अनुभूत करना चाहते

अनुभूत करना चाहते
अनुभूत करना चाहते, कब किसी की है मानते;
ना जीव सुनना चाहते, कर के स्वयं ही समझते !
ज्यों वाल बिन अग्नि छुए, माँ की कहाँ है मानता;
जब ताप को पहचानता, तब दूर रहना जानता ।
एक बार जब कर गुज़रता, कहना किसी का मानता;
सुनना किसी की चाहता, सम्मान करना सीखता ।
अनुभूति से उर झाँकता, जलना न फिर से चाहता;
विद्वता अपनी आँकता, अहसास कर पग बढ़ाता ।
पर्यन्त जीवन यह किए, बाधा तरे पल पल जिए;
‘मधु’ रस पिए भक्ति वरे, अनुभव का आदर उर किए !
जाता है इन्सान सीखता !
जाता है इन्सान सीखता, ता-उम्र ख़ुद को समझता;
जग की तरन्नुम बूझता, हर रूह को पहचानता !
आबरू अपनी ढालता, इन्सानियत मन पालता;
देना तवज्जो जानता, आशीष लेना समझता ।
मासूमियत को पकड़ता, अपनी अकड़ वह छोड़ता;
रिश्तों की किश्ती जोड़ता, किश्तों में कलियाँ खिलाता !
हस्ती ज़मीं में मिलाता, आसमान को सर झुकाता;
तालीम वह तामीलता, रूहानियत रूख मोड़ता !
हर ध्यान में सुर छोड़ता, गहरे से गहरा पैठता;
गोदी में गुरु की बैठता, हर ओर ‘मधु’ प्रभु देखता !
सुर सुहाने उर रूहाने !
सुर सुहाने उर रूहाने, आनन्द धारा ले चले;
अज्ञात को कर ज्ञात जग, कितनी विधाएँ दे चले !
विधि जो रचा जो संचरा, है चर अचर जो सँवरा;
अपनी प्रचेष्टा में लगे, उसकी प्रतिष्ठा में पगे ।
निज क्षुद्र तन विक्षुब्ध मन, भव की तमिस्रा मिटाते;
खग मृग को चलना सिखाते, दृग द्रवित को हृद लगाते !
सब आपदा विपदा व्यथा, उर आकलन की जो प्रथा;
विकसित व्यवस्थित हो रही, चिन्मय तरंगित कर रही !
सुन्दर जगत स्वप्निल जुगत, हर प्राण को ले मुहाने;
‘मधु’ से मिलाने ले चले, प्रभु को प्रवाहे उर चले !

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