ले. फिर भी कहने से रोक नहीं पा रहा हु खुद को. काफी दवाव पड़ने पर बुद्ध ने भी अपने सम्प्रदाय में महिलाओं को शामिल करना स्वीकार कर लिया. लेकिन अपनी एक टिप्पणी के साथ कि ‘पहले मै अपने सम्प्रदाय की उम्र 5000 साल समझता था लेकिन अब यह 500 साल में हेई खतम हो जाएगा. कृपया इस बात पर ज्यादा हो-हल्ला मचा कर खाकसार को नारी विरोधी साबित करने की कोशिश ना कीजियेगा. बस यह पढते ही ताड़ आ गया सो लिख दिया.

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