संजय सक्सेना
देश-दुनिया विकास की नईं ऊचाइंया छू रही है। इंसान चांद पर पहुंच गया है। अंतरिक्ष की गतिविधियां अब हमारे लिये ज्यादा रहस्यमयी नहीं रह गई है। रूढ़िवादी और दकियानूसी बातें अब हमारा रास्ता नहीं रोकती हैं।यह सच्चाई है,लेकिन अधूरी। हमने विकास की नई ऊंचाई हासिल की तो इसकी कीमत भी चुकाई। विकास की इस दौड़ में हम मानवता भूल बैठे। अब हमें न तो किसी का दुख परेशान करता है, न किसी की मजबूरी का अहसास होता है। इंसान ने चांद पर छलांग लगाई तो दादा-दादी की कहानियां ही पीछे नहीं छूट गईं बल्कि रिश्तों की हम समझ ही खो बैठे। रूढ़िवादी, दकियानूसी विचारों से हम ऊपर उठे तो हमारी आधुनिकता ने देश-दुनिया को नुकसान भी खूब पहुंचाया। हम, कभी जातिवाद के नाम पर, कभी नक्सलवाद के नाम पर,कभी क्षेत्रवाद के नाम पर तो कभी सीमाओं के नाम पर लड़ते ही रहते हैं। ताज्जुब तो तब होता है जब हम उस धर्म की आड़ में भी खून-खराबा करने लगते हैं जो हमें मानवता का पाठ पढ़ाता है। प्यार का संदेश देता है। ऐसे धर्म की आड़ में किन्हीं बेगुनाहों को मौत के घाट उतार दिया जो तो यह मानवता के लिये तो कलंक है ही,इसके साथ ही उंगली उन पर भी उठना स्वभाविक है जो तमाम मंचों पर उदारवादी होने का दिखावा तो करते हैं, लेकिन ऐसी घटनाओं पर मुंह तभी खोलते हैं, जब उनके मुंह में उंगली डाल कर बुलवाया जाता है। सच को सच और झूठ को झूठ,सही को सही और गलत को गलत कहने की ताकत नहीं रखने वाले यह कथित उदारवादी चेहरे पूरी दुनिया में दिखाई पड़ जाते हैं। पूरी दुनिया के साथ-साथ एशियाई देशों और खासकर हिन्दुस्तान में तो ऐसे चेहरों की संख्या लाखों-करोड़ों में है जो अपनी सहूलियत के हिसाब से मुंह खोलते और बंद रखते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप दुनिया भर में आतंकवाद दिन पर दिन मजबूत होता जा रहा है। जब पढ़ी लिखी युवा पीढ़ी के लिये भी आतंकवाद आकर्षण का केन्द्र जाये तो हालात कितने बदत्तर होते जा रहे हैं।इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। समय आ गया है कि मुस्लिम बुद्धिजीवी युवाओ ंको यह बताये कि उनके आर्दश आंतकवादी संगठन आईएस, लश्कर, बगदादी, लादेन,मुल्ला उमर जैसे हत्यारे नहीं हो सकते हैं। उन्हें मोहम्मद साहब के बताये और दिखाये रास्ते पर ही चलना होगा।उन लोंगो से बचकर रहना होगा जो अपने हित साधने के लिये कुरान की गलत व्याख्या करके आतंकवाद को सही ठहराने की साजिश रचते हैं।
बांग्लादेश की राजधानी ढाका में हुए आतंकवादी हमले में हमलावर पढ़े-लिखे नौजवान और अमीर घरों के थे। इस बात का पता चलने के बाद भले ही कुछ लोग आश्चर्य व्यक्त कर रहे हों, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। आतंकवाद बढ़ने की जितनी बड़़ी वजह अज्ञानता है, उससे अधिक आतंकवाद को बढ़ावा शिक्षित और सभ्य कहलाये जाने वाला समाज देता है। ढाका हमले में मारे गए 6 आतंकी बड़े स्कूलों से पास आउट और अमीर घरों के थे। इनमें से रोहन इब्ने इम्तियाज बांग्लादेश की रूलिंग पार्टी के नेता का बेटा बताया गया। यह बात ज्यादा मायने नहीं रखती है। इससे गंभीर मुद्दा यह है कि क्या एक धर्म विशेष को मानने वालों को ही इस दुनिया में रहने का अधिकार है। पूरी कायनात में इस्लाम का ही झंडा फहराया जाना अगर किसी कौम के अधिकांश लोंगो का (प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर) मकसद बन जाये तो स्थिति की गंभीरता का अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। सोशल मीडिया पर कुछ लोग हैरानी जता रहे हैं कि पढ़े-लिखे लड़के ऐसा कैसे कर सकते हंै। बता दें कि पहली जून को ढाका के डिप्लोमैटिक एरिया में एक रेस्टोरेंट पर हुए आतंकी हमले में 20 विदेशी मारे गए थे। इस हमले में आतंकवादियों ने उन सभी को मौत के घाट उतार दिया था जो कुरान की आयत नहीं सुना सके थे। आतंकियों ने बंधकों से कुरान की आयतें सुनाने को कहा। जिन्होंने सुना दीं, उन लोगों से अच्छा व्यवहार किया गया।उनको बढ़िया खाना खिलाकर छोड़ दिया गया, जो नहीं सुना पाये उन्हें गैर इस्लामी मानकर मौत के घाट उतारा गया।
