“आप” की चुनौतियाँ और सम्भावनायें

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जावेद अनीस

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दिल्ली ने मोदी के साथ चलने से इनकार कर दिया है और अगले पांच सालों तक ‘अरविन्द केजरीवाल’ पर अपना भरोसा जताया है। दिल्ली ने एक बार फिर चौकाया है और सारे अनुमानों को गलत साबित करते हुए “आम आदमी पार्टी” को प्रचंड बहुमत दिया है। भाजपा का लगभग सफाया हो गया है और कांग्रेस को दिल्ली की राजनीति में मुक्ति मिल गयी है। “मोदी ब्रांड” के सामने अरविन्द केजरीवाल ने अपने 49 दिनों के शासनकाल को पेश किया था और जनता ने इस पर मोहर लगा दिया है। बहुत ही मामूली संसाधन, टूटे हुए भरोसे और मीडिया के एक बड़े हिस्से की बेरुखी के बावजूद “आप” को यह सफलता हासिल हुई है।

साल 2014 भाजपा के लिए अब तक का सबसे अच्छा साल रहा, इस दौरान उसने केंद्र में जबरदस्त बहुमत के बाद कई राज्यों में अपना झंडा गाड़ा, वहीँ 2014 “आप” के लिए बहुत बुरा साबित हुआ, इस दौरान उन्होंने एक के बाद एक कई गलतियां की और अपने आप को कुछ ज्यादा ही आंक लिया। दिल्ली चुनाव 2015 का पहला चुनाव था जिसमें यह तय होने वाला था कि भाजपा के लिए 2014 का सुनहरा सफ़र जारी रहने वाला है या इसमें “आप” की ब्रेक लगेगी, इस “हाई प्रोफाइल” चुनाव में जहाँ, एक तरफ “आप” का भविष्य दावं पर था तो दूसरी तरफ बीजेपी ने बहुत ही बचकाने तरीके से दिल्ली जैसे अपेक्षाकृत छोटे राज्य में अपने स्टार प्रधानमंत्री को ही दावं पर लगा रखा था और इसे अपनी प्रतिष्ठा और नाक का सवाल बना लिया था, दूसरी तरफ लगभग चुकी हुई मान ली गयी “आप पार्टी” ने जबरदस्त वापसी करते हुए अपनी खोयी हुई जमीन को दूबारा हासिल किया है, “दिया” और “तूफ़ान” की लडाई में “दिये” की जीत हुई है। फिलहाल यह कहावत गलत साबित हो गया है कि राजनीति दूसरा मौका नहीं देती।

“आप” के उभार के बाद दिल्ली के पिछले तीन चुनावों के नतीजे चौकाने वाले रहे हैं, पिछली बार 2013 में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के साथ साथ दिल्ली में जो विधान सभा के चुनाव हुए थे, उसमें अपने पहले ही प्रयास में “आप” एक बड़ी ताकत के रूप में उभर कर सामने आई और पंद्रह साल से दिल्ली की सत्ता पर काबिज कांग्रेस को पछाड़ते हुए दूसरी बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। अरविन्द केजरीवाल ने तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को बड़े फासले से हरा दिया था, अब दो साल से भी काम वक्फे के दौरान दिल्ली की जनता ने आप जैसी नयी पार्टी को दूबारा मौका दिया है और इस बार रही सही कसर भी पूरी कर दी गयी है।

 

दिल्ली चुनाव नतीजों की इसलिए भी अहमियत है क्योंकि इससे भारतीय लोकतंत्र में लगातार कमजोर होते जा रहे विपक्ष और लोकतान्त्रिक शक्तियों में जैसे जान आ गयी है, यह तथ्य भी उजागर हो गया कि अगर गंभीर विकल्प हो तो भाजपा की बढ़त को चुनौती दी जा सकती है, पिछले आठ महीनों के दौरान जिन राज्यों में भाजपा की जीत हुई है वहां कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के खिलाफ गुस्सा था और वोटिंग सत्ता के खिलाफ हुई थी।

