योग –एक वैज्ञानिक विवेचना

0
206

डा श्याम गुप्त
भारतीय दर्शन में मानव जीवन का लक्ष्य , धर्म, अर्थ, काम ,मोक्ष-ये चार पुरुषार्थ हैं, जिनमें अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को परम पुरुषार्थ माना गया है। वेदिक व उपनिषदीय ज्ञान के अनुसार अन्तिम लक्ष्य अमृत प्राप्ति या मोक्ष है, यही वास्तविक मोक्ष है । योग शास्त्र के अनुसार ’ आत्मा का परमात्मा से मिलन’ ही योग है । जबकि गीता के अनुसार-’ योगः कर्मसु कौसलम”, प्रत्येक कर्म को कुशलता से, श्रेष्ठतम रूप से करना ही योग है। यही तो विज्ञान की मूल मान्यता है, वर्क इज़ वर्शिप’ ।
यदि ध्यान से देखें तो सभी व्यख्याओं का एक ही अर्थ है-मानव अपने को इतना ऊपर उठाले कि वह प्रत्येक कार्य सर्वश्रेष्ठ ढंग से कर सके। वह सर्वश्रेष्ठ तरीका सर्वश्रेष्ठ परमात्मा जैसा होकर ही पाया जा सकता है। अर्थात आत्म( मानव ) स्वयम को परमात्मा जैसे गुणों में ढालने क प्रयत्न करे और उसमें लय हुए बिना सारे गुण कैसे आसकते हैं। यह आत्मा का परमात्मा में लय होना ही योग है। इसे विज्ञान किसी भी कार्य को पूर्ण रूप से रत होकर मनोयोग से करना कहता है। परम के अर्थ हैं –व्यापक व उत्कृष्ट , विज्ञानकी द्र्ष्टि में “अब्सोल्यूट”,अन्तिम सीमा, यथा एब्सोल्यूट ताप । व्यापक का अर्थ है समष्टि अर्थात प्राणि जगत, मानव समाज, यही परमात्मा का विराट रूप है इसे वेदान्त ’सर्व खल्विदं ब्रह्म’ कहता है।अतः व्यक्ति स्वयम को समाज़ के प्रति अर्पित करे, समष्टि के लिये व्यष्टि को उत्सर्ग करे।
अपनी क्षमताएं लोक मन्गल के लिये प्रयोग करे। यही तो विज्ञान का भी उद्देश्य है ।
यही योग है ।
परम का अन्य अर्थ- उत्कृष्ट, अर्थात मनसा वाचा कर्मणा हम जो भी करें, श्रेष्ठ करें। प्रत्येक वस्तु का वही पक्ष अपनाने योग्य है जो सर्वश्रेष्ठ ह सदभावनाएं, सदविचार, सतप्रवृत्तियाँ ,आदर्श,मर्यादा, सत्सन्गति आदि अपनाने का यही भाव है।
समाज में सदवृत्तियों का वर्धन व दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन ही परमात्मा की आराधना व उससे एकाकार होना है, यही तो विज्ञान का भी मूल उद्देश्य है। यही योग है। अतः चाहे परिवार हो या समाज़ या व्यक्तिगत स्तर श्रेष्ठता का सम्वर्धन व निकृष्टता का सन्वर्धन करना ही वास्तविक योग है । तभी गीता कहती है-’ योगः कर्मसु कौशलं”
यह योग, परम पुरुषार्थ या मोक्ष जो मनव जीवन की अन्तिम सीढी है-धर्म, अर्थ व काम की सीढियों पर नितन्तर ऊपर उठ कर ही प्राप्त किया जासकता है,अर्थात प्रत्येक कार्य मेंश्रेष्ठता व समाज़ का व्यापक हित निहित होना चाहिये। यही योग है।

