हमारे गृहमंत्री श्री चिदम्बरम महोदय देखने में तो बहुत सौम्य हैं, पर आजकल वे काफी परेशान हैं। दंतेवाड़ा कांड के कारण न केवल देश की जनता बल्कि कांग्रेस के लोग भी उनसे नाराज हैं। दूसरी ओर उन पर अपने दल का मजहबी एजेंडा पूरा करने का भी दबाव है। कुछ दिन पूर्व उन्होंने कहा था कि देश के अल्पसंख्यक (मुसलमान और ईसाई) बहुत भयभीत हैं। दंगों में उनके जान-माल की काफी हानि होती है। उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन की है। इसलिए चाहे जैसे भी हो पर इस वर्ष के अंत तक साम्प्रदायिकता विरोधी कानून संसद में प्रस्तुत कर दिया जाएगा।
दंगों या अन्य किसी भी अपराध के विरुद्ध कठोर कानून हो, इसमें किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है? पर यदि उसके लिए प्रयुक्त शब्दों की भावना ही ठीक न हो, तो कानून भी ठीक नहीं बनेगा। यदि नींव ही गलत पड़ जाए, तो फिर भवन का टिकना असंभव ही है। खराब बीज से अच्छे फल की आशा व्यर्थ है। ऐसा ही कुछ इस कानून के साथ होने की संभावना है। भारत में जिनके सिर पर अंग्रेजियत हावी है, यह उनकी बुद्धिहीनता है कि वे धर्म, पंथ,सम्प्रदाय और मजहब को समानार्थी मानते हैं, जबकि इन सबके अलग-अलग अर्थ हैं।
सम्प्रदाय का अर्थ है समान रूप से प्रदान किया जाने वाला। यह कोई विचार भी हो सकता है और कोई वस्तु भी। सामान्य व्यवहार में इसे गुरू-शिष्य के रूप में समझा जा सकता है। जब कोई गुरू या आचार्य अपने अनुयायियों को समान रूप से कोई उपदेश, शिक्षा या विशिष्ट कर्मकांड वाली पूजा विधि देता है, तो उसे पाने वाले सब लोग एक सम्प्रदाय में दीक्षित मान लिये जाते हैं।
धर्म, पंथ और सम्प्रदाय को एक और तरह से समझें। यदि किसी को दूसरे शहर जाना हो, तो वह कई मार्गों तथा कई साधनों जैसे वायुयान, रेल, बस, कार, स्कूटर, साइकिल, पैदल, किसी पशु अथवा पशुवाहन आदि पर सवार होकर जा सकता है। दूसरे शहर जाना धर्म, किसी विशिष्ट मार्ग से जाना पंथ तथा उस मार्ग पर किसी विशेष साधन से जाना सम्प्रदाय है। रेल से जाना यदि पंथ है, तो एक्सप्रेस या पैसेंजर रेल से जाना सम्प्रदाय है।
ऐसे ही परमात्मा तक पहुंचने के अनेक मार्ग हैं, जिनकी खोज या अनुभूति किसी व्यक्ति विशेष ने की। इसी आधार पर अनेक पंथ बने। उस पंथ में कर्मकांड जुड़ने से वह सम्प्रदाय हो जाता है। कोई मूर्ति को मानता है, तो कोई नहीं। कोई साकार को, तो कोई निराकार को मानता है। कोई व्यक्ति का पुजारी है, तो कोई प्रकृति का। कोई निर्धन की सेवा में भगवान को ढूंढता है, तो कोई रोटी और भात में। इसीलिए बाबा तुलसीदास
‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’
कह गये हैं। यहां यह स्पष्ट होना आवश्यक है कि दूसरे शहर जाने के लिए कोई अपनी सुविधा, आर्थिक स्थिति या समय की उपलब्धता के अनुसार कोई भी साधन अपनाये, इससे दूसरे को कोई आपत्ति नहीं होती।
ऐसे ही ईश्वर या अपने आराध्य तक पहुंचने के लिए व्यक्ति कोई भी मार्ग अपना सकता है। अर्थात पंथ और सम्प्रदायों में कुछ वैचारिक या साधन सम्बन्धी भेद अवश्य हैं पर उनमें टकराव का कोई स्थान नहीं है। इसलिए दंगों को साम्प्रदायिक दंगे कहना नितान्त अनुचित है।
लेकिन यहां यह प्रश्न भी विचारणीय है कि फिर न केवल भारत, अपितु दुनिया के कई देशों में होने वाले हिंसक टकरावों को क्या कहेंगे? क्या इस हिंसा का हिन्दू धर्म से कोई सम्बन्ध है?
