याहू और जंगली शमशेर यानी शम्मी

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 रामकृष्ण

कहते हैं, सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् अमरनाथ झा ने एक शिक्षक के रूप में जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश किया तब उनकी अवस्था मात्र इक्कीस वर्ष की थी – जब कि उनके अधिकांश छात्र उस उम्र को काफ़ी पहले पार कर चुके थे. कुछ कुछ ऐसा ही हाल शमशेरराज यानी शम्मीकपूर का भी रहा. अपनी बीसवीं वर्षग्रंथि मनाने के पहले जितनी अभिनेत्रियों के साथ वह काम कर चुके थे उनमें से अधिकांश उम्र में उनसे कहीं बड़ी थीं – और कम नहीं, काफ़ी ज्यादा. सुरैया, नलिनि जयवन्त, सुमित्रा, मुनव्वर सुलताना – यहां तक कि मधुबाला भी तब अपनी किशोरावस्था को पार कर चुकी थीं जब शम्मी के लिए उम्र की उस दहलीज़ तक पहुंच पाना भी संभव नहीं हो पाया था. उनकी भावी पत्नी गीता बाली भी, जिनके साथ केदार शर्मा कृत रंगीन रातें के सेट पर उनका प्यार परवान चढ़ा, उनसे दो बरस छोटी थी.

शम्मी की पारिवारिक पृष्ठभूमि से जो लोग परिचित हैं वे इस बात को भलीभांति समझ सकेंगे कि इस दिशा में शम्मी को जो लोकप्रियता मिली वह अवश्यंभावी थी. उनकी अवस्था जब दस बरस की भी नहीं हो पाई थी तब से पृथ्वीराज ने उन्हें एक कलाकार के रूप में ढालने के अपने प्रयत्नों का समारंभ कर दिया था – और वह भी व्यक्तिगत शिक्षण के रूप में नहीं बल्कि सीधे सीधे रंगमंच के माध्यम से. उस कालखण्ड में अपने अभिनेता बनने के सपनों की जब कभी उन्होंने चर्चा की उनके सभी सहकारी उसे हंसी में ही उड़ाते चले गए. उस समय के उनके नाजुक बदन और मजनूनुमा तौर तरीकों को देख कर किसी के लिए भी यह विश्वास करना कठिन था कि किसी दिन वह एक अच्छे अभिनेता भी बन सकते हैं.

मेरी इस बात से आप यह अन्दाज़ न लगा लीजिएगा कि उस आकस्मिक सफलता से शम्मी में अहंकार की भावना व्याप्त हो गई थी. इसके विपरीत अपने उत्थानकाल में भी शम्मी शायद अकेले ऐसे अभिनेता थे जो न सिर्फ हाई स्कूल में पढ़ने वाले लड़के जैसे दिखाई देते थे बल्कि अपने को वैसा समझते भी थे. पिछली शती के मध्य पृथ्वी थिएटर के साथ जब वह उत्तरप्रदेश के दौरे पर निकले थे तब लगभग रोज़ शाम हम लोगों को वह ज़बर्दस्ती अपने साथ घूमने के बहाने थिएटर के बाहर घसीट ले जाते और फिर बाज़ार में बैठ कर हम लोग उतनी ही आज़ादी के साथ एक पैसे में एक मिलने वाले गोलगप्पों का आस्वादन करते जैसे किसी स्कूल में पढ़ने वाले छात्र कर सकते हैं. मुझे याद है, फ़ैज़ाबाद में एक रात जब हम लोग राबड़ी की तलाश में निकले (फैज़ाबाद की राबड़ी, सुनते हैं, किसी ज़माने में पेरिस तक जाती थी) और वह कहीं नहीं मिली तो एक दूकान में घुस कर वह खत्म हुई हुई राबड़ी की थाली कों ही उठा कर उसे चाट गए – राबड़ी नही ंतो उसकी बू-बास तो चख ही लूं – आश्चर्यचकित दूकानदार की ओर देखते हुए उन्होंने कहा था – नही ंतो यही कसक रह जाएगी कि फ़ैज़ाबाद आए और यहां की राबड़ी तक नहीं चखी

