व्यंग्य बाण : बातों और वायदों का ओलम्पिक

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विजय कुमार 

शर्मा जी बचपन से ही खेलकूद में रुचि रखते हैं। यद्यपि उन्होंने आज तक किसी प्रतियोगिता में भाग नहीं लिया। इसलिए पुरस्कार जीतने का कोई मतलब ही नहीं; पर कबाड़ी बाजार से खरीदे कप, ट्रॉफी और शील्डों से उनका कमरा भरा है, जिसे वे हर आने-जाने वाले को विभिन्न राज्य और राष्ट्र स्तर की प्रतियोगिताओं में जीता हुआ बताकर बड़े गर्व से दिखाते हैं।

हर बार की तरह इस बार भी ओलम्पिक के लिए शर्मा जी के मन में बड़ी उत्सुकता थी। उनकी लंदन जाकर भारतीय खिलाड़ियों का उत्साहवर्धन करने की बहुत इच्छा थी; पर हवाई जहाज से वहां तक जाने लायक पैसे जेब में नहीं थे, और साइकिल से कोई साथ जाने वाला नहीं मिला। मजबूरी में दूरदर्शन के सामने बैठकर खेलों का दूर से दर्शन करते रहे; पर बुरा हो सुशील कुमार शिंदे का, उन्होंने दो दिन बत्ती गुलकर दूर से देखने का आनंद भी नहीं लेने दिया।

भारतीय खिलाड़ियों ने इस बार पहले से दुगने पदक जीते, इससे शर्मा जी बहुत खुश हैं। उनकी इच्छा है कि वे भी खिलाड़ियों को सम्मानित करें। इसके लिए उन्होंने कई बार सम्पर्क का प्रयास किया; पर विजेता खिलाड़ी इन दिनों करोड़ों में खेल रहे हैं। उन्हें बड़े नेताओं और उद्योगपतियों से सम्मानित होने से ही फुर्सत नहीं है, इसलिए शर्मा जी के घर कौन आता ?

शर्मा जी को इस बात की बहुत पीड़ा है कि सवा अरब जनसंख्या वाले भारत देश का नाम पदक तालिका में बहुत नीचे है। खिलाड़ी और उनके रिश्तेदार, प्रशिक्षक, मालिश करने वाले, रसोइये, चिकित्सक, सरकारी मेहमान और ऐरे-गैरे मिलाकर सैकड़ों लोग वहां गये थे; पर लाये क्या ? केवल छह पदक। इससे तो लाख-दो लाख जनसंख्या वाले वे देश अच्छे हैं, जो स्वर्ण पदक ले गये।

अधिकांश देशवासियों का मानना है कि खेलों में राजनीति होती है, इसलिए यह गड़बड़ है। यहां खिलाड़ियों को प्रशिक्षण की वैसी सुविधाएं और उपकरण उपलब्ध नहीं होते, जैसे दुनिया के अन्य देशों में हैं। जीतने के बाद उन्हें भरपूर पुरस्कार भी नहीं मिलते। यदि ऐसी व्यवस्था भारत में हो, तो हम भी सैकड़ों पदक जीत सकते हैं।

पर मौलिक चिन्तन के धनी शर्मा जी इससे सहमत नहीं हैं। वे पदक तालिका में भारत के फिसड्डी रहने को अन्तरराष्ट्रीय षड्यन्त्र बताते हैं। उनका कहना है कि ओलम्पिक संघ ने जानबूझ कर उन खेलों को प्रतियोगिताओं से बाहर रखा है, जिसमें हम पुरस्कार जीत सकते हैं।

उदाहरण के लिए यदि ओलम्पिक में बातों और वायदों की प्रतियोगिता हो, तो इसके सारे पदक भारत के हिस्से में ही आएंगे। विश्वास न हो, तो पहले स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का दिया भाषण देखें या 15 अगस्त, 2012 को लाल किले से दिया गया मनमोहन सिंह का भाषण। तब भी रोटी, कपड़ा और मकान के वायदे किये गये थे। अनुशासन और कड़ी मेहनत की बात कही गयी थी, और आज भी उन्हें ही दोहराया जा रहा है।

