यशोदानंदन-५

death of kans by krishna“महर्षि! श्रीकृष्ण का मथुरा में प्रवेश से लेकर कंस-वध का संपूर्ण वृतांत का आप अपने श्रीमुख से मुझे सुनाकर अनुगृहीत करने की कृपा करेंगे? मेरा हृदय, मेरा रोम-रोम, मेरा समस्त अस्तित्व अपने प्रिय पुत्र के कुशल-क्षेम के लिए व्याकुल है। मुझपर कृपा कीजिए महर्षि, मुझपर कृपा कीजिए”

“श्रीकृष्ण के चरित्र और कृत्य को सुनने-सुनाने से मेरा जी कभी नहीं भरता। उस दिव्य अवतार को देखने और समीप से सान्निध्य प्राप्त करने का दुर्लभ संयोग हम सभी को आप के ही माध्यम से प्राप्त हुआ है। यह मेरा सौभाग्य है कि आपने मुझे उस अनन्त को शब्दों में बद्ध करने का सुअवसर प्रदान किया है जिसकी गाथा स्वयं सरस्वती और सहस्त्रों मुखों वाले शेषनाग भी सांगोपांग नहीं सुना सकते। उसकी लीला भला मैं कैसे सुना सकता हूं? फिर भी आपने जब सुनने की इच्छा प्रकट की है, तो अपनी सामर्थ्य के अनुसार प्रभु की लीला को आप सबके सम्मुख प्रस्तुत करने का दुस्साहस कर रह रहा हूं”

नन्द बाबा के सभागृह में अल्प अवधि में ही सारी व्यवस्था पूर्ण कर ली गई। गोकुल में महर्षि गर्ग के प्रवचन का समाचार विद्युत-वेग से प्रत्येक गृह में गया। गोप-गोपियां, वृद्ध-बालक, युवा – सब कुछ ही घड़ी में सभागृह में उपस्थित थे। गोकुल की गौवें अपने बछड़ों समेत सभागृह के बाहर अनुशासन में खड़ी हो गईं। जिसको जहां स्थान मिला, वहीं बैठ गया या खड़ा रहा। मातु यशोदा की बढ़ती विकलता को महर्षि् गर्ग ने लक्ष्य किया और कथन आरंभ किया —

“ हे देवी! हे माते! श्रीकृष्ण आपके पुत्र हैं। आप उनकी माता हैं, पर जननी नहीं। परन्तु आपका स्थान अबतक तीनों लोकों में जितनी स्त्रियों ने मातृत्व सुख प्राप्त किया है, उनमें सर्वोपरि है। जबतक यह सृष्टि रहेगी, श्रीकृष्ण यशोदानन्दन के नाम से ही पुकारे जायेंगे। वह अनन्त, अच्युत, अविनाशी भी आपके नाम के बिना अपूर्ण ही रहेगा। देवी, इस भौतिक जगत में समस्त प्राणी उनकी माया से बद्ध है, लेकिन वे स्वयं आपके स्नेह और वात्सल्य से बद्ध हैं। मैं आपके प्रत्येक संशय के निवारण के लिए उनके जन्म से लेकर आजतक की गाथा आपको सुनाने का प्रयास कर रहा हूँ —

कंस भोजवंशी महाराज उग्रसेन का पुत्र था, ऐसा माना जाता है, लेकिन वस्तुतः था नहीं। कंस की माँ, महारानी पद्मावती एक सुंदर, लावण्यमयी युवती थीं। महाराज उग्रसेन उन्हें हृदय से प्यार करते थे, उनकी प्रत्येक इच्छा का सम्मान करते थे। रानी ने एक दिन वन-विहार की इच्छा प्रकट की। महाराज अपने राज-काज में अत्यधिक व्यस्त थे। उन्होंने कार्यक्रम अगले दिन तक स्थगित रखने का अनुरोध किया, लेकिन रानी उसी दिन वन-विहार पर चलने के लिए बार-बार अनुरोध करती रहीं। महाराज रानी का आग्रह टाल नहीं सके। महारानी पद्मावती के वन-विहार की व्यवस्था कर उन्होंने नन्दम कानन जैसे रमणीय वन में रानी को सहेलियों और रक्षक अनुचरों के साथ भेजा और स्वयं राज-काज निपटाकर कुछ समय बाद आने का वचन दे, राजसभा में चले गए।

समझ में नहीं आता कि वह अमंगल दिवस महारानी के भाग्य में आया ही क्यों? नियति को टालना किसी के वश में होता नहीं। संभवतः नियति को यही स्वीकार था। वन में पहुंचकर रानी ने सामने सुंदर सरोवर की ओर दृष्टिपात किया। अनगिनत कमल के पुष्प खिल रहे थे, चकवा-चकई के जोड़े संगीतमय ध्वनि के साथ केलि-क्रिया में मग्न थे। सुगंधित शीतल समीर गात का स्पर्श कर अनायास ही सिहरन भर देता था। रानी ने जल-विहार की इच्छा प्रकट की। शीघ्र ही व्यवस्था की गई। अनुचरों ने सुरक्षा के लिए बड़ा सा मंडल बनाया और रानी की ओर पीठ कर आयुधों के साथ सावधान की मुद्रा में खड़े हो गए। रानी अपनी चुनी हुई सहेलियों के साथ सरोवर के स्वच्छ और मादक जल में उतर आईं। जल-क्रीड़ा आरंभ हो गई।

