यशोदानंदन-२५

विपिन किशोर सिन्हा

गोकुल में हो रहे नित्य के उत्पातों ने नन्द बाबा और अन्य वरिष्ठों को चिन्ता में डाल दिया

था। इस विषय पर चर्चा करने के लिए सभी वयोवृद्ध ग्वाले नन्द जी के यहां एकत्र हुए।

महावन में असुरों द्वारा किए जा रहे उत्पातों को रोकने के लिए सबने अपने-अपने परामर्श

दिए। उपनन्द जी, नन्द जी के भ्राता थे। वे अग्रणी विद्वान, अनुभवी तथा श्रीकृष्ण-बलराम

के परम हितैषी थे। सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा –

“मित्रो! पहले हमारा यह महावन अत्यन्त शान्त स्थल था। हमलोग बिना किसी

चिन्ता और अवरोध के प्रकृति की गोद में अपने गोधन के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर

रहे थे। परन्तु श्रीकृष्ण के जन्म के बाद यहां असुरों का आतंक बढ़ गया है। वे नन्हें बच्चों

को मारने के लिए विशेष प्रयत्न करते रहते हैं। जरा पूतना और श्रीकृष्ण के विषय में

सोचिए। यह केवल भगवान श्रीहरि की कृपा थी कि हमारा नन्हा कान्हा उस असुरी के हाथों

बच गए। इसके पश्चात्‌ बवंडर असुर आया जो उन्हें आकाश में ले गया। भगवान श्रीहरि ने

पुनः उसकी रक्षा की। असुर स्वयं शिलाखंड पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। हाल ही में यह

बालक दो वृक्षों के मध्य खेल रहा था कि अकस्मात दोनों वृक्ष धमाके से गिर पड़े। श्रीहरि ने

पुनः उसकी रक्षा की। उसे खरोंच भी नहीं आई। जरा सोचिए कि यही बच्चा या इसके पास

खेलता हुआ अन्य बच्चा वृक्षों के नीचे दब जाता तो? यह सत्य है कि अबतक श्रीहरि ने इन

बच्चों की रक्षा की है, परन्तु ईश्वर भी उसी की सहायता करता है जो उद्यमी होता है। हाथ

पर हाथ धरे नहीं बैठता है। सोये हुए सिंह के मुख में कोई शावक स्वयं प्रवेश नहीं करता।

हम सतर्क रहेंगे तो श्रीहरि भी हमारी सहायता करेंगे। पिछली घटनाओं को देखते हुए ऐसा

अनुभव करता हूँ कि यह स्थान अब सुरक्षित नहीं रह गया है। इसपर पापात्माओं की कुदृष्टि

लग चुकी है। अतः हमें इस स्थान को छोड़ ऐसे स्थान पर रहना होगा जहां शान्ति हो। मैं

सोचता हूँ कि क्यों न हम सभी वृन्दावन नामक वन में चलें जहां ताजे उगे हुए पौधे तथा

झाड़ियां हैं। यह हमारे गोधन के लिए अति उत्तम चरागाह होगा। हम हमारे परिवार, गोप-

गोपियां, बालक-बालिकाएं – सभी वहां सुरक्षित और शान्ति से रह पायेंगे। वृन्दावन के निकट

ही गोवर्धन पर्वत है, जो अत्यन्त रमणिक है। मेरा प्रस्ताव है कि हम समय नष्ट न करते

हुए शीघ्रातिशीघ्र वृन्दावन के लिए प्रस्थान कर दें।”

उपनन्द जी के प्रस्ताव पर सभी गोपगणों ने सहमति व्यक्त की। नन्द जी भी

प्रस्ताव के पक्ष में थे। फिर क्या था – सभी गोप-गोपियों ने गायों को आगे करके वृन्दावन के

लिए प्रस्थान किया।

वृन्दावन पहुंच कर सभी गोप स्थाई आवास के लिए निर्माण-कार्य में जुट गए।

गोपियों ने सफाई क कार्य संभाला। किशोर गोपों ने गोधन को व्यवस्थित किया और बालक

खेलने के लिए यमुना के तीर पहुंच गए। यमुना के तट पर गोवर्धन पर्वत तथा वृन्दावन की

छ्टा नन्दन कानन के समान थी। यमुना की लहरों से उठता संगीत, ऊंच-ऊंचे वृक्षों के

आपसी संवाद, पक्षियों के मधुर गीत, भौरों के मधुर गुंजन के बीच गोपों और बछड़ों के गले

मे बंधी घंटियों के समवेत स्वर एक दिव्य वातावरण का सृजन कर रहे थे।

श्रीकृष्ण अब पांच वर्ष के हो गए थे। माता तो उन्हें शिशु ही समझती थीं, परन्तु

कान्हा अपने को बहुत बड़ा समझने लगे थे। वय में उनसे बड़े उनके गोप सखा गायों की

परिचर्या में दक्ष थे। वे गायों को दूह भी लेते थे, बछड़ों को दूध भी पिलाते थे। श्रीकृष्ण उनके

