यशोदानंदन-४८

shri Krishna in Mathura

-विपिन किशोर सिन्हा-

shri Krishna in Mathura

श्रीकृष्ण ने मुस्कुरा कर अपनी सहमति दे दी। सुदामा ने भांति-भांति के पुष्पों से दो अति सुन्दर मालायें बनाईं और श्रीकृष्ण-बलराम को अपने हाथों से सजाया। उसके घर में जितने पुष्प थे, उसने सबका उपयोग कर ग्वालबालों को पुष्प-हार पहनाये। दोनों भ्राता अत्यन्त प्रसन्न हुए। सुदामा ने प्रभु के चरणों में अविचल भक्ति तथा उनके समस्त भक्तों के प्रति सौहार्द्र, मैत्री एवं समस्त प्राणियों के प्रति अहैतुक दयाभाव का वर मांगा। श्रीकृष्ण ने ‘एवमस्तु’ कहा तथा साथ ही उसे समस्त सांसारिक ऐश्वर्य, परिवार की संपन्नता, दीर्घ जीवन और सभी मनोवांछित अभिलाषा पूर्ण होने का वरदान भी दिया। श्रीकृष्ण मथुरा के राजपथ पर बालसुलभ उत्सुकता और उत्साह से बढ़ते जा रहे थे। पीछे मथुरा के यादवों का जन समूह सम्मोहन की दशा में चल रहा था। अबतक यह समाचार समस्त मथुरा में फैल चुका था कि उनके त्राता का नगर में आगमन हो चुका है। वे जिधर से गुजरते, नगरवासी मार्ग रोककर आदरपूर्वक उनकी पूजा करते। उनके दर्शन मात्र से उनके सारे भय दूर हो जाते। किसी पर कंस के भय का कोई प्रभाव नहीं था। समीप की सभी वय की स्त्रियां श्रीकृष्ण के दर्शनार्थ अपने-अपने घरों से बाहर निकल आईं। इधर अल्प आयु की युवतियां श्रीकृष्ण के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर मूर्च्छित हो गईं। उनके केश तथा वस्त्र ढीले पड़ गए और उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि वे कहां खड़ी हैं। कुछ दूर आगे बढ़ने पर एक युवती दृष्टिपथ में आई। वह थी तो रूपवती पर शरीर से कुबड़ी थी। वह अपने हाथ में चन्दन का पात्र लिए राजभवन को जा रही थी। श्रीकृष्ण ने हंसकर उससे पूछा –

“सुन्दरी। तुम कौन हो? यह सुगन्धित चन्दन का लेप किसके लिए ले जा रही हो? कल्याणि! इसका कुछ भाग हमें भी दे दो। इस दान से शीघ्र ही तुम्हारा कल्याण होगा।”

युवती ने मधुर स्वर में उत्तर दिया –

“हे मनमोहन! मैं महाराज कंस की प्रिय दासी हूँ। मेरा नाम ‘त्रिवक्रा’ है। लोग मुझे ‘कुब्जा’ कहकर पुकारते हैं। मैं महाराज के यहां चन्दन और अंगराज लगाने का कार्य करती हूँ। मेरे द्वारा निर्मित चन्दन और अंगराज भोजराज कंस को अत्यन्त प्रिय है।”

श्रीकृष्ण के आग्रह पर मंत्रमुग्ध हो कुब्जा ने दोनों भ्राताओं को चन्दन और अंगराज न सिर्फ समर्पित किया अपितु पूरे शरीर में उनका लेप भी किया। श्रीकृष्ण के सांवले शरीर पर पीले रंग के और गोरे बलराम जी के शरीर पर लाल रंग के अंगराग का लेप लगाया। वह मुग्ध भाव से लेप अर्पित कर रही थी। चन्दन और अंगराग से अनुरंजित होकर दोनों भ्राता अत्यन्त शोभायमान होने लगे। कुब्जा की भक्ति भावना से प्रसन्न श्रीकृष्ण ने उसके शरीर को प्राकृतिक रूप देने का निश्चय किया। उन्होंने कुब्जा के पैर के दोनों पंजे पैर से दबा लिए और हाथ को ऊंचा करके दो अंगुलियां उसकी ठोड़ी में लगाई, फिर उसके शरीर को थोड़ा उचका दिया। एक झटका देते ही कुब्जा के सारे अंग सीधे और समानुपातिक हो गए। श्रीकृष्ण का स्पर्श पाते ही वह नारियों में सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी बन गई। उसके नेत्रों से कृतज्ञता के भाव छलक रहे थे। वह अभिभूत थी। किसी तरह स्वयं पर नियंत्रण रख उसने अपने घर पर श्रीकृष्ण को पधारने का निमंत्रण दिया । श्रीकृष्ण ने अपनी भुवनमोहिनी मुस्कान के साथ कहा – “फिर कभी” और अपने अभियान में आगे की ओर अग्रसर हो गए।

