यशोदानंदन-५१

shri Krishna in Mathura

-विपिन किशोर सिन्हा-

shri Krishna in Mathura

“हे नन्दलाल! हे श्रीकृष्ण-बलराम! तुम दोनों आदरणीय वीर हो। हमें महाराज द्वारा ज्ञात हुआ है कि तुम दोनों मल्ल-उद्ध में निपुण हो। तुम्हारा कौशल देखने के लिए ही तुम्हें यहां आमंत्रित किया गया है। नीति वचन है कि जो प्रजा मन, वचन और कर्म से राजा का प्रिय कार्य करती है, उसका सदैव कल्याण होता है और जो राजा की इच्छा के विपरीत कार्य करती है, उसे हानि उठानी पड़ती है। यह सभी जानते हैं कि गाय और बछड़े चराने वाले ग्वाले प्रतिदिन आनन्द से जंगलों में कुश्ती लड़-लड़कर खेलते रहते हैं और गायें भी चराते रहते हैं। इसलिए, आओ, हम और तुम मिलकर महाराज को प्रसन्न करने के लिए मल्ल-युद्ध करें।”

श्रीकृष्ण चाणुर का मन्तव्य भलीभांति जानते थे। राजा द्वारा पोषित एक मल्ल द्वारा नीति का उदाहरण देकर मल्ल-युद्ध के लिए आमंत्रित करने के उपक्रम ने उनके अधरों पर एक बंकिम मुस्कान की रेखा स्वाभावि रूप से खींच दी। मल्लयुद्ध के लिए तो वह पहले से ही कृतसंकल्प थे, परन्तु इस बेमेल मल्लयुद्ध की ओर सभी नागरिकों का ध्यान खींचने के अवसर को भी वे यूं ही नहीं गंवाना चाहते थे। चाणूर के आमंत्रण के उत्तर में पूरी सभा को सुनाते हुए, देश-काल के अनुरूप उन्होंने नीतिपरक बातें कही –

“चाणूर! हम भी भोजराज कंस की वनवासी प्रजा हैं। हमें इन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। किन्तु चाणूर! हमलोग अभी बालक हैं, अतः हम अपने समान बलवाले बालकों के साथ ही मल्लयुद्ध का खेल करेंगे। समान बल और वय वालों के साथ ही मल्लयुद्ध उचित और नीतिसम्मत है। अतः हमारे वय और समान बलवाले बालक मल्लों को बुलाओ। ऐसे मल्लयुद्ध को देखने वाले सभासदों को कोई पाप नहीं लगेगा। अगर मल्लयुद्ध तुम्हारे जिसे दिग्गज मल्ल और मेरे जैसे साधारण बालक के बीच होता है, तो दर्शकों को अन्याय का समर्थक होने का पाप लगेगा।”

चाणूर श्रीकृष्ण की चतुर बातों के जाल में कहां फंसने वाला था। उसने बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर दिया –

“हे भ्राताद्वय! तुम और बलराम भले ही बालक हो या किशोर हो, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। हम तो इतना ही जानते हैं कि तुम दोनों बलवानों में श्रेष्ठ हो। तुम दोनों ने अभी-अभी हजार हाथियों का बल रखने वाले प्रचण्ड कुवलयापीड को खेल ही खेल में मार डाला। अतः तुम दोनों को हम जैसे बलवानों से लड़ने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इसमें अन्याय की कोई बात नहीं है। मल्लयुद्ध के प्रथम चरण में, हे श्रीकृष्ण तुम मुझपर अपना जोर आजमाओ और बलराम मुष्टिक पर।”

श्रीकृष्ण और बलराम तो चाणूर और मुष्टिक के वध के लिए पहले से ही कृतसंकल्प थे। नन्दलाल ने मुस्कुराकर अपनी सहमति प्रदान कर दी।

चाणूर और मुष्टिक अत्यन्त अहंकार से भरे थे। वे गजराज की चाल चलते हुए अखाड़े में आये। भांति-भांति के तेलों से मर्दन करने के कारण उनके शरीर चिकने हो गए थे। सूरज की रश्मियां उनके शरीर पर पड़कर परावर्तित हो जा रही थीं। उनके शरीर दमक रहे थे। दोनों मल्लों ने अखाड़े में पहुंचते ही दोनों हाथ उठाकर जयघोष किया – अजेय मल्लवीर मथुरा नरेश महाराज कंस की जय हो। उन्होंने दौड़ते हुए अखाड़े की दो परिक्रमायें की। उनके ताल ठोंकने से मेघ-गर्जन-सी ध्वनि हुई। उनकी भाव-भंगिमा अत्यन्त हिंसक थी। उनके दर्शन मात्र से दर्शक वर्ग में भयंकर आशंका का सन्नाटा छा गया। एकाएक भय प्रदान करनेवाले नगाड़े तेजी से बज उठे।

श्रीकृष्ण ने अधिक विलंब न करते हुए अखाड़े में उतरने का निर्णय लिया। बलराम ने भी उनका अनुसरण किया। चाणूर ने श्रीकृष्ण को सामने पाकर भयंकर गर्जना की। वह तरह-तरह से पैंतरे बदल कर श्रीकृष्ण के पास आना चाहता था लेकिन श्रीकृष्ण बड़ी तेजी से उसके पैंतरे की काट कर उसे छका रहे थे। चाणूर उन्हें पकड़ने का हर संभव प्रयास कर रहा था परन्तु वे पकड़ में आ ही नहीं रहे थे। वह थोड़ा शिथिल होकर अगली योजना पर विचार कर ही रहा था कि अचानक श्रीकृष्ण तेजी से उछलकर समीप पहुंचे और अपनी मुष्टिका से उसकी कनपटी पर तीन प्रहार किए। दर्शकों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था – श्रीकृष्ण के प्रहार से वह महान मल्ल डगमगा गया और गिरते-गिरते बचा परन्तु उसने शीघ्र ही स्वयं को संभाल लिया। अपने दोनों हाथ पीछे बांधकर अपने सिर से उसने श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर प्रबल प्रहार किया। श्रीकृष्ण अविचल रहे। उन्होंने झट से चाणूर से एक दूरी बनाई। क्रोध में भरकर चाणूर उनका पीछा करता रहा और वे उसे अखाड़े की सीमाओं के अंदर दौड़ाते रहे। चाणूर समझ नहीं पा रहा था कि श्रीकृष्ण उसकी पीठ के पीछे हैं, दायें हैं, बायें हैं या सामने हैं। ठीक इसी प्रकार बलराम अपने जोड़ीदार मुष्टिक को परेशान कर रहे थे।

