विश्व पर्यावरण दिवस : निर्वाह परंपरा का

डॉ. राजू पाण्डेय

1972 में हुई यूनाइटेड नेशन्स कांफ्रेंस ऑन द ह्यूमन एनवायरनमेंट के प्रथम दिवस को संयुक्त राष्ट्र संघ की सामान्य सभा द्वारा विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। 1974 से प्रत्येक वर्ष एक विशेष थीम को आधार बनाकर यह मनाया जाता है और 1987 से इसका कोई मेजबान देश चुने जाने की परंपरा रही है। इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस की थीम है- ‘Connecting People to nature – in the city and on the land, from the poles to the equator’. इस वर्ष का मेजबान देश कनाडा है। जैसी कि परिपाटी है इस दिवस के अवसर पर पर्यावरण जागरूकता लाने के लिए प्रयास किए जाते हैं। बावजूद बढ़ते प्रचार के, लोगों में बढ़ती जागरूकता के और विश्व स्तर पर गंभीरता से होते दिखते प्रयत्नों के, पर्यावरण पर संकट गहराया है। कई बार ऐसा भी बोध होता है कि लोग तो पर्यावरण को बचाना चाहते हैं किंतु विभिन्न देशों की सरकारें इस संबंध में दोहरा मापदंड अपनाती हैं।
अरस्तू ने कहा था कि प्रकृति की सारी संरचनाएं मनुष्य के लिए निर्मित हैं। इसे हम प्रकृति के बारे में मानव केंद्रित विमर्श का आधार मान सकते हैं। इस विचारधारा के अनुसार प्रकृति और उसका संरक्षण इस लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह मनुष्य के लिए उपयोगी है। अर्थात प्रकृति का साधन मूल्य है और इसके माध्यम से हम मानव जीवन को सुख,सुविधा और सम्पन्नता दे सकते हैं। प्रकृति के संरक्षण का दूसरा विचार यह है कि प्रकृति और उसके संघटक अपने आप में मूल्यवान और महत्वपूर्ण हैं भले ही वे मनुष्य के लिए उपयोगी हों अथवा न हों, इस लिए उन्हें यथारूप में संरक्षित करना चाहिए। प्रथम विचार मानव स्वार्थ और उपयोगिता के अनुसार प्रकृति का संरक्षण करने को वरेण्य मानता है और दूसरा विचार इस धारणा को ख़ारिज करता है कि मनुष्य अन्य प्राणियों और प्राकृतिक संरचनाओं से अधिक महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ है। कुछ दार्शनिकों ने जेनेसिस 1: 27–8 के कथन- “God created man in his own image, in the image of God created he him; male and female created he them. And God blessed them, and God said unto them, Be fruitful, and multiply, and replenish the earth, and subdue it: and have dominion over fish of the sea, and over fowl of the air, and over every living thing that moveth upon the earth.” – को उद्धृत कर यह स्थापित करने की चेष्टा की कि पाश्चात्य विज्ञान के विकास का आधार ईसाई धर्म का यह विचार है।
