विश्व जल दिवस : समाधान सुझाती परंपरायें

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22 मार्च – विश्व जल दिवस 2017 पर विशेष

मौसम विज्ञानियों ने घोषणा कर दी है – ’’गुलाबी ठंड गईय 23 मार्च से पारा तेजी से चढे़गा। हमारे नगरों की जलापूर्ति में कटौती अभी से शुरु हो गई है। तालाबों के सूखने के समाचार अभी से आने लगे हैं। उद्योग चिंतित हैं और किसान भी; किंतु हमें कोई चिंता नहीं। हम भली-भांति जानते हैं कि जल कमी के संकट से उबरने के दो ही तरीके हैं – पानी के उपयोग में अनुशासन और वर्षा जल संचयन; बावजूद इसके हम भारतीय अपनी प्रति व्यक्ति पानी खपत को हर 20 वर्ष में दोगुनी करते जा रहे हैं। बारिश की बूंदो को संजोने की जवाबदेही को भी सरकार का काम मानकर समाज ने अपना कर्तव्य निर्वाह छोड़ दिया है। और तो और जल प्रबंधन के परंपरागत भारतीय तौर-तरीके भी हम भूल बैठे हैं।

हमें याद करने की जरूरत है कि नदी, समुद्र, बादल, जलाश्य आदि के प्रति अपने दायित्वों को याद करने का भारत का तरीका श्रमनिष्ठ रहा है। हम भूल बैठे हैं कि देवोत्थान एकादशी वर्षा के बाद ऐसे समय आती है, जब नम होने के कारण मिट्टी नर्म होती है। उसे खोदना आसान होता है। नई जल संरचनाओं के निर्माण के लिए इससे अनुकूल समय और कोई नहीं। खेत भी खाली होते हैं और खेतिहर भी। जलसंचयन की नई संरचनाओं की रचना का काम इसी दिन से शुरू किया जाता रहा है। इस नाते, भारत का पारंपरिक जलदिवस देवोत्थान एकादशी ही है।

भारत का दूसरा पारंपरिक जल दिवस आखा तीज अर्थात बैसाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि है। अक्षय तृतीया की यह तिथि पानी के पुराने ढांचों की साफ-सफाई तथा गाद निकासी का काम की शुरुआत के लिए एकदम अनुकूल समय पर आती है। बैसाख आते-आते तालाबों में पानी कम हो जाता है। खेती का काम निपट चुका होता है। बारिश से पहले पानी भरने के बर्तनों को झाङ-पोछकर साफ रखना जरूरी होता है। हर वर्ष तालों से गाद निकालना और टूटी-फूटी पालों को दुरुस्त करना। इसके ज़रिये ही भारत सदियों से अपने जलसंचयन ढांचों की पूरी जलग्रहण क्षमता को बनाये रख सका है। बैसाख-जेठ में प्याऊ-पौशाला लगाना पानी का पुण्य हैं। खासकर, बैसाख में प्याऊ लगाने से अच्छा पुण्य कार्य कोई नहीं माना गया। इसे शुरु करने की शुभ तिथि भी आखातीज ही है।

दुर्योग से सरकारी विज्ञापनों जल उपभोग में बचत के हमारे नुख्से अभी मुंह, बर्तन, गाङी धोते वक्त नल खुल रखने की बजाय, मग-बाल्टी और सिंचाई में मजबूत मेड़बंदी, फव्वारा व टपक बूंद पद्धति के उपयोग तक सीमित हैं। इस मामले में अंतर्राष्ट्रीय नजरिया ज्यादा व्यापक है। वे मानते हैं कि पानी…ऊर्जा है और ऊर्जा…पानी। यदि पानी बचाना है तो ऊर्जा बचाओ, उपभोग घटाओ। यदि ऊर्जा बचानी है, तो पानी की बचत करना सीखो। हमें भी अपना नजरिया ज्यादा व्यापक करना होगा।

हमें सोचना होगा कि हम पानी बरसता कम है अथवा हम बर्बाद ज्यादा करते हैं। पानी की मात्रा और गुणवत्ता बचाने के लिए हम संकल्प ले सकते हैं कि मैं अपने लिए पानी के न्यूनतम व अनुशासित उपयोग का संयम सिद्ध करुंगा। दूसरों के लिए प्याऊ लगाउंगा। मैं किसी भी नदी में अपना मल-मूत्र-कचरा नहीं डालूंगा। किसी भी जलसंरचना के शोषण-प्रदूषण-अतिक्रमण के खिलाफ कहीं भी आवाज उठेगी या रचना होगी, तो उसके समर्थन में उठा एक हाथ मेरा भी होगा। याद रहे कि संकल्प का कोई विकल्प नहीं होता और प्रकृति के प्रति पवित्र संकल्पों के बगैर किसी जल दिवस को मनाने का कोई औचित्य नहीं।
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