 

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जीत की पटकथा

यह साबित हुआ कि चुनाव केवल मैनेजमेंट और पैसे के बल पर नहीं जीता जा सकता है। दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी ने ऐसा चुनाव लड़ा जैसे वह हमेशा से चुनाव ही लड़ती आ रही हो, “आप” और केजरीवाल ने वही रणनीति अपनाई जो मोदी और उनकी टीम ने लोकसभा चुनाव के दौरान अपनाया था। अरविन्द केजरीवाल का पूरा ऐटिटूड लोकसभा चुनाव के दौरान “अच्छे दिनों” का भरोसा दिलाते वाले मोदी जैसा नज़र आया वहीँ बीजेपी ने कांग्रेसनुमा चुनाव लड़ा और पूरे अभियान के दौरान मोदी व भाजपा अपने आप को दोहराते हुए नजर आये। किरण बेदी जैसे बाहरी व्यक्ति को सी.एम. कैंडिडेट बनाना एक बड़ी गलती साबित हुई, ऐसा लगा जैसे उन्हें पार्टी और जनता पर थोपने की कोशिश की जा रही है, वे अरविन्द केजरीवाल के सामने “लोकसभा चुनाव के राहुल गाँधी” की तरह नजर आ रही थीं। लेकिन यह एक इकलौती भूल नहीं थी, बीजेपी का पूरा चुनाव प्रचार अभियान नकारात्मक था, वह पूरी तरह से कंफ्यूज थी और इसका असर पार्टी के रणनीति पर भी नज़र आया, भाजपा लगातार अपनी रणनीति भी बदलती रही, शुरू में मोदी ब्रांड को सामने लाया गया, फिर किरण बेदी को मुख्यमंत्री के रूप में भाजपा का सीएम प्रत्याशी बना दिया गया, किरण बेदी जब बेअसर दिखने लगीं तो उन्होंने अपनी रणनीति फिर बदली और एक बार फोकस ‘बेदी से मोदी’ की ओर शिफ्ट कर दिया गया। भाजपा दिल्ली की स्थानीय ईकाई तो चुनाव लड़ ही नहीं रही थी वह इस पूरे खेल के दर्शक की तरह नज़र आ रही थी, अरविंद केजरीवाल के खिलाफ जारी किये गये कार्टून विज्ञापनों ने भी उलटे बीजेपी को ही नुकसान पहुँचाया। रामजादे, हरामजादे, घर वापसी, लव जिहाद के शोर का भी गलत असर डाला ही है। सबसे बड़ा बवंडर यह हुआ कि भाजपा ने दिल्ली जैसे एक केंद्र-शासित सूबे में मोदी और शाह की जोड़ी के पूरी साख को ही दावं पर लगा दिया, यहाँ तक कि बड़ी संख्या में सांसदों और केंद्र सरकार के मंत्रिमंडल के मंत्रियों को इस अभियान झोंक दिया गया था। आखरी सात दिनों में 250 रैलियाँ की गयी। संघ परिवार ने भी अपना पूरा जोर लगा दिया था ।

इन्हीं गलतियों ने हासिये पर चले गये केजरीवाल और उनकी पार्टी को न सिर्फ चुनाव के केंद्र में ला दिया, बल्कि उन्हें एक ऐसे संभावनाओं से भरे नेता के तौर पर पेश कर दिया है जो विकल्हीनता के इस दौर में और अपराजित मोदी को चुनौती दे सकता, अरविन्द के पीछे पूरी “आप” एकजुटता के साथ खड़ी थी, उनका पूरा चुनाव अभियान पूरी तरह से सकारात्मक था और इस दौरान उन्होंने मुद्दों को सामने रखा। “आप” ने इस दौरान राजनीति के तौर–तरीकों को भी सीख लिया है।

