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काल

“कलयति संख्याति सर्वान् पदार्थान् स कालः।”
[जो जगत् के सब पदार्थो और जीवों को आगे बढ़ने को बाध्य करता है और उनकी संख्या (आयु) करता है, वही काल है।]

‘कल संख्याने’ धातु में ‘अच’ प्रत्यय करने से ‘काल’ शब्द बनता है। ‘कल’ का दो अर्थ है – १. गिनना या गिनती करना और २. ध्वनि करना। संभवतः नदी के कल-कल प्रवाह की मंद ध्वनि से ‘कल’ धातु उत्पन्न हुई होगी और नदी तट पर ही मानव ने कंकड़ों की गिनती करते-करते काल की अवधि का मापन सीखा होगा। शायद इसीलिए भारोपीय भाषा परिवार की एक भाषा लैटिन में कैलकुलस (calculus) का अर्थ – गिनती करने वाला कंकड़ है। कैलकुलस मूलतः लैटिन के चॉक (calx) या खड़िया के लिए प्रयुक्त होने वाले वाले शब्द का उनार्थक है। इसी आधार पर साधारण गणना को कैलकुलेशन कहा गया और काल के सापेक्ष गणना का गणित कैलकुलस या कलन शास्त्र कहा गया। इतना ही नहीं, चिकित्सा शास्त्र में भी किडनी की पथरी यानि कंकड़ को कैलकुलस की संज्ञा मिली। हिंदी का ‘बीता हुआ कल’ और ‘आनेवाला कल’ काल के कल-कल निरंतर प्रवाह को सिद्ध करता है।
भारतीय षड्दर्शन में से एक वैशेषिक दर्शन (वैशेषिक सूत्र १.१.५) में काल को नौ मूल द्रव्यों में शामिल किया गया –
“पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि।”
(पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिक, आत्मा और मन – ये द्रव्य हैं।)
दर्शनशास्त्र में द्रव्य का अर्थ है – जिसमें द्रविण (गुण और क्रियात्मकता) हो। अतएव काल में भी ऊपर वर्णित अन्य आठ द्रव्यों से विशेष गुणधर्म और क्रियात्मकता को स्वीकारा गया। वैशेषिक सूत्र २.२.६ में काल के चिह्न (लिंग) या लक्षण बताए गए –
“अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि।”
भाष्यकार इसकी व्याख्या तीन प्रकार से करते हैं।पहले भाष्य में कहा गया – नवीनता (अपरत्व), प्राचीनता (परत्व), साथ-साथ होने का (युगपत्), धीरे-धीरे होना (चिरं) और शीघ्र होने का (क्षिप्रं) बोध – ये काल के पाँच लक्षण हैं। दूसरे भाष्य में ‘अपर’ का अर्थ ‘अन्य’ ग्रहण किया गया और इस प्रकार काल के लक्षण बताए गए – अन्य के सापेक्ष प्राचीनता या अर्वाचीनता का बोध, साथ-साथ या अलग-अलग घटित होने का बोध और देरी से या शीघ्रता से घटने का बोध – ये काल के चिह्न हैं। तीसरे भाष्य में काल के लक्षणों की व्याख्या इस प्रकार की गई – पहले या अभी एक साथ घटना या एक-साथ नहीं घटना, पहले या अभी देरी से होना या देरी से नहीं होना, पहले या अभी शीघ्रता से होना या शीघ्रता से नहीं होना – ये काल के चिह्न हैं।
वैशेषिक सूत्रों में ही आगे कहा गया कि काल वायु की तरह ही द्रव्य और नित्य (eternal) है। काल क्रियावान है, क्योंकि काल लगे बिना कोई उत्पादन (work) नहीं हो सकता है। काल विभु अर्थात् ब्रह्मांडव्यापी है। काल एक ही है, यद्यपि यह अलग-अलग अनित्य वस्तुओं में अलग-अलग प्रतीत होता है। काल नित्य परमात्मा की तरह नित्य है, अतएव काल सबका कारण है, काल का कारण कोई नहीं है। न्याय मुक्तावली में कहा गया, ” जन्यानां जनकः कालः।” अर्थात् सभी जन्म लेने वालों का जनक काल है। महाभारत के आदिपर्व १. २७२ – २७६ में काल का वर्णन इस प्रकार है –
” कालमूलमिदं सर्वं भावाभावौ सुखासुखे। कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजा:॥ संहरन्तं प्रजा कालं कालः शमयते पुनः। कालो विकुरुते भावान् सर्वांल्लोके शुभाशुभान्॥ कालः संक्षिपते सर्वा: प्रजा: विसृजते पुनः। कालः सुप्तेषु जागर्ति चरत्यविधृतः समः॥ अतीतानागता भावा ये च वर्तन्ति साम्पतम्। तान् कालनिर्मितान् बुद्धवा न संज्ञा हातुमर्हसि॥ ”
(सृष्टि-संहार, सुख-असुख – इन सबके मूल में काल है। काल प्रजा (अव्यक्त महत् आदि) की सृष्टि करता है। सृष्टि का संहार करते हुए काल को काल ही शांत करता है। सृष्टि में काल ही सभी शुभाशुभ भावों में परिवर्त्तन करता है। काल सारी सृष्टि को समेटता है और इसका संहार करता है। जब सभी सोये रहते हैं, तब काल जागता रहता है। वह एक सा अबाध गति से घूमता रहता है। भूत, भविष्य और वर्त्तमान – सारी सृष्टि को काल निर्मित समझकर व्याकुल नहीं होना चाहिए।”