इस सन्दर्भ में मुझे उन्हीं दिनों की एक अन्य घटना याद आ रही है. फैज़बाद में पृथ्वीराज के पिताश्री दीवान बशेशरनाथ भी थिएटर के साथ थे और शम्मी भी – जिन्हें तब तक शायद मात्र एक-दो फ़िल्मों में अपना मुखड़ा दिखाने का अवसर मिल पाया था. फ़ैज़ाबाद से किसी काम के लिए उन दोनों को अचानक बम्बई के लिए निकलना पड़ गया. लखनऊ तक हम तीनों साथ आए. वहां से उनको बम्बई की गाड़ी पकड़नी थी. तब लखनऊ से कोई सीधी गाड़ी बम्बई नहीं जाती थी, झांसी पहुंच कर बम्बई जाने वाली बोगी कट कर अमृतसर-बम्बई मेल में जोड़ दी जाती थी. लखनऊ में नई गाड़ी में चढ़ाने के बाद मैं उन लोगों से विदा लेने वाला ही था कि देखा श्रीमन्शमशेरराज कपूर अपनी उंगलियों में चॉक पकड़े हुए बोगी के दरवाज़े पर कुछ लिख रहे हैं. नज़र दौड़ाई तो पाया कि मोटे मोटे अक्षरों में उस पर वह अपना नाम अंकित कर रहे थे – शम्मी कपूर – द फ्यूचर स्टार ऑफ़ हिन्दी फिल्म्स. जब मैने प्रश्नवाचक मुद्रा में उनसे कुछ पूंछने की कोशिश की तो बोल उठे थे – अरे, मैं इस डिब्बे में सफर कर रहा हूं यह तो लोगों को मालूम ही होना चाहिए. मेरे मुखौटे से भले ही लोग अनजान हों, लेकिन मेरे नाम से तो उन्हें अपरिचित नही होना चाहिए. आखिर पृथ्वीराज का बेटा हूूं मैं, किसी नत्थूखैरे का नहीं.

ज़ाहिर है कि अपनी ज़िन्दगी की पहली पायदान से ही वह इस बात की कोशिश करने में दत्तचित्त होकर लगे थे कि लोग उन्हें जाने, पहचाने और फिर उनकी प्रशंसा करें.

शम्मी के अभिनय जीवन का प्रारंभ तो तभी हो गया था जब उनके पिताश्री ने पृथ्वी थिएटर की नींव डाली थी, लेकिन प्रत्यक्षतः वह थिएटर के कलाकार नामक स्टेजनाट्य के माध्यम से ही दर्शकों के समक्ष प्रकट हुए. उस समय उनका वेतन था कुल पचास रूपए प्रति मास. कहते हैं, पृथ्वीराज ने कलाकार का अंतिम दृश्य विशेषरूप से शम्मी को ध्यान में रखते हुए लिखाया था. उसमें एक धनी और उच्छृंखल नवयुवक की भूमिका में जितना अच्छा अभिनय उन्होंने किया वह सहज ही फ़िल्म निर्माताओं का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट करने में सफल हो सका. अस्पी ईरानी पहले निर्माता थे जिन्होंने अपनी फिल्मों के लिए शम्मी से समझौता किया था. कालान्तर में हालांकि वह उसका उपयोग नहीं कर सके, तब भी शम्मी को फिल्म क्षेत्र में लाने का श्रेय उन्हीं को जाएगा. शम्मी ने मुझे बताया था – अस्पी साहब के कन्ट्राक्ट पर जब मैंने दस्तखत किए तो मैं खुशी से फूला नहीं समाया था. लेकिन बाद में जब कई बरसों तक मुझे खाली बैठना पड़ा और अस्पी किसी फ़िल्म का निर्माण नहीं कर सके तो मुझे अपने ही ऊपर गुस्सा आया. वजह यह थी कि अस्पी के साथ किए गए अनुबंध के अनुसार अगले तीन बरसों तक मैं किसी भी दूसरे निर्माता के चित्र में अभिनय नहीं कर सकता था. इसीलिए उस दौरान मुझे जितने भी दूसरे आमंत्रण मिले उन सबको न चाहते हुए भी अस्वीकार करना पड़ा. मुझे लगा था जैसे मेरी प्रतिभा पर अचानक ग्रहण लग गया हो.