हिन्दू विचार का उद्गम भारत में हुआ और फिर यह पूरी दुनिया में फैला। विश्व भर में मिलने वाले हिन्दू प्रतीक इसके प्रमाण हैं पर साथ में यह भी सत्य है कि हिन्दू धर्म या संस्कृति का विस्तार हिंसा के माध्यम से नहीं हुआ। हिन्दुओं ने कभी किसी के पूजा स्थल या ग्रन्थों को नष्ट किया हो या उनकी भाषा, संस्कृति और परम्पराओं पर आघात किया हो, इसका एक भी उदाहरण नहीं है। ऐसे में हिन्दुओं द्वारा हिंसा, दंगा या नरसंहार की बात सोचना ही अनुचित है।
लेकिन मजहब के बारे में ऐसा नहीं है। धर्म में सैकड़ों देवता, अवतार, ग्रन्थ और पूजा विधान होते हैं। वहां नये विचारों और मतभिन्नता के लिए सदा स्थान रहता है पर मजहब में एक पैगम्बर, एक किताब और एक ही पूजा पद्धति होती है। नये विचार का वहां कोई स्थान नहीं है। इस नाते इस समय विश्व में तीन मुख्य मजहब (ईसाई, इस्लाम और कम्यूनिस्ट) हैं। यद्यपि कम्यूनिस्ट खुलेआम ईश्वर को नकारते हैं, जबकि ईसाई और मुसलमान इस मुखौटे के नीचे अपने जन, धन और धरती के विस्तार का एकसूत्री कार्यक्रम चलाते हैं।
हिन्दू धर्म ‘भी’ सिद्धांत का समर्थक है। अर्थात हमारा विचार तो ठीक है पर आपका विचार ‘भी’ ठीक हो सकता है। जबकि मजहबी लोग ‘ही’ सिद्धांत को मानते हैं। अर्थात हमारा विचार ‘ही’ ठीक है, तुम्हारा नहीं। केवल हम सच्चे हैं और शेष सब झूठे। इसलिए सबको हमारा विचार मानना ‘ही’ होगा। यदि प्रेम से मानो तो बहुत अच्छा अन्यथा हत्या से लेकर हिंसा तक सब मार्ग हमारे लिए खुले हैं। खुदा ने खुद आसमानी किताब में हमें इसकी अनुमति दी है। ऐसा करने से हमें जन्नत और बहिश्त मिलेगी।
वास्तव में दुनिया में परस्पर टकराव का मूल कारण यह मजहबी ‘ही’ सिद्धांत ही है। सैमुअल हंटिगटन ने इसे ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ कहा है, जबकि कुछ विद्वान इसे ‘असभ्यताओं का संघर्ष’ कहते हैं। सभ्य लोग कभी झगड़ा नहीं करते। झगड़े के लिए कम से कम एक का असभ्य या असहिष्णु होना बहुत जरूरी है, पर जहां सब असहिष्णु हों, तो वहां टकराव होगा ही। इस मजहबी सोच के कारण ही दुनिया में हत्याओं का निर्मम दौर चल रहा है।
इस संदर्भ में पिछले महीने की दो घटनाओं को देखें। बरेली में दो मार्च को मुसलमानों द्वारा निकाले जा रहे मुहर्रम के ‘जुलूस ए मोहम्मदी’ ने जानबूझ कर अपना मार्ग बदला और एक मंदिर परिसर को अपवित्र करते हुए उसके बीच में से निकलने लगे। जुलूस में लोग बड़ी संख्या में तलवारें लहराते हुए चल रहे थे। मंदिर के प्रबन्धकों, स्थानीय हिन्दुओं तथा प्रशासन ने उन्हें रोका। इस विवाद के चलते देखते ही देखते पूरे शहर में दंगा भड़क गया, जिसमें हिन्दुओं की सैकड़ों दुकानें जला दी गयीं और उनकी अरबों रुपये की हानि हुई। इसी प्रकार भाग्यनगर (हैदराबाद) में हनुमान जयंती पर निकलने वाले परम्परागत जुलूस पर पुराने शहर में पथराव किया गया।
श्री चिदम्बरम महोदय बताएं कि ये उपद्रव साम्प्रदायिक हैं या मजहबी? साम्प्रदायिक दंगों के विरुद्ध कानून बनाकर क्या वे इन मजहबी दंगों को रोक सकेंगे?
