यशोदानंदन-५०

-विपिन किशोर सिन्हा-

krishna and balram

ढोल-नगाड़ों की ध्वनि मथुरा नगर के बाहर भी पहुंच रही थी। स्नानादि प्रातःकर्मों से निवृत्त होने के पश्चात् श्रीकृष्ण तथा बलराम ने मल्लयुद्ध की रंगभूमि से आ रही नगाड़ों की ध्वनि सुनी। शीघ्र ही तैयार होकर उन्होंने रंगभूमि की ओर प्रस्थान किया। रंगभूमि के विशाल द्वार पर एक विशालकाय हाथी ने भयंकर चीत्कार के साथ स्वागत किया। महावत ने उसे द्वार के मध्य में ही खड़ा किया था। कन्हैया ने घन-गर्जन के समान गंभीर वाणी में महावत को संबोधित किया –

“महावतजी। हम राज अतिथि हैं। महाराज कंस के निमंत्रण पर यहां उपस्थित हुए हैं। तुम इस विशाल हाथी को सिंहद्वार के मध्य खड़ा करके हमारा मार्ग अवरुद्ध कर रहे हो। कृपा करके हाथी को मार्ग से हटा लो ताकि हम रंगभूमि में प्रवेश पा सकें।”

 

मदमस्त महावत पर श्रीकृष्ण की बातों का कोई असर नहीं पड़ा। बड़ी उद्दंडता से उसने उत्तर दिया –

“सुकुमार बालकोंं! पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ पहलवान रंगभूमि में मल्लयुद्ध का कौशल प्रदर्शित करने हेतु एकत्र हुए हैं। वहां बालकों का क्या काम? अगर वहां जाने की तुम्हारे अन्दर अत्यन्त प्रबल इच्छा है, तो बलपूर्वक इस कुवलयापीड गजराज को अपने मार्ग से हटाकर अन्दर प्रवेश पा सकते हो, अन्यथा नहीं। साहस हो तो सामने आओ।”

श्रीकृष्ण ने चुनौती स्वीकर की और उच्च स्वर में उत्तर दिया –

“दुष्ट महावत! तू बहुत बढ़-चढ़ कर बातें कर रहा है। आज तेरे जीवन का अन्तिम दिवस है। मैं शीघ्र ही तुम्हें और तुम्हारे कुवलयापीड को यमराज के घर पहुंचाता हूँ।”

राजाओं के सारथि को राजाओं से अधिक अहंकार होता है। कुवलयापीड अद्भुत गजराज था। उस समय वह मद से भरा था। उसका महावत उससे भी अधिक मदग्रस्त था। उसने हाथी को श्रीकृष्ण पर आक्रमण के लिए उत्तेजित कर दिया। गोकुल छोड़ते ही श्रीकृष्ण और दाऊ का वक्षस्थल अचल आत्मविश्वास से भर आया था। पीछे लहराते यादवों के गरजते सागर को देखकर दोनों भ्राताओं का आत्मविश्वास आकाश को छूने लगा। मन के अन्दर भर उठा – निर्भीकता, अदम्य साहस और दृढ़ निश्चय। अब श्रीकृष्ण गोपियों के साथ नटखट क्रीड़ायें करने वाले कन्हैया नहीं थे। वे बन चुके थे, तेज के अशरण-स्तंभ और प्रचण्ड शत्रुदमन।

कुवलयापीड गजराज महावत का इंगित पाते ही दोनों भताओं की ओर चिग्घाड़ते हुए तेजी से बढ़ा। अपना सूंड़ फैलाकर उसने दोनों भ्राताओं को बांध लेने की प्रबल चेष्टा की। दोनों ने घुटना, कटि और सिर झुकाकर बड़ी कुशलता से गजराज को चकमा दे दिया। तालियों की गड़गड़ाहट से परिवेश गूंज उठा। क्षणांश में ही बलराम उस प्रचण्डकाय प्राणी की तनी हुई छोटी पूंछ की ओर मुड़े और चपलता से उसकी सूंड़ की ओर लपके। श्रीकृष्ण ने भी दूसरी ओर से उसकी सूंड़ पर ही आक्रमण किया। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि विद्युत की दो लपटें उस मदोन्मत्त गजशक्ति से खिलवाड़ कर रही हों। अपनी पुष्ट ग्रीवा को झटके देता, सूंड़ नचाता वह गजराज निरन्तर प्राण-भेदक चीत्कार करने लगा। वहां उपस्थित सभी जन पथराये से केवल देखते रहे, हाथ जोड़कर दोनों बालकों की रक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते रहे।