मार्च 2017 में जब नैनीताल हाई कोर्ट ने गंगा नदी और अन्य प्राकृतिक संरचनाओं को एक जीवित इकाई का दर्जा दिया तो गंगा न्यूज़ीलैंड की वानकुई नदी के बाद यह दर्जा पाने वाली केवल दूसरी नदी बनी। यह फैसला हम लोगों के लिए आश्चर्य का विषय हो सकता है लेकिन हमारे लिए यह जानना रोचक होगा कि क्रिस्टोफर स्टोन जो साउदर्न कैलिफ़ोर्निया विश्विद्यालय के प्राध्यापक थे 1972 में ही न्यायालय से वृक्षों और प्राकृतिक संरचनाओं हेतु कम से कम कारपोरेशन के दर्जे की मांग कर चुके थे जो न्यायालय द्वारा एक नजदीकी फैसले में जजों के बहुत थोड़े बहुमत द्वारा तकनीकी कारणों से नामंजूर कर दी गई थी तथापि स्टोन के विचारों का ससम्मान उल्लेख फैसले में किया गया।लगभग इसी वर्ष में नेपाल के शेरपाओं की हिमालय पर्वत श्रृंखला के कतिपय पर्वतों को पवित्र मानकर उन पर आरोहण न करने की परंपरा से प्रभावित होकर कुछ स्कॅन्डिनेवियन बुद्धिजीवियों ने डीप इकोलॉजी की अवधारणा दी जिसके अनुसार प्रकृति अपने अन्तस्थ मूल्य के कारण महत्वपूर्ण है न कि मनुष्य के लिए उपयोगिता के कारण। डीप इकोलॉजी के समर्थक प्रचलित पर्यावरणीय विमर्श को शैलो इकोलॉजी की संज्ञा देते हैं जो विकसित देशों के नागरिकों की सुख सुविधा के लिए प्रदूषण नियंत्रण व संसाधनों के प्रबंधन पर आधारित है।
प्रकृति और पर्यावरण के सम्बन्ध में नारीवादी विमर्श भी कम महत्वपूर्ण नहीं है जो यह मानता है कि पितृसत्तात्मक पुरुषप्रधान समाज प्रकृति को नारी के साथ संयुक्त करता है और उसका उपभोग, शोषण एवं तिरस्कार करता है। आज इकोफेमिनिज्म की संसार में वही स्थिति है जो नारियों और नारीवाद की है।
यह भी एक विचारणीय प्रश्न हो सकता है कि मार्क्सवाद और पूंजीवाद क्या प्रकृति और पर्यावरण के प्रति भिन्न भिन्न धारणाएं रखते हैं अथवा दोनों के लिए प्रकृति संसाधन का दर्जा रखती है। बहरहाल फ्रैंकफर्ट स्कूल के नव मार्क्सवादी मानते हैं कि यह सिद्धान्त कि मानव स्वभाव और प्रकृति को विज्ञान द्वारा पढ़ा,समझा,परिभाषित एवं परिवर्तित किया जा सकता है, मानव स्वभाव एवं प्रकृति दोनों की रहस्यमयता एवं आकर्षण को समाप्त कर देता है और उन्हें उपभोग के योग्य बनाकर दमन को बढ़ावा देता है। बाह्य प्रकृति का दमन, मनुष्य की आंतरिक प्रकृति के दमन के बाद ही संभव है।
पर्यावरण के संबंध में एक महत्वपूर्ण उपागम सोशल इकोलॉजी का है। यह विचारधारा भौतिक पर्यावरण को फर्स्ट नेचर एवं संस्कृति को सेकंड नेचर का दर्जा देती है। फर्स्ट नेचर से सेकंड नेचर पैदा होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार पर्यावरणवाद एक सामाजिक आंदोलन है तथा पर्यावरण की समस्याएँ अंततः सामाजिक प्रश्नों के समाधान के द्वारा हल होती हैं। मनुष्य सचेतन प्रकृति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो अपनी चेतना,बुद्धिमत्ता एवं सामाजिकता का उपयोग प्रकृति की सेवा और रक्षा के लिए कर सकने में समर्थ है।
पाश्चात्य उपभोगवादी विचारधारा से बिलकुल हटकर भारतीय आध्यात्मिक परंपरा है। वेदों को प्रगतिशील चिंतक भी प्रकृति का गौरव गान एवं प्राकृतिक सत्ता के प्रति आश्चर्य, विस्मय एवं श्रद्धा की अभिव्यक्ति मानते हैं। भारतीय संस्कृति पशु-पक्षी-पादप, वन-पर्वत-नदियों सब के लिए असाधारण आदर रखती है और इनमें से कितने ही देवी-देवताओं के रूप में हमारे उपास्य हैं। मनुष्य की आध्यात्मिक यात्रा का प्रारंभ जैन धर्म के जिन पांच