यदि इन दंगों का इतिहास देखें, तो भारत में इस्लाम और फिर ईसाइयों के आने के बाद से ही दंगे प्रारम्भ हुए। इनके आने से पहले भारत में ऐसे संघर्ष के उदाहरण नहीं मिलते। आज भी दंगे वहीं होते हैं, जहां ये मजहब प्रभावी हैं। पूर्वोत्तार भारत में ईसाई प्रभावी हैं, अत: वहां हिन्दुओं का खुला उत्पीड़न होता है।
बांग्लादेश से आ रहे मुसलमान घुसपैठिये भी हिन्दुओं के मकान, दुकान और खेती पर कब्जा कर रहे हैं। केरल, त्रिपुरा और बंगाल में कम्यूनिस्ट हावी हैं, अत: वहां भी मंदिर तोड़े जाते हैं और खुलेआम गोहत्या होती है। मुसलमान तो अपनी जनसंख्या और राजनीतिक ताकत के बल पर देश में सर्वत्र निर्णायक भूमिका में है। ऐसे में दंगा सदा इनकी ओर से प्रारम्भ होता है।
इस बारे में भारत में अभी ब्रिटिश कानून और इंपीरियल पुलिस वाली मनोवृत्ति ही जारी है। मजहबी दंगा होते ही पुलिस दंगाइयों के साथ ही पीड़ितों को भी गिरफ्तार कर लेती है। इससे अपराधियों का साहस घटने की बजाय बढ़ता ही है। वे षडयन्त्रपूर्वक नये दंगों की तैयारी में लग जाते हैं। अंग्रेजों द्वारा निर्मित इस दूषित व्यवस्था को कांग्रेस ने जस का तस मान लिया। इसीलिए स्वाधीनता प्राप्ति के 63 वर्ष बाद भी मजहबी दंगे चालू हैं।
यदि चिदम्बरम जी और उनके देशी-विदेशी आका सचमुच दंगे रोकना चाहते हैं, तो सबसे पहले उन्हें इसके लिए उचित नाम का चयन करना होगा। यदि उन्होंने इस कानून को साम्प्रदायिक हिंसा की बजाय मजहबी हिंसा विरोधी कानून कहा, तो बात काफी हद तक स्पष्ट हो जाएगी। पंथ, सम्प्रदाय और मत तो मुसलमानों और ईसाईयों में भी कई हैं पर मजहबी सोच हावी होने के कारण वे किसी भी छोटे-बड़े मुद्दे को लेकर भारत, भारतीयता और हिन्दुओं के विरुद्ध हथियार लेकर सड़कों पर उतर आते हैं। इसी का परिणाम होता है दंगा और हिंसा।
चिदम्बरम जी ने इस वर्ष के अंत तक इस कानून को बनाने की बात कही है पर वे यह ध्यान अवश्य रखें कि यदि आम खाने हैं, तो बबूल का पेड़ लगाने से काम नहीं चलेगा। यद्यपि उनके और प्रधानमंत्री महोदय के पास कितनी शक्ति है, यह किससे छिपा है? और अब तो मैडम इटली के नेतृत्व में विधिवत ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद’ बन गयी है। उसकी सलाह ठुकराने का साहस इन कठपुतलियों में नहीं है। मुसलमान और ईसाई वोटों के बल पर सत्तासुख भोग रही कांग्रेस से देशहित सम्बन्धी ऐसे किसी भले निर्णय की आशा नहीं की जा सकती।
इसलिए इस नये कानून से हिन्दुओं की हानि होगी। मजहबी दंगों में जानमाल खोने के बाद जेल और मुकदमे भी उन्हें ही झेलने होंगे। कुल मिलाकर यह कानून राजेन्द्र सच्चर, रंगनाथ मिश्र और सगीर अहमद आयोग के सुझावों को व्यवहार में लाकर अपने मजहबी वोट पक्के करने की एक कवायद मात्र है। इसलिए इसका प्रबल विरोध होना चाहिए।
-विजय कुमार
विजय कुमार जी आपने अच्छी जानकारी दी हे इस लेख में, वास्तव में धरम क्या हे इसको समझाना आवश्यक हे, किसी पूजा पद्दति को धरम नहीं कहा जा सकता, धर्म तो jivan जीने की kalaa हे.