यह भोपाल नगर निगम का विभाजन नहीं, विस्तार है

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मनोज कुमार
आपके गिलास में आधा पानी है तो आप कह सकते हैं कि गिलास आधा है या फिर आप कह सकते हैं कि गिलास आधा भरा हुआ है. यह फिलासफी, जीवनदर्शन पुराना है. जब आप पहली बात कहते हैं तो आपके भीतर की नकरात्मकता सामने आती है लेकिन जब उसी गिलास के बारे में कहते हैं तो आपकी देखने की दृष्टि बदल जाती है और सबकुछ सकरात्मक हो जाता है. लगभग यही हालत भोपाल नगर निगम को दो भागों में विभक्त कर शहर को विकास देने की अवधारणा पर कुछ लोग उपरोक्त उदाहरण की तरह देख रहे हैं. यह होना स्वाभाविक था क्योंकि यह मुद्दा एक किस्म का राजनीति का है. राजनीति विकास के लिए की जाए तो वह सकरात्मक हो जाती है लेकिन राजनीति को नकरात्मकता से देखा जाए तो लोगों के दिलो-दिमाग पर आपकी बातें बेअसर होती है. निश्चित रूप से टूटना या विभाजित किए जाने को कोई भी उचित नहीं कहेगा क्योंकि इसमें भी पहला भाव नकरात्मकता का आता है लेकिन इसे बड़े मन से देखा जाए तो भविष्य में इस विस्तार से विकास की संभावनाओं पर चर्चा की जा सकती है. 
लगभग हर दस सालों में भोपाल का सेहत और सूरत दोनों बदल रही है. आबादी के मान से देखें तो आज जो है, वह एक दशक पहले नहीं थी और आगे एक दशक बाद वह नहीं होगा. इसी भोपाल शहर के आज के सबसे व्यस्ततम व्यवसायिक केन्द्र महाराणाप्रताप नगर की चर्चा करें तो यह वही हिस्सा है जहां रात 10 बजे के बाद सन्नाटा घिर आता था लेकिन आज यह सबसे आबाद क्षेत्र है. लगभग यही हालत भोपाल के अन्य क्षेत्रों की है. नगर निगम के क्षेत्राधिकार बंटेंगे तो जिम्मेदारियां भी बंटेगी और विकास का रास्ता भी खुलेगा. आज जिस कोलार को नगर निगम का दर्जा दिए जाने पर हंगामा मचा हुआ है, वहां की बुनियादी सुविधाओं की दुर्गति किसी से छिपी नहीं है. राजधानी भोपाल के पॉश इलाकों में जो सुविधाएं मिल रही हैं, क्या इस नए बनने जा रहे नगर निगम क्षेत्र के लोगों को उन सुविधाओं पर हक नहीं मिलना चाहिए? पानी, बिजली, सडक़, स्कूल और अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए भटकते लोगों को इस नए प्रारूप से राहत मिलेगी और वे भी अपने हिस्से की सुविधा उठा सकेेंगे. 
दरअसल, यह सोच, सोच का फर्क है. लोकतंत्र का एक सर्वस्वीकृत सिद्धांत है कि प्रशासनिक इकाइयां जितनी छोटी होंगी, जनता को उतनी ही सुविधा मिलेगी। छोटी प्रशासनिक इकाइयों के पक्ष में भाजपा नेता और पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की आवाज बुलंद थी। वे देश को छोटे-छोटे राज्यों में बांटने के पक्षधर थे। मध्यप्रदेश को बांटकर छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश को बांटकर उत्तराखंड और बिहार को बांटकर झारखंड राज्य का गठन उन्हीं शासनकाल में हुआ था। देश के सर्वमान्य नेता वाजपेयी जी की दूरदृष्टि का ही परिणाम था कि अपनी स्थापना से उपेक्षा का शिकार छत्तीसगढ़ राज्य आज विकास की कुलांचे भर रहा है. उसका विकास का एकमात्र कारण है स्वतंत्र होना और स्वयं के प्रति जवाबदेह होकर बेहतरी के निर्णय करना. एक नगर निगम के बंटवारे पर हल्ला बोलने वाले नेताओं ने ना तो छत्तीसगढ़ के अलग हो जाने पर हल्ला किया था और ना ही दूसरे राज्यों के बंटवारे पर. यहां तक कि मध्यप्रदेश में अपनी स्थापना के समय जितने जिले थे, उन्हें बांटकर बढ़ाते-बढ़ाते 52 जिलों तक पहुंचा दिया गया है। क्या इससे उन जिलों का विकास बाधित नहीं हुआ, जहां जिलों को विभक्त कर नए जिले का स्वरूप दिया गया?
दरअसल, प्रशासनिक इकाइयों का आकार छोटा करने के लिए ही नए राज्यों, नए जिलों, तहसीलों, नगर निकायों का सृजन किया जाता है। जब प्रशासनिक इकाई छोटी होती है, तो जनता और शासन- प्रशासन के बीच की दूरी कम हो जाती है। जैसे- भोपाल के लोग अपनी किसी समस्या को लेकर जितनी आसानी से मुख्यमंत्री, मंत्रियों, पुलिस-प्रशासन के आला अफसरों से मिल सकते हैं, उतनी आसानी से प्रदेश के सुदूर अंचलों के लोग नहीं मिल सकते। राजधानी एक प्रशासनिक इकाई ही तो है और इस इकाई से जो अंचल जितना दूर है, वहां के लोगों का राजधानी तक आना उतना ही दुष्कर। राजधानी का तो उदाहरण मात्र दिया गया है। आम जनता के ज्यादातर काम ग्रामीण-शहरी निकायों, जिला, तहसील, थानों में पड़ते हैं। इन सभी प्रशासनिक इकाइयों की आम जनता से कम दूरी होनी चाहिए। अंतत: ये इकाइयां जनता की सुविधा, उसकी समस्याओं के निराकरण के लिए ही स्थापित की गई हैं।