श्रीकृष्ण गजराज की सूंड़ को चकमा देकर चपलता से उसके पेट के नीचे आए। बलराम उसकी पूंछ को रस्सी की भांति मरोड़ते हुए उसकी पीठ पर चढ़ गए। पलक झपकते ही उसके मस्तक पर पहुंच महावत से अंकुश छीन लिया। अपनी शक्ति भर महावत ने संघर्ष किया, परन्तु महाकाल बने बलराम के आगे वह कबतक टिकता? बलशाली दाऊ ने उसे दबोच लिया और पूरी शक्ति से घुमाकर दूर फेंक दिया। महावत के प्राण-पखेरू उड़ गए। श्रीकृष्ण उस प्रच्ण्ड हाथी के आगे के दो पैरों से निकलकर सामने खड़े हो गए और उसकी मदमस्त लाल आँखों में आँखें डालकर उसकी गतिविधि का अचूक अनुमान लगाने लगे। वे उसे लगातार चकमा देकर उत्तेजित कर रहे थे और बलराम उपर से अंकुश का प्रहार कर शिथिल कर रहे थे। जब वह श्रीकृष्ण पर आक्रमण के उद्देश्य से आगे, दायें या बायें बढ़ता, दाऊ पीछे से अंकुश चुभाकर उसे उल्टी दिशा में घुमा देते। श्रीकृष्ण कभी पास आते, तो कभी दूर जाते। गजराज को द्वार पर लाने के पूर्व मद्यपान भी कराया गया था। गोल-गोल घूमने के कारण मद्य का नशा और चढ़ गया। उसका मस्तक मद से लथपथ हो गया। दाऊ के अंकुश की चुभन से कभी श्रीकृष्ण की ओर, तो कभी दाऊ की ओर ग्रीवा घुमा-घुमाकर वह क्लान्त हो गया। गजराज पर दोनों भ्राताओं ने पूरा नियंत्रण स्थापित कर लिया था। वे उसे अपनी मनचाही दिशा में नचा रहे थे। वह फिरकिनी की भंति घूम रहा था। कुछ ही देर में उसके शरीर ने जवाब दे दिया। उसके पैर लड़खड़ाने लगे और वह धड़ाम से पृथ्वी पर गिर गया। उसके भयानक चीत्कारों से धरती की धूल हवा में उड़ने लगी। श्रीकृष्ण ने गजराज का लंबा-टेढ़ा दाहिना दांत एक झटके से उखाड़ लिया और उसे अस्त्र बना कुवलयापीड के मस्तक पर अनेकों प्रहार किए। दाऊ ने उसके शरीर का कोई भी भाग ऐसा नहीं छोड़ा था जिसपर अंकुश का आघात नहीं हुआ हो। कंस द्वारा चलाये गए प्रथम शस्त्र मदोन्मत्त गजराज कुवलयापीड ने पैर तानकर फुसफुसाते हुए प्राण त्याग दिए। एक प्रचण्ड शक्ति-केन्द्र नष्ट हो चुका था।

पथराई दृष्टि से मानव और हाथी का युद्ध देख रहे यादवों में चेतना का संचार हुआ। तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उन्होंने स्वस्फूर्त नारे लगाये – कुवलयापीड हतो। श्रीकृष्ण-बलराम की जय। पूरे यादव समुदाय में अचानक अद्भुत जोश भर गया। उस लोमहर्षक जयघोष के साथ राजप्रासाद के महाद्वार के बाहर रुके यादवगण रेल-पेल करते हुए महल के अन्दर प्रविष्ट हुए। हतोत्साहित सुरक्षा प्रहरी स्वयं मार्ग से हट गए।

श्रीकृष्ण और बलराम स्वेद से नहा चुके थे किन्तु श्रान्त नहीं थे। यमुना की लहरों को छूकर आनेवाली हवा ने दिव्य शीतलता प्रदान की।

श्रीकृष्ण ने गजराज का श्वेत दांत अपने कंधे पर रखा और बलराम ने दूसरा दांत अपने कंधे पर। फिर ग्वालबाल सखाओं के साथ दोनों ने रंगभूमि में प्रवेश किया। कुवलयापीड के वध का समाचार कंस तक पहुंच चुका था। क्रोध और भय से वह थर-थर कांप रहा था। उसकी घनी मोटी भौंहें सिमटकर टेढ़ी हो गई थीं। आँखे आग ही आग उगल रही थीं। उसकी किसी भी भंगिमा से अप्रभावित दोनों भ्राता रंगभूमि में आगे बढ़ते गए। रंगभूमि में उपस्थित ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो उन दोनों बालकों के प्रति आकृष्ट न हुआ हो। सभा में उपस्थित सभी नागरिक श्रीकृष्ण के उत्साहवर्धक कार्यों का स्मरण करने लगे। सभी श्रीकृष्ण के रूप को अपने नेत्रों में बंद करने के लिए उचक-उचक कर दर्शन के लिए मचलने लगे। सभा का समस्त अनुशासन भंग होते देख अमात्य ने वादकों की ओर मुड़कर इंगित से कुछ कहा। अचानक तीव्र गति से ऊंची ध्वनि में वाद्य-यंत्र मुखरित हो उठे, जो कुवलयापीड के वध के बाद शान्त हो गए थे। अमात्य ने मल्लयुद्ध की घोषणा कर दी। कंस के प्रधान मल्ल चाणूर ने श्रीकृष्ण और बलराम के समक्ष मल्लयुद्ध के लिए एक नीतिसम्मत प्रस्ताव रखा।

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