यह कैसा ‘राष्ट्रधर्म’ है?

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एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती वर्ष में उन्हीं की प्रेरणा एवं समर्पण से प्रारंभ राष्ट्रधर्म पत्रिका को केन्द्र सरकार के विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएव्हीपी) ने अपनी विज्ञापन सूची से बाहर कर दिया है। देशभर के प्रिंट मीडिया ने इस विषय को प्रमुखता से प्रकाशित किया है। ‘राष्ट्रधर्म’ सिर्फ एक पत्रिका नहीं है यह वाकई पत्रकारिता क्षेत्र का एक युगानुकूल राष्ट्रधर्म है। डीएव्हीपी की नीति के तहत विज्ञापन सूची से बाहर रखने के निर्णय पर पत्रिका के प्रबंध सम्पादक पवन पुत्र बादल ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि हम पत्रिका का प्रकाशन विज्ञापन के लिए नहीं करते, प्रकाशन जारी रहेगा। श्री बादल का बयान मूल्य आधारित पत्रकारिता का एक साक्षात प्रमाण है और इसका अभिनंदन होना चाहिए। नि: संदेह केन्द्र सरकार ने प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी एक स्वच्छता अभियान चलाया है।

सूचना प्रसारण मंत्रालय की इस पहल पर किसी को भी न तो कोई आपत्ति हो सकती है, न है। पर सरकार को एक सावधानी रखने की आवश्यकता अवश्य है। यह सच है कि देश में सरकारी विज्ञापन विगत कई दशकों से खैरात की तरह बंट रहे थे और अखबारों में एक बड़ा गोरख धंधा चल रहा था। इस धंधे में नौकरशाह, राजनेता एवं कृपा पात्र पत्रकार शामिल थे। सराहना करनी होगी कि सरकार ने बर्र के छत्ते में हाथ डालने का साहस किया लेकिन यह भी एक सच है कि नौकरशाहों की अपनी एक संस्कृति है और वह मोदी सरकार की संस्कृति से पूरी तरह कदमताल कर पाई है। यह अभी पूरी तरह से दिखाई नहीं देता। नियम सबके लिए एक समान है। यह अच्छी बात है। इस नियम पर मोदी सरकार को प्रमाण पत्र मिल गया है कि उसने दीनदयाल जी की प्रेरणा से प्रारंभ पत्रिका को ही विज्ञापन सूची से अयोग्य घोषित कर दिया पर यह प्रमाण पत्र तो है लेकिन क्या मोदी सरकार इस प्रमाण पत्र को पाकर अपनी पीठ थपथपाएगी। इस पर विचार करना होगा। देश आज संक्रमण काल से गुजर रहा है। समूचे विश्व में वैचारिक संघर्ष की स्थिति है।

समाचार पत्र एवं दृश्य मीडिया इसमें एक कारगर हथियार है। विगत इतिहास में सरकारी पैसों से वामपंथियों ने इसकी दम पर जहर घोला है घोल रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में मूल्य आधारित पत्रकारिता राष्ट्रीय विचारों की पत्रकारिता के टिमटिमाते ही सही दीए कौन कौन से हैं यह सरकार को सरकारी चश्मा हटाकर देखना होगा, समझना होगा। ध्ांधे के लिए पत्रकारिता एवं विचार के लिए पत्रकारिता इसमें सरकार को भेद करना होगा। कारण आज के परिवेश में ऐसी पत्रकारिता को जीवित रखना उसे पोषित करना यह सरकार का राष्ट्रधर्म है और ऐसा करके यह किसी को उपकृत नहीं करेगी बल्कि अपने युगानुकूल कर्तव्य को पूरा करेगी। राष्ट्रधर्म या राष्ट्रधर्म की ही तरह देश में ऐसी पत्र पत्रिकाएं हैं जो आज भी विचारों के प्रवाह के लिए पत्रकारिता जगत में हैं। जब पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन और प्रोफेशन से ध्ांधा हो गई तब भी इनके लिए पत्रकारिता एक साधना है।  इसलिए श्री बादल का कहना है कि विज्ञापन मिले ना मिले प्रकाशन जारी रहेगा वहीं उनका यह कहना तंत्र की गंभीर लापरवाही दर्शाता है कि पत्रिका का प्रकाशन नियमित होने के बावजूद एकतरफा निर्णय लिया गया। श्री बादल का कहना सही है कि 1947 में जब पत्रिका प्रारंभ हुई थी तब इससे कमाई होगी, विज्ञापन मिलेंगे यह गणित नहीं था आज भी नहीं है। राष्ट्रधर्म एक यज्ञ स्थली है जिसमें परिस्थितियों ने अपने जीवन की आहुति दी है। ऐसे यज्ञ में केन्द्र सरकार की सहयोग की समिधा उन्हीं के यश को बढ़ाएगी पर अगर वे इससे चूकते हैं तो  राष्ट्रधर्म तो अनवरत जारी रहेगा लेकिन क्या वे स्वयं जाने अनजाने ये ही सही एक पाप के भागीदार नहीं होंगे विचार करें।

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अतुल तारे
सहज-सरल स्वभाव व्यक्तित्व रखने वाले अतुल तारे 24 वर्षो से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। आपके राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और समसामायिक विषयों पर अभी भी 1000 से अधिक आलेखों का प्रकाशन हो चुका है। राष्ट्रवादी सोच और विचार से अनुप्रमाणित श्री तारे की पत्रकारिता का प्रारंभ दैनिक स्वदेश, ग्वालियर से सन् 1988 में हुई। वर्तमान मे आप स्वदेश ग्वालियर समूह के समूह संपादक हैं। आपके द्वारा लिखित पुस्तक "विमर्श" प्रकाशित हो चुकी है। हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी व मराठी भाषा पर समान अधिकार, जर्नालिस्ट यूनियन ऑफ मध्यप्रदेश के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष, महाराजा मानसिंह तोमर संगीत महाविद्यालय के पूर्व कार्यकारी परिषद् सदस्य रहे श्री तारे को गत वर्ष मध्यप्रदेश शासन ने प्रदेशस्तरीय पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया है। इसी तरह श्री तारे के पत्रकारिता क्षेत्र में योगदान को देखते हुए उत्तरप्रदेश के राज्यपाल ने भी सम्मानित किया है।

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  1. आज मैं 63 साल का हूँ और दुबई में रहता हूँ. मेरी किशोरावस्था पांचजन्य, राष्ट्रधर्म, शक्तिपूत्र, जान्ह्वी पढते हुए बीती. उसीका प्रभाव जीवन पर पड़ा. राष्ट्रधर्म के संपादक श्री वचनेश त्रिपाठी से मेरे व्यक्तिगत संबंध बने. एक वार वे हमारे घर दनकौर भी आए. मैं भी उनसे मिलने लखनऊ गया. राष्ट्रधर्म कोई व्यावसायिक पत्रिका नहीँ. ये एक राष्ट्रीय मिशन है. अगर मोदी जी कि सरकार में ऐसे निर्णय होंगे तो मेरे जैसे पाठक के दिल पर क्या गुजरेगी ? लगता है वामपंथ के चाटुकार अभी भी नौकरशाही में सक्रिय हैं.

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