काल के इन्हीं गुणों के कारण द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक भारत के ग्रीनविच उज्जैन स्थित शिवलिंग को महाकाल कहा गया। इसी तरह काल की अधिष्ठात्री काली कहलायीं। काल मृत्यु के देवता यम का पर्याय है, क्योंकि अनित्य जीवों की कालावधि नियत होती है। काल इसी कारण काला है और काली भी विकराल वदना श्यामा हैं। काल किसी को नहीं छोड़ता है, अतएव काली जिह्वा लपलपाती हैं। वह मुण्डमाल धारण करती हैं, जो असंख्य मानवों के लय का प्रतीक है। काली की चतुर्भुजा चार पुरुषार्थों – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक है।
काल के लिए अंग्रेजी में टाइम (time) शब्द प्रयुक्त होता है, जो इटालियन शब्द टेम्पो (tempo) और लैटिन शब्द टेम्पस (tempus) के करीब है और ऋतुचक्र और कालावधि के अर्थ में प्रयुक्त होता है। टेम्पस वस्तुतः तनना या विस्तार होना है और टेम्पररी (temporary) काल का सीमित विस्तार या अत्यंत लघु कालखंड है। अन्यत्र विश्व में काल का एकदिश अनंत विस्तार माना जाता है, किंतु भारत में ऋतुचक्र की बारंबारता के कारण कालचक्र स्वीकारा जाता है अर्थात् काल की वृत्तीय गति मानी जाती है।
वैदिक साहित्य में सत्य और ऋत को अत्यधिक महत्व प्राप्त है। ऋत सही या प्राकृतिक नियम को कहा जाता है और ऋतु (season) प्रकृति के नियम का अनुसरण करती है। भारत में मुख्यतः छह ऋतुएँ होती हैं – वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर। चूँकि ऋतु की गति चक्रवत् मानी जाती है, अतएव वर्ष की शुरुआत किसी भी ऋतु से संभव है। वैसे ‘वर्ष’ शब्द का उद्भव ‘वर्षा’ ही है। वर्त्तमान समय में प्रायः भारतीय नववर्ष का आरंभ वसंत (चैत्र-वैशाख) से होता है, जिसका समय मार्च मध्य से मई मध्य तक का ही है। प्राचीन समय में जब रोमन कैलेंडर दस महीनों का होता था, तब मार्च ही वर्ष के मार्च (प्रयाण) का समय था। किंतु जूलियन और फिर ग्रेगोरियन कैलेंडर में जनवरी और फरवरी दो माह जोड़ दिए गए। जनवरी (January) शब्द का मूल द्वार के रोमन देवता जेनस (Janus) से माना जाता है। कहते हैं कि जेनस के दो सिर – सामने और पीछे थे। इस प्रतीक का अर्थ है – जनवरी द्वारा पिछले वर्ष की विदाई और नए वर्ष का स्वागत। लैटिन में जेनस को आयनस (Ianus) कहा गया, जो संस्कृत के ‘अयन’ शब्द के करीब है।’अयन’ का अर्थ है – चलना। जनवरी सूर्य के उत्तरायण का समय अर्थात् उत्तरी गोलार्द्ध में मकर (Capricorn) वृत्त पर जाने का समय है। मकर से गंगा के वाहन और मकरन्द (भ्रमर) का भी बोध होता है। अतएव मकर संक्रांति गंगातट पर स्नान-दान आदि का है और जनवरी में पौष (पुष्पन के देवता पूषन, Pan) की समाप्ति और माघ (मघ, अयन, चलना) के आरंभ हो जाने से प्रकृति पुष्पों से आच्छादित हो जाती है, इसलिए यह मकरन्द का माह भी है। प्रकृति के श्री युक्त हो जाने से ऐसा लगता है, मानो वसंत का शीघ्र आगमन हो गया हो, अतः माघ शुक्ल पंचमी श्रीपंचमी या वसंत पंचमी कही जाती है। अंग्रेजी के Capricorn का संबंध caper अर्थात् बकरी से है और पैन यूनान का चरवाहा देवता था, जिसका आधा शरीर बकरी जैसा था। जब वह जंगल में बाँसुरी बजाता था, तब भेड़-बकरियाँ डर जाती थीं, इसलिए Pan से ही अंग्रेजी का panic शब्द बना। जानवरों के रोमन देवता Fauna और वैदिक देवता पूषन का स्वरूप पैन जैसा ही है। पूषन वस्तुतः पोषण के देवता (सूर्य का एक रूप) हैं, अतएव जनवरी खान-पान और वनभोज का समय है।
अंततः काल का एक पर्याय ‘समय’ है। समय ‘इ’ धातु से बनता है – सम् + इ + अच् – सम्यक एतीति समयः। ‘इ’ का अर्थ है गति। जो बराबर गतिमान रहे, अर्थात् चलता-चलाता रहे, वही समय है। नववर्ष में आप गतिमान होते हुए अपने-अपने गंतव्य को पाएँ। शुभकामना।

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राजेश करमहे
काशी हिंदू विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर एवं हैदराबाद विश्वविद्यालय से पी जी डिप्लोमा इन लाईब्रेरी ऑटोमेशन के पश्चात् आकाशवाणी मे कार्यरत| १९९६ में आकाशवाणी वार्षिक पुरस्कार में मेरिट सर्टीफिकेट| पठन-पाठन एवं आध्यात्म में रूचि|

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