महाव्रतों के पालन से होता है उसमें अपरिग्रह भी एक है जो आवश्यकता से अधिक संचय को आत्मोन्नति में बाधक बताता है। यह संदेश देता है कि जितना आवश्यक है उतना ही प्रकृति से लें। अहिंसा बौद्ध धर्म के पंचशील का भी एक अंग है। बौद्ध और जैन धर्म अहिंसा के सूक्ष्मतम और व्यापकतम स्तर तक हमें ले जाते हैं और इस प्रकार निरीह पशुओं और मूक वृक्षों की रक्षा को हमारे लिए बाध्यकारी बनाते हैं। मानव शरीर को हमारी संस्कृति पंचतत्वों से बना मानती है और इस प्रकार प्रकृति से हमें अविभाज्य रूप से संयुक्त कर देती है। हमारे सारे पर्व प्रकृति से अभिन्न रूप से जुड़े हैं। महात्मा गाँधी ने भारतीय संस्कृति की इन विशेषताओं का समावेश ग्राम स्वराज्य की अपनी अवधारणा में किया था। वे लिखते हैं-“ इस तरह हर ग्राम का प्रथम कार्य यह होगा कि वह अपनी आवश्यकता का अन्न एवं वस्त्र हेतु कपास स्वयं उत्पन्न कर ले। उसके पास इतनी सुरक्षित भूमि होनी चाहिए कि पशु चर सके और ग्राम के वयस्कों एवं बालकों हेतु मनोरंजन के साधन और क्रीड़ांगन आदि का प्रबंध हो सके। जल के लिए उसका अपना प्रबंध हो-वाटर वर्क्स हों-जिनसे ग्रामवासियों को शुद्ध पेयजल मिले। कुंओं और तालाबों पर ग्राम का सम्पूर्ण नियंत्रण रखकर ऐसा संभव है।“ गाँधी जी के विचारों का प्रसंगवश उल्लेख इसलिए नहीं कि हमें उनके मार्ग पर चलना है, अपितु इस लिए कि हमें ज्ञात हो कि भौतिक समृद्धि को सर्वोपरि मानने वाले पूँजीवाद और साम्यवाद के प्रति हमारे आकर्षण के कारण हमने एक उत्तम स्वदेशी विकल्प को किस तरह त्याग दिया।
प्रायोगिक दृष्टि से देखें तो वैश्विक स्तर पर पर्यावरण से सम्बंधित मामलों में विकसित देशों का बोलबाला रहा है। यही कारण है कि इस विचार का जन्म हुआ कि स्वच्छ पर्यावरण उच्च प्रतिव्यक्ति आय वाले खाते पीते लोगों की विलासितापूर्ण आवश्यकता है। इकोलॉजिकल फुटप्रिंट के द्वारा किसी देश द्वारा उपभोग किए जा रहे जैविक रूप से उत्पादक क्षेत्र एवं उसके लिए उपलब्ध जैविक रूप से उत्पादक क्षेत्र का अनुपात ज्ञात किया जा सकता है। इसके माध्यम से यह तथ्य सामने आता है कि विकसित देश अपने क्षेत्र में उपलब्ध जैविक रूप से उत्पादक क्षेत्र की तुलना में बहुत अधिक जैविक उत्पादक क्षेत्र का उपयोग कर रहे हैं। इनकी तुलना में अविकसित एवं विकासशील देशों द्वारा उपभोग किए जा रहे और उपलब्ध जैविक उत्पादक क्षेत्र में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। विकसित देश, नव उपनिवेशवाद और वैश्वीकरण तथा कॉर्पोरेटाइजेशन के युग में इन पिछड़े देशों के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपने आर्थिक विकास के लिए कर रहे हैं। इस तरह वे प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन से उत्पन्न असंतुलन एवं प्रदूषण और औद्योगिक कचरे के निपटान जैसी समस्याओं से तात्कालिक रूप से निजात पाने में सफल रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ में भी विकसित देशों के पर्यावरण हितों की सुनवाई होती है और इनके लिए फण्ड भी दिया