दंगल को देखने नगर की बहुत सारी महिलायें भी आई थीं। वे बेमेल दंगल को देख अत्यन्त दुःखी हुईं। उनका हृदय करुणा से भर आया। वे वापस में फुसफुसाकर बातें करने लगीं – “पता नहीं कैसे मंत्रियों और सभासदों ने इस दंगल की अनुमति प्रदान की है? राजा भी द्वन्द्व युद्ध को नहीं रोक रहे हैं। कहां ये महाबली राजमल्ल और कहां गोकुल के ये सुकुमार बालक? दोनों बालक तो तरुण भी नहीं हैं। ये तो किशोरवस्था के प्रारंभिक चरण में हैं। इनके एक-एक अंग अत्यन्त कोमल हैं। इनके विरुद्ध लड़ रहे राजमल्ल चाणूर और मुष्टिक को तो देखो। इन मल्लों का शरीर वज्र के समान कठोर है। ये देखने में भी भारी पर्वत के समान मालूम होते हैं। यहां जितने लोग एकत्रित हुए हैं उन्हें अवश्यमेव धर्मोल्लंघन का पाप लगेगा। शास्त्र कहता है कि जहां अधर्म की प्रधानता हो, वहां कभी नहीं रहना चाहिए। बुद्धिमानजन को सभासदो के दोषों को जानते हुए भी सभा में नहीं बैठना चाहिए। हम इस अधर्मी युद्ध के साक्षी नहीं बन सकतीं। अब हमें यहां से चल देना चाहिए।”

महिलायें जाने के लिए उद्यत हो रही थीं कि श्रीकृष्ण ने शीघ्रता से आक्रमण आरंभ कर दिया। वे जड़वत जहां थीं, वहीं बैठ गईं। कन्हैया ने चाणूर के पैरों में कैंची दांव लगाया। मल्ल अचानक धरती पर गिर पड़ा, फिर शीघ्रता से खडा भी हो गया। वह कुछ सोच पाता कि श्रीकृष्ण ने पछाड़ दांव के द्वारा उसे पुनः धरती सूंघा दी। धरती पर औंधे पड़े चाणूर की पुष्ट ग्रीवा पर घुटना टेककर श्रीकृष्ण ने उसे रौंद डाला। चाणूर हांफने लगा। उचित अवसर जान कन्हैया ने विशिष्ट बाहुकंटक दांव का प्रयोग किया। चाणूर के पास इसकी कोई काट नहीं थी। उसकी ग्रीवा इस विशिष्ट दांव में फंस चुकी थी। धीरे-धीरे कसाव बढ़ता गया। वह मुंह से गरगर की ध्वनि निकालते हुए पैर पटक रहा था। जीभ निकालकर आँखें घुमाते हुए रक्त उगलकर, एड़ियां रगड़ते हुए वह छूटने के लिए छटपटाने लगा। मगर श्रीकृष्ण उसे कहां अवसर देने वाले थे। मल्ल-विद्या का अन्तिम प्राणघातक दांव होता था – बाहुकंटक! बाहुकंटक अर्थात प्रतिस्पर्धी के कंठ में फंसा प्रत्यक्ष मृत्यु का कंटीला पाश!

चाणूर जैसे-जैसे छटपटा रहा था, बाहुकंटक का पाश और कसता जा रहा था। समस्त दर्शकों की सांसें रुक गई थीं। आश्चर्य से सबके नेत्र फट से गए थे। उस श्यामल बालक का पराक्रम अलौकिक था। उसने असंभव को संभव कर दिखाया था। चाणूर के पास कोई विकल्प बचा नहीं। एड़ियां रगड़-रगड़ कर कंस का दुर्दान्त महाकाय मल्ल चाणूर अखाड़े में ही गतप्राण हो गया।

चाणूर की मृत्यु से अप्रभावित दूसरा महाकाय मुष्टिक बलराम पर निरन्तर आक्रमण कर रहा था। बलराम जी उसके सारे दांवों को निरर्थक कर रहे थे। अचानक उसने बलराम को समीप पा एक शक्तिशाली घूंसा उनके वक्षस्थल पर दे मारा। एक बार तो बलराम को चक्कर आया, परन्तु क्षणांश में ही स्वयं को संतुलित कर लिया। मुष्टिक जबतक अपने प्रहार का प्रभाव देखने के लिए नेत्र उपर उठाता, बलराम ने एक झन्नाटेदार तमाचा उसकी कनपटी पर जड़ दिया। यह प्रहार प्राणघातक था। मुष्टिक कांप उठा और जड़ से उखड़ते हुए वृक्ष के समान अत्यन्त व्यथित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। बलराम उसकी छाती पर चढ़ बैठे और लगातार उसके वक्ष पर प्रहार करते रहे। मुष्टिक का शरीर शिथिल होने लगा, रक्त-वमन करते हुए उसने प्राण-त्याग कर दिया।

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