श्रीकृष्ण और बलराम के मन में धनुर्यज्ञ के आयोजन-स्थल को देखने की इच्छा बलवती हो रही थी। वे उसी दिन उस स्थल को देखने हेतु कृतसंकल्प थे। मथुरा के राजमार्ग पर दूर तक बढ़ने के पश्चात्‌ भी जब रंगमंडप के दर्शन नहीं हुए, तो पुरवासियों से उन्होंने अपनी जिज्ञासा प्रकट की। पुरवासियों ने रंगमंडप की दिशा, मार्ग और दूरी बता उनका उचित मार्गदर्शन किया। कुछ ही समय के पश्चात्‌ अपनी मंडली के साथ वे रंगमंडप में विराजमान थे। कंस ने धनुर्यज्ञ का आयोजन किया था और इसकी सार्वजनिक सूचना के लिए यज्ञवेदी के समीप ही एक विशाल अद्भुत धनुष रखवा दिया था। इन्द्रधनुष के समान उस अद्भुत धनुष के निर्माण में अकूत धन लगाया गया था। उसे दुर्लभ रत्नों से सजाया गया था। उस विशाल पूजित धनुष को उस समय तक कोई भी धनुर्धर आकर प्रत्यंचा नहीं चढ़ा पाया था। उसकी रक्षा में कंस के बहुत सैनिक तैनात थे। श्रीकृष्ण ने उस धनुष को निकट से देखने और उठाने की अपनी इच्छा से सैनिकों को अवगत कराया। उनकी बात सुनकर सैनिक बहुत हंसे। जिस धनुष को बड़-बड़े धनुर्धर भी तिल भर टस से मस नहीं कर सके थे, उसको उठाने की बात एक बालक कर रहा था। उन्होंने राजाज्ञा सुनाते हुए धनुष से दूर ही रहने का निर्देश दिया। लेकिन श्रीकृष्ण कहां माननेवाले थे। उन्होंने सहसा रंगमंडप में प्रवेश किया और देखते ही देखते धनुष को बलात्‌ उठा लिया। उस विशाल धनुष को उन्होंने बायें हाथ से उठाया और जनसमुदाय के सामने ही दायें हाथ से प्रत्यंचा चढ़ाई और जबतक सैनिक कुछ समझ पाते, प्रत्यंचा को कान तक खींच दिया। पलक झपकते ही धनुष दो भाग में विभक्त हो गया। धनुष-भंग के समय भयंकर ध्वनि हुई। उसके नाद से आकाश, पृथ्वी और दिशायें भर गईं। बादलों के टकराने से उत्पन्न गंभीर स्वर से हजार गुनी तीव्रता के उस स्वर की प्रतिध्वनि देर तक वातावरण में गूंजती रही। कंस के राजमहल तक वह ध्वनि पहुंची। उस अद्भुत ध्वनि को सुन वह भय से कांप उठा। इधर धनुष के रक्षक सैनिकों के क्रोध का ठिकाना नहीं था। उन्होंने श्रीकृष्ण-बलराम के चतुर्दिक एक गोल घेरा बना लिया। दोनों को बंदी बनाने हेतु वे चिल्लाते हुए आगे बढ़े। सैनिकों के दुष्ट अभिप्राय को समझने में श्रीकृष्ण को एक क्षण भी नहीं लगा। दोनों भ्राताओं ने धनुष का एक-एक भाग उठाया और आक्रमणकारी सैनिकों पर प्रति आक्रमण कर दिया। सैनिकों के पास इन दोनों अद्भुत वीरों का सामना करने की सामर्थ्य थी ही कहां? लड़ते-लड़ते सभी सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए। अबतक कंस के पास भी सूचना पहुंच चुकी थी। उसने विशेषज्ञ सैनिकों की एक टुकड़ी श्रीकृष्ण-बलराम को बन्दी बनाने हेतु भेजी। परन्तु उनका भी अन्त पूर्व की भांति ही हुआ। कंस की सारी व्यवस्था को कुछ ही देर में दोनों भ्राताओं ने ध्वस्त कर दिया। किसी को भी उनकी ओर कुदृष्टि डालने का साहस नहीं हो पा रहा था। दोनों भ्राता अपने मित्रों के साथ जिस द्वार से गये थे, उसी द्वार से वापस आ गए। भगवान भास्कर पश्चिम के क्षितिज पर पहुंच चुके थे। दोनों भ्राताओं ने रात्रि के आगमन के पूर्व नगर के बाहर अपने विश्राम-स्थल पर जाने के लिए पग बढ़ा दिए। दोनों बंधु निश्चिन्त और निर्द्वन्द्व होकर कंस की राजधानी की कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाते हुए मथुरा की गलियों में विचरण करने लगे। श्रीकृष्ण के अद्भुत कार्यों के प्रत्यक्षदर्शियों ने अपने-अपने घर पहुंचकर परिवारवालों से जब घटनाओं का वर्णन किया, तो नगरवासियों ने दांतों तले ऊंगली दबा ली। उनको विश्वास हो गया कि उनके त्राता का आगमन मथुरा में हो चुका है।

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