इंदिरा गांधी ने चालीस साल पहले ‘गरीबी हटाओ’ का नारा लगाकर चुनाव जीता था। उसके बाद आम आदमी की तो नहीं; पर राजनेताओं की कई पुश्तों की गरीबी जरूर हट गयी। इसलिए नेता अरबों-खरबों में खेलते हैं, जबकि आम आदमी आज भी भूखे पेट सो रहा है।

इन दिनों असम में हुए दंगे चर्चा में हैं। 1985 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने असम के युवा आंदोलनकारियों से एक समझौता किया था। उसके अनुसार 1971 के बाद असम में घुसे बंगलादेशियों को वापस भेजने की बात कही गयी थी; पर उन्हें भेजना तो दूर, अभी तक उनकी पहचान ही नहीं हुई है।

असम में रहने वाला हर व्यक्ति जानता है कि कौन यहां का मूल निवासी है और कौन घुसपैठिया; पर हमारे महान शासकों को यह दिखाई नहीं देता। उस समझौते को 25 साल बीत गये। इस दौरान घुसपैठियों की संख्या एक करोड़ से बढ़कर पांच करोड़ हो गयी। पहले वे मुख्यतः असम में ही थे; पर अब वे पूरे देश में महामारी की तरह फैल गये हैं। असम शासन ने केन्द्र को बता दिया है कि उन्हें निकालना अब संभव नहीं है। मजे की बात यह है कि दोनों ही जगह कांग्रेस की सरकार है।

वायदे कई और भी थे। हर युवा को रोजगार देने का वायदा था, हर किसान को खाद और पानी देने की बात थी। ये वायदे सरकारी फाइलों में भले ही पूरे हो गये हों; पर शायद ही कोई दिन जाता हो, जब अखबार में किसी नौजवान या किसान की आत्महत्या की खबर न छपती हो। वायदा तो महिलाओं को सुरक्षा देने का भी था; पर गुवाहाटी में हुई छेड़छाड़ से लेकर गीतिका शर्मा तक के किस्से आम हो रहे हैं। आम आदमी की सुरक्षा के लिए बने पुलिस थाने ही उनके लिए सबसे अधिक अरक्षित हो गये हैं।

भ्रष्टाचार की बात करें, तो इस क्षेत्र में भारत का स्थान सर्वोपरि है। ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह जीप घोटाले से लेकर बोफोर्स तक और फिर टू जी स्पैक्ट्रम से लेकर कोयले की दलाली तक वर्तमान सत्ताधीशों ने अपने हाथ और मुंह इतने अधिक काले कर लिये हैं कि उन्हें पहचानना कठिन हो गया है। किसी ने ठीक ही कहा है कि शर्म की सीमा होती है, बेशर्मी की नहीं।

बड़े घोटालों को यदि बड़े लोगों के लिए जानें दें, तो अपनी रोटी के लिए संघर्ष करते हुए परिवार को पालने वाला शायद ही कोई व्यक्ति हो, जिसका पाला रिश्वत से न पड़ा हो। यदि कोई हो, तो मेरा राष्ट्रपति महोदय से अनुरोध है कि वे उसे अगली 26 जनवरी को पद्म पुरस्कार से सम्मानित करें। यदि पुराने पुरस्कार की परिधि में वह न आ सके, तो कोई नया पुरस्कार ही घोषित कर दें।

ऐसे खेलों की सूची तो बहुत लम्बी हो सकती है; पर फिलहाल ओलम्पिक वाले इन्हें ही शामिल कर लें। अगला ओलम्पिक 2016 में है। शर्मा जी को पूरा विश्वास है इन खेलों के स्वर्ण से लेकर कांस्य तक, सब पदक भारत ही जीतेगा। फिर हम भी पदक तालिका में अपना नाम नीचे नहीं, बल्कि ऊपर की ओर देखेंगे और शर्म से सिर झुका लेंगे।

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