इन कृत्यों को बड़े आश्चर्य से देखते थे। एक दिन उन्होंने अपने मित्रों से अत्यन्त प्रेमपूर्वक

आग्रह किया –

“मेरे प्रिय मित्रो! मुझे गाय दूहना सिखाओ। मैं भी तुम लोगों की तरह दुग्ध-दोहन

करूंगा। दुग्ध-पात्र को दोनों घुटनों के बीच कैसे पकड़ते हो, बछड़ों को थनों तक कैसे ले जाते

हो, कैसे गाय को सहलाकर दूध देने के लिए तैयार करते हो, दुग्ध-पात्र तक थनों से निकला

दूध कैसे सुरक्षित पहुंचता है – सारी विधियां मुझे एक-एककर सिखाओ।”

कान्हा दूध दूहने की प्रक्रिया जानने-समझने और करने के लिए इतने आतुर थे कि

ग्वाल-बालों को इस पर गंभीरता से विचार करना पड़ा। सबने आश्वासन दिया कि माता की

आज्ञा लेकर सवेरे जल्दी उठकर आना। फिर हम तुम्हें सारी विधियां विस्तार से सिखायेंगे।

कान्हा ने एक लंबी दौड़ लगाई और पहुंच गए मातु यशोदा के पास। पहले माता के गले में

अपनी बांहों का घेरा बना गोद में बैठकर खूब प्यार किया, फिर अपनी बात कही –

“माँ! अब मैं बड़ा हो गया हूँ। अब मैं अन्य ग्वाल-बालों और दाऊ के साथ गाय चराने

जाऊंगा। वृन्दावन के पेड़ों से फल तोड़-तोड़कर खाऊंगा। गायों का दूध दूहूंगा और गोसेवा भी

करूंगा। माँ, मुझे कल से गायों के साथ वन में जाने दो।”

श्रीकृष्ण की उम्र और शारीरिक कोमलता को देखते हुए कैसे अनुमति देतीं माता?

उन्होंने कान्हा को समझाते हुए कहा –

“मेरे प्यारे पुत्र! तुम अभी बहुत छोटे हो। तनिक अपनी ओर देखो तो सही। तुम अपने

छोटे-छोटे पैरों से जंगल का दुर्गम पथ कैसे चल पाओगे? तुम्हारे मित्र सभी ग्वाल-बाल तुमसे

बड़े हैं। वे सवेरे-सवेरे मुंह अंधेरे ही गायों को चराने वन में ले जाते हैं और संध्या होने पर ही

घर को लौटते हैं। इन ग्वाल-बालों की तरह धूप में रेंगते-रेंगते तेरा मुख कमल मुरझा

जायेगा। मेरे लाल! तू अभी वन जाने का हठ मत कर। उचित समय आने पर मैं तुम्हें स्वयं

गायों को चराने के लिए भेजूंगी। मेरे प्यारे कान्हा! मेरी बात मान।”

पर कान्हा कब माननेवाले थे? वे और अधिक हठ करने लगे – “हे माँ! मैं तेरी

सौगन्ध खाकर कहता हूँ – मुझे धूप तनिक भी नहीं सताती है, भूख भी नहीं सताती। मेरा

मुख कुम्हला ही नहीं सकता। गोपो, ग्वालों, बछड़ों और दाऊ के साथ रहने पर मैं अधिक

प्रसन्न रहूंगा। फिर तुम्हें दिन भर तंग भी तो नहीं करूंगा। तुम्हीं तो दिन भर कहती रहती

हो कि कान्हा मुझे कोई काम नहीं करने देता। मैं गोपों के साथ वन में जाऊंगा, तो तुम्हें

बहुत समय मिलेगा। तुम्हारा कोई काम शेष नहीं रहेगा। माता, मुझे अनुमति दो।”

नन्द जी पीछे खड़े होकर माँ-पुत्र का प्रिय संवाद सुन रहे थे। हंसते हुए बोले –

“देवी यशोदा! हमारा पुत्र अब शिशु से बालक बन चुका है। तुम इसके किसी भी तर्क

का उत्तर नहीं दे सकती। तुम इस पर कितना क्रोध करती हो, पर इसे कभी क्रोध करते हुए

देखा है। तुम ही दिन भर सांटी लिए इसके पीछे-पीछे दौड़ती रहती हो। अगर यह न भागे, तो

तुम इसकी पिटाई करती रहोगी। यह जब वन में गायों को चराने जाएगा, तो तुम्हें अपने

कार्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त समय मिलेगा। सांटी भी नहीं उठाओगी। मैं सारी

व्यवस्था किए दे रहा हूँ। इसे सुरक्षित ले जाने और ले आने का दायित्व मैं बलराम को

सौंपता हूँ। तुम तनिक भी चिन्ता मत करो। इसे अनुमति दे दो।”

कान्हा माता की गोद से उछलकर नन्द जी की गोद में चढ़ गया। रुआंसी मैया को

अनुमति देनी पड़ी।

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