भले ही बांग्लादेश सरकार आतंकी हमले के पीछे पाकिस्तान का हाथ होने की संभावना व्यक्त कर रहा हो लेकिन ऐसे लोंगो की संख्या भी कम नहीं है जो मानते हैं कि इस आतंकवादी हमले के लिये इस्लाम को मानने वाला हर वह शख्स जिम्मेदार है जो ऐसे मौकों पर चुप्पी साधे रखता है। खासकर,हिन्दुस्तान के मुसलमान जिनके बारे में आम धारणा यही है कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्षधर हैं, उन्हें ऐसे मौकों पर आगे आना चाहिए, लेकिन ऐसा होता दिखा कभी नहीं,जो मुसलमान यह मानते हैं कि आंतकवाद सिर्फ इस्लाम को न मानने वालों के लिये खतरा हैं तो उनके लिये इराक की राजधानी बगदाद में हुई घटना को भी याद रखना होगा,जहां आतंकवादी संगठन आईएस ने 03 जुलाई 2016 को आंतकवादी वारदात करके 120 मुसलामनों को मौत के घाट उतार दिया। यह कोई पहली घटना नहीं थी।कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि मुसलमान की पहचान आतंकवाद से जुड़ती जा रही है। थोड़े समय के लिये यह कहकर दिल को बहलाया जा सकता है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता है,परंतु हकीकत यही है जब तक मुसलमानों के भीतर से ही आतंकवाद के खिलाफ आवाज उन्हीं उठेगी तब तक दुनिया का भला होने वाला नहीं है। यह सच है कि आतंकवाद को रोकने के लिये उसकी जड़ों को तलाशना होगा, परंतु यह काम सिर्फ दूसरों पर आरोप लगाकर पूरा नहीं किया जा सकता है। यहां यह बताना भी जरूरी है कि बांग्लादेश में पिछले 18 महीने के दौरान अल्पसंख्यकों (खासकर हिन्दुओ) पर कई हमले हुए,लेकिन जांच एजेंसियों और सरकार ने हर हमले के बाद इसकी जिम्मेदारी स्थानीय ग्रुपों पर डाल कर अपने कृतव्यों की इतिश्री कर ली। इसी के परिणाम स्वरूप आतंकवादियों के हौसले बढ़े,उनको संरक्षण देने वालों की भी लिस्ट लम्बी होती गई। सबसे दुखदःस्थिति तब आती है कि जब कोई सच्चा मुसलमान हिम्मत करके ऐसे कृत्यों की मुखालफत करता है तो उसे अपनी कौम का साथ मिलने की बजाये अलग-थलग कर दिया जाता है। रमजान के पवित्र महीने में भी इस तरह की वारदातें होना तो यही बताता है कि कुछ लोग इस्लाम से ऊपर हो गये हैं। यह लोग अपने हिसाब से इस्लाम की परिभाषा तय करना चाहते हैं। पूरी दुनिया पर नजर दौड़ाई जाये तो अफगानिस्तान,पाकिस्तान,बांग्लादेश, इराक,तुर्की,सीरिया, आदि तमाम इस्लामी देशों में आतंकवाद सबसे गंभीर समस्या बना हुआ है। विश्व में 52 इस्लामी देश हैं,लेकिन कोई भी इस्लाम की शिक्षा को नहीं मानता है। जब एक ही मजहब के लोंगो का धर्म के नाम पर खून बहाया जायेगा। अच्छे आतंकवाद और बुरे आतंकवाद के नाम पर इसे कहीं गलत तो कहीं सही ठहराया जायेगा तो आतंकवाद किसी एक कौम या मुल्क के लिये नहीं बल्कि मानवता के लिये बड़ा खतरा बन सकता है। नहीं भूलना चाहिए की पूरी दुनिया एटम बम के बटन तक सीमित रह गई है। नहीं भूलना चाहिए, आतंकवादियों से अधिक बड़े गुनहागार वह लोग और देश हैं जो पर्दे के पीछे से आतंकवादियों को संरक्षण देते हैं या फिर ऐसे मामलों में यह सोच कर चुप्पी साधे रहते हैं कि कहीं उनका विरोध न शुरू हो जाये। आतंकवाद के प्रति उदारवादियों की चुप्पी, विश्व की समस्या बनती जा रही है।