कैसा दुर्योग था। दैत्यराज द्रूमिल भी उसी समय वन-विहार के लिए उसी वन में विचरण कर रहा था। मायावी द्रूमिल ने जलक्रीड़ा करती हुई महारानी को देखा। वेश-परिवर्तन में निपुण द्रूर्मिल ने शीघ्र ही महाराज उग्रसेन का रूप धर लिया और सरोवर के किनारे खड़े हो महारानी पद्मावती को प्रणय दृष्टि से देखने लगा। महाराज पर दृष्टि पड़ते ही अपने अस्त-व्यस्त वस्त्रों का ध्यान दिए बिना रानी किनारे पर आकर खड़ी हो गईं। सहेलियां भी सरोवर से निकल कर दूर पेड़ों की ओट में चली गईं। द्रूमिल को मनचाहा अवसर स्वयमेव प्राप्त हो गया। रानी पद्मावती ने छद्मरूपधारी द्रूमिल के प्रणय-निवेदन पर स्वयं को पूर्णतः समर्पित कर दिया। रानी को किंचित भी संदेह नहीं था कि वह महाराज उग्रसेन नहीं थे। जाते समय जब उसने अपना असली रूप प्रकट किया और परिचय दिया तो रानी को अपने दुर्भाग्य पर रोने और आजीवन पश्चाताप की अग्नि में जलने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं रहा। कुछ ही समय के उपरान्त महाराज उग्रसेन सैनिकों के साथ सरोवर के निकट प्रकट हुए। रानी ने रो-रोकर सारी घटनायें महाराज को सुनाईं। उग्रसेन पर जैसे वज्र का आघात सा हुआ हो। उन्होंने एक लंबा मौन साध लिया। रानी के साथ प्रासाद में लौट तो आए लेकिन पति-पत्नी के सामान्य संबन्ध में पड़ी एक बड़ी-सी दरार को वे आजीवन पाट नहीं पाए। दसवें महीने महारानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। सारे राज्य में राजपुत्र के जन्मोत्सव के विभिन्न समारोह आयोजित किए गए, मंत्रियों ने बिना पूछे याचकों की झोली स्वर्ण-रत्नों से भर दी। नर्तक-नर्तकियों ने महीनों तक अपनी-अपनी कलाओं का प्रदर्शन किया। प्रजा ने अपने-अपने घरों में घी के दीपक जलाये। किसी ने भी महाराज और महारानी के मुख पर उभरती मुद्राओं पर ध्यान देने की आवश्यकता ही नहीं समझी। नियति को भला कौन पलट सकता था? कंस का जन्म हो चुका था।

यदुवंशी नायक शूरसेन मथुरा के शासक थे। मथुरा का विस्तृत साम्राज्य यदु, अंधक और भोज – इन तीनों घरानों का विशाल गणतंत्र था। महाराज उग्रसेन इस विशाल गणतंत्र के अधिपति थे। उन्हीं की पुत्री थी देवकी – रूप-लावण्य में सर्वथा अद्वितीय। यदुवंशी वसुदेव के अतिरिक्त इस लोक में उसके वर के योग्य कोई अन्य पुरुष था भी क्या? दोनों मन ही मन एक दूसरे को चाहते भी थे। उपयुक्त समय उपस्थित होने पर दोनों का विवाह राज्योचित समारोह के साथ संपन्न हुआ। कंस अपनी बहन देवकी को अत्यधिक स्नेह करता था। विवाह-समारोह में उसने पूर्ण उत्साह से भाग लिया। विवाहोपरान्त वसुदेव जी को रथ में बैठाकर उनके महल तक पहुँचाने का दायित्व उसने स्वयं लिया। रथ का सारथ्य वही कर रहा था कि मार्ग में अचानक एक आकाशवाणी सुनाई पड़ी —

“मूर्ख कंस! तुम अपनी जिस बहन और बहनोई के रथ का सारथि बने हो, तुम्हारी इसी बहन की आठवीं सन्तान तुम्हारा वध करेगी।”

कंस ने अश्वों की वल्गा अपनी ओर खींची। रथ स्थिर हो गया। उसे सहसा अपने स्वर तन्तुओं पर विश्वास नहीं हुआ। वह आकाश की ओर सिर उठाकर कुछ सोच ही रहा था कि मेघ-गर्जन-से गंभीर स्वर में एक बार पुनः आकाशवाणी हुई —

“अरे अज्ञानी कंस! ले सुन, अपना भविष्य पुनः सुन। तेरी इसी बहन देवकी के आठवे पुत्र के हाथों नियति ने तेरी मृत्यु निश्चित की है।”

 

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