जाता है,पिछड़े देशों की समस्याएँ अनसुनी रह जाती हैं। विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर विश्व बैंक तथा विश्व मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं का दबाव,ऋण ग्रस्तता,आंतरिक राजनीतिक संकटों से निपटने में इन देशों की सरकारों को विकसित देशों द्वारा दी जाने वाली सहायता, ऐसे कारक रहे हैं जिनकी मदद से बहुराष्ट्रीय कंपनीज़ इन पिछड़े देशों में निरंकुश हुई हैं और स्थानीय स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार का उपयोग कर इन्होंने इन देशों के पर्यावरण को विनष्ट कर डाला है। स्वयं हमारे ही देश में उद्योगों के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने हेतु सड़कों व रेल मार्गों के निर्माण के लिए, उद्योगों को बिजली देने के लिए हाइड्रो पावर उत्पादनार्थ विशाल बांधों के निर्माण के नाम पर,पर्यटन उद्योग हेतु अधोसंरचना विकास के लिए, कोयले पर आधारित विद्युत् उत्पादन और इस्पात संयंत्र हेतु हजारों वर्ष पुराने वन पारिस्थितिक तंत्र को मूर्खतापूर्ण ढंग से बड़ी निर्ममतापूर्वक उजाड़ दिया गया है। इन उद्योगों में महंगी प्रदूषण नियंत्रण तकनीकी का उपयोग मुनाफे के लालच में नहीं किया जाता, प्रदूषण नियंत्रण संस्थाएं या तो भ्रष्टाचार की शिकार हैं या राजनीतिक दबाव के आगे विवश हैं।फलतः इंडस्ट्रियल वेस्ट बिना उपचारित किए नदियों में प्रवाहित हो रहा है, फ्लाई ऐश को रिहायशी और कृषि क्षेत्रों में बड़ी बेरहमी के साथ डंप किया जा रहा है। भयानक कुहरा दिल्ली और उत्तर भारत की नियति है तो बंगलोर की झील विषैला झाग उगल रही है। उत्तराखंड में वनों के विनाश के बाद आई बाढ़ से हमने कुछ सीखा हो ऐसा नहीं लगता। गर्मी के मामले में छत्तीसगढ़ राजस्थान को मात दे रहा है। प्राकृतिक संसाधनों में समृद्ध होने की कीमत चुकाता यह धान का कटोरा घटते वन क्षेत्रों, उजड़ती कृषि भूमि और नीचे जाते भूजल स्तर के साथ घायल और छतविच्छत पारिस्थितिक तंत्रों का समूह बन कर रह गया है। छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में वन और वनवासियों की आहुति दे विकास का यज्ञ जारी है।
पर्यावरणविद जानते हैं कि हजारों साल लगते हैं तब कोई पारिस्थितिक तंत्र निर्मित और स्थिर होता है। इस तंत्र की व्यापक जैव विविधता में हजारों वनस्पतियों एवं जीवों की प्रजातियों का समावेश होता है और इसके प्रत्येक सदस्य का अद्वितीय महत्व होता है। जब विकास के नाम पर हजारों वृक्षों को एक रात में काट दिया जाता है तो प्रकृति का हजारों वर्षों का परिश्रम नष्ट हो जाता है। बदले में जो वृक्षारोपण होता है वह शव का श्रृंगार करने जैसा है और इसमें भी भ्रष्टाचार अनिवार्यतः किया जाता है जो चारित्रिक पतन की पराकाष्ठा है। आप यदि यह विश्वास करते हैं कि निरीह नागरिकों में सिविक सेंस का विकास अंधाधुंध औद्योगीकरण जनित पर्यावरण विनाश की भरपाई कर सकता है तो निश्चित ही आप विश्व के सबसे बड़े आशावादी हैं

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