तीन बरस लम्बे इस बनवास के बाद निर्माता कारदार ने जब उन्हें जीवनज्योति नामक अपनी फ़िल्म में काम करने के लिए आमंत्रित किया तो उनमें एक नई जान आई. उस समय शम्मी ने बताया था – ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कि मुझे दूसरी फ़िल्म मिल रही है और कुछ दिनों के लिए मुझे पैसों की दिक्कत नहीं पड़ेगी, बल्कि इसलिए कि अब मुझे निश्चितरूप से अपनी प्रतिभा को विकसित करने का मौका मिल सकेगा. सच मानों, अस्पी से किए गए अपने क़रार के तीन साल मुझे तीन शती से कम नहीं लगे थे, क्योंकि मुझे लगता था कि मुझे एक सर्वथा बेकार आदमी बन कर जीना पड़ रहा है.

जीवनज्योति मराठी फ़िल्म बाला जो जो रे पर आधारित थी और शम्मी के साथ एक नई तारिका, चांद उस्मानी ने उसमें अपने जीवन का पहला अभिनय किया था. चित्र के निर्देशक थे महेश कौल. कहने की ज़रूरत नहीं कि जहां भी उसका प्रदर्शन हुआ वहां उसे आशातीत सफलता मिली. शम्मी के लिए तो वह कामयाबी एक अलग ही महत्व रखती थी. जीवनज्योति के परदे पर आने के सप्ताह भर के अन्दर ही उनको एक साथ आठ फिल्मों के कन्ट्रैक्ट मिले जिनकी औसत पारिश्रमिक राशि एक लाख रूपए के ऊपर थी.

आपको शायद इस बात का पता न हो कि शुरूशुरू में शम्मी का मुख्य लगाव संगीत के प्रति था, अभिनय की ओर नहीं. उन दिनों अपना अधिकांश समय वह गाने बजाने में ही व्यतीत किया करते थे. लेकिन जब उनके उस्ताद ने उनको बताया कि उनका गला गायन के उपयुक्त नहीं है तो फौरन ही तत्संबंध में अपने प्रयत्नों की उन्होंने इतिश्री कर दी. इसी तरह बहुत कम लोगों को इस बात का स्मरण होगा कि शम्मी ने मात्र अभिनय-विधा में ही नहीं वरन् निर्देशन के क्षेत्र में भी ज़ोर-आजमाइश की है और उसमें भी वह किंचित विफल नहीं रहे. उनके द्वारा निर्देशित और एफ.सी. मेहरा द्वारा निर्मित मनोरंजन नामक फ़िल्म हिन्दी की शायद अकेली ऐसी फ़िल्म थी जिसमें जिस्मफ़रोशी की समस्या को परत-दर-परत उभाड़ कर प्रस्तुत करने करने का प्रयास किया गया था और तब भी उसमें किंचित अश्लीलता नहीं आ पाई थी. मनोरंजन हालांकि एक फ्रेंच फिल्म की हू-बहू नकल थी लेकिन तब भी देखने वाले को उसमें शत-प्रतिशत मौलिकता के ही दर्शन हुए और किसी को इस बात का हलका सा एहसास भी नहीं हो पाया कि उसका प्रस्तुतीकरण किसी विदेशी कथानक पर आधारित है. ज़ीनत अमान ने उस फ़िल्म में अपने जीवन का शायद सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया था, और इसीलिए अब तक लोग उसे भूल नहीं पाए हैं.

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