योग वशिष्ठ के अनुसार, अपने वास्तविक रूप का अनुभव ही योग है। परमात्मा के उपरोक्त गुणों को अपने में सन्निहित करना ही स्वयम को जानना है, यही योग है। गीता में कथन है—
“” योगस्थः कुरु कर्माणि संग्त्यक्त्वा धनंजय समोभूत्वा ।
सिद्धि सिद्दयोःसमो भूत्वा समत्वं योगं उच्यते ॥“
-हे अर्जुन! आसक्ति छोडकर सम भाव से कर्म करते जाना, यह समत्व भाव ही योग है। यही सम भाव ,समष्टि भाव परमात्मा का भी गुण है, परम व श्रेष्ठ, वैज्ञानिकों व मनीषियों के भी यही गुण होते हैं।
यह समभाव,समष्टि भाव, परमात्वभाव रूपी योग कैसे प्राप्त किया जाय। मुन्डकोपनिषद में शिष्य पूछता है- कश्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्व इदं विज्ञातं भवति ।“
आचार्य का उत्तर है, “ प्राण वै “ । वह क्या है जिसको जानने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है, जो ईश्वर प्राप्ति मे सहायक है। उत्तर है प्राण- अर्थात स्वयम को समझने पर समस्त मानसिक शारीरिक क्षमताओं को समझा जा सकता है। प्राणायाम का यही तो सिद्धान्त है। और शरीर-विज्ञान का भी। पतन्जलि योग शास्त्र कहता है-“योगश्चित्तव्रत्तिनिरोध:” चित्त की वृत्तियों को, मन की चंचलता को रोक कर ,मन पर अधिकार करके , स्वयम को समझ कर ही ईश्वर( व संसार दोनों) को प्राप्त किया जासकता है। आसन,उपासना,ध्यान,धारणा,व्रत,संयम ,जप,तप,चिन्तन,प्रत्याहार, आदर्श्वादी व्यवहार,उत्तम जीवनचर्या, आदि योग के विभिन्न क्रियात्मक पक्ष हैं जो सद वृत्तियों के सम्वर्धन में सहायक होते हैं। हठयोग, ध्यान्योग,जप, कुन्डलिनी जागरण, लय, नाद, भक्तियोग,इसी योग की प्राप्ति के विभिन्न साधन हैं,जिसे विभिन्न धर्म,विचारधाराएं विभिन्न रूप से कहतीं है। विज्ञान के रूप- मनोविग्यान, -, साइको-थेरेपी, मनो- चिकित्सा, फ़िज़ियोथीरेपी ,सजेशन-थीरेपी, आदि सभी इसी के रूप हैं—-
“”एको सद विप्र वहुधा वदन्ति””॥

Previous articleआम आदमी की आप ?
Next articleमीडिया का मजा
डा. श्याम गुप्त
शिक्षा—एम.बी.,बी.एस.,एम.एस.(शल्य), सरोजिनी नायडू चिकित्सा महाविद्यालय,आगरा. व्यवसाय-चिकित्सक (शल्य)-उ.रे.चिकित्सालय, लखनऊ से व.चि.अधीक्षक पद से सेवा निवृत । साहित्यिक-गतिविधियां–विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से संबद्ध, काव्य की सभी विधाओं—कविता-गीत, अगीत, गद्य-पद्य, निबंध, कथा-कहानी-उपन्यास, आलेख, समीक्षा आदि में लेखन। ब्लोग्स व इन्टर्नेट पत्रिकाओं में लेखन. प्रकाशित कृतियाँ — १. काव्य दूत २.काव्य निर्झरिणी ३.काव्य मुक्तामृत (काव्य सन्ग्रह) ४. सृष्टि–अगीत-विधा महाकाव्य ५.प्रेम-काव्य-गीति-विधा महाकाव्य ६.शूर्पणखा खंड-काव्य, ७. इन्द्रधनुष उपन्यास, ८. अगीत साहित्य दर्पण , ९.ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा में काव्य संग्रह )

1 COMMENT

  1. हमारा अध्ययन बताता है कि योग का उद्देश्य वह विद्या है जिससे जीवात्मा परमात्मा को जानकार उसका साक्षात्कार कर सके. ईश्वर साक्षात्कार ही मोक्ष प्राप्ति की पात्रता है। योग एवं मोक्ष की किसी भी अवस्था में जीवात्मा का ईश्वर में लय नहीं होता है। जीवात्मा ईश्वर व प्रकृति से भिन्न सत्ता है। वह सनातन है। यदि वह अनंत कल से अस्तित्व में होकर आज भी विद्यमान है तो हमेशा इसी प्रकार रहेगी. उसका अस्तित्व बना रहेगा। यदि जीवात्मा का ईश्वर में लय मानते है तो जीवात्मा के अनादि वा अनुत्पन्न होने से लय संभव नहीं है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here