एक बहुत बड़ा मसला आबादी का होता है। जब आबादी बढ़ती है, तो प्रशासनिक इकाइयों पर काम का बोझ भी बढ़ता है। इस सूरते-हाल में उस प्रशासनिक इकाई को बांटकर दो मुख्यालय बना दिए जाते हैं। इससे काम का बोझ बंट जाता है और मुख्यालय जनता के करीब पहुंच जाता है। अभी 10-12 साल पहले जो गांव भोपाल से बाहर हुआ करते थे, वे अब भोपाल में शामिल हो गए हैं। शहर का आकर इतना फैलता गया कि उसने गांवों को अपने में समाहित कर लिया। 
भोपाल का एक जैसा विकास, शहरवासियों को एक जैसी बुनियादी सुविधाएं तभी मिलेंगी, जब नगर निगम तो दो भागों में बांटा जाएगा। इस तरह के विभाजनों का कहीं विरोध नहीं किया जाता। इस बात को ध्यान रखा जाना चाहिए कि बेंगलुरु नगर निगम तीन हिस्सों में, चेन्नई नगर निगम चार बार हिस्सों में विभाजित हो चुका है। पुणे, मुंबई, कोलकाता आदि नगरीय निकायों का विभाजन हुआ, लेकिन विरोध किसी ने नहीं किया। दिल्ली नगर निगम को चार हिस्सों में बांटा गया था, तब विरोध करने वाले नेता स्वयं स्वीकार करते हैं कि यदि दिल्ली नगर निगम को चार भागों में नहीं बांटा गया होता, तो उसका वैसा विकास नहीं हुआ होता, जैसा अब हुआ है। उपरोक्त बातों के मद्देनजर यह साफ है कि नगर निगम को विभाजन की तराजू पर तौलने के बजाय विकास की संभावनाओं को देखकर इसका विरोध नहीं किया जाना चाहिए. निश्चित रूप से नाथ सरकार का यह फैसला लोगों को राहत देगा. उन्हें जो नए के हिस्से में आ रहे हैं और उन्हें भी जो पहले से हैं किन्तु काम के बोझ के तले उनका काम अकारण देर से होता है. 

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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