आम आदमी पार्टी ने शुरू में इस बात के लिए पूरा जोर लगा दिया था कि यह चुनाव किसी भी तरह से मोदी बनाम केजरीवाल न होने पाए, इसके लिए तो उन्होंने बाकायदा अपने वेबसाइट पर मोदी और केजरीवाल की एक साथ तस्वीर भी लगायी थी और इसमें “दिल्ली की आवाज: मोदी फॉर पीएम, अरविन्द फॉर सीएम” का स्लोगन भी लगाया था। भाजपा के पास मुख्यमंत्री के लिए कोई चेहरा नहीं है। इसी रणनीति के तहत “आप” ने अपनी साइट पर मोदी की तारीफ वाला पोस्टर डाल दिया था, शायद पार्टी यह मैसेज देना चाहती थी कि केंद्र में मोदी तो प्रधानमंत्री बन ही चुके हैं, लेकिन दिल्ली में भाजपा के पास केजरीवाल के टक्कर का कोई नेता नहीं हैं, इसलिए यहां केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए।

इस प्रचंड हार के बाद क्या अब भाजपा और केंद्र सरकार में सब कुछ वैसा ही चलेगा जैसा पिछले सात–आठ माह से चल रहा था? या पार्टी और सरकार अन्दर से कुछ दूसरी आवाजें भी सुनने को मिलेगी और पार्टी व सरकार ने अन्दर से लोकतांत्रीकरण की मांग उठेगी ? एक संभावना यह भी है कि भाजपा की शीर्ष जोड़ी इससे सीख लेते हुए और मजबूत हो जाए।

कुछ भी हो लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद से भारत में विपक्ष की राजनीति को मोदी ब्रांड के बरअक्स जिस एक अदद चेहरे की तलाश थी वह केजरीवाल में पा ली गयी है। अभी पुराने जमीन और तरीकों पर राजनीति कर रहे शिवसेना सहित बाकी विपक्ष के नेता केजरीवाल के जीत का जिस तरीके से स्वागत कर रहे हैं, उसके संकेत बहुत साफ़ है, केजरीवाल वह चेहरा बन सकते हैं जो विपक्ष कि राजनीति के केंद्र में हो। उनकी जुझारू, निडर, ईमानदारी और एक आंदोलनकारी की छवि आने वाले दिनों में संसदीय राजनीति में विकल्प की राजनीति केंद्र बन सकती है, इस चुनाव के साथ एक और ख़ास बात यह रही है कि “आम आदमी पार्टी” ने लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा के साथ चले गये महत्वाकांक्षी मध्य वर्ग को एक बार फिर अपने साथ लाने में कामयाब हुई है। यही वर्ग मोदी की ताकत रहा है और यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रोपगंडा और जनमत बनाने में इस वर्ग बड़ी भूमिका होती है।

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किसका विकल्प

नयी नवेली पार्टी “आप” का सफर बहुत उतार–चढाव वाला रहा है, इसने लगातार गलतियां की हैं लेकिन इस पार्टी ने अपनी गलतियों को स्वीकार है और इनसे सीख कर आगे बढ़ी है, पिछली बार अचानक दिल्ली में सत्ता पाने के बाद इन्होने अपने आपको ज्यादा आकं लिया था और बहुत ही अपरिपक्वता का परिचय देते हुए एक झटके से देश की सत्ता हासिल करने का ख्वाब पाल लिया था। लोकसभा चुनाव नजदीक आते ही कांग्रेस कि डूबती नैय्या को देखते हुए केजरीवाल ने बिना किसी ठोस आधार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया और सीधे गुजरात पहुँच गये और वहां मोदी और उनके तथाकथित “गुजरात विकास माडल” को चुनौती देने चले गये, “आप” ने बिना किसी संगठन के एक ही झटके में लोकसभा चुनाव में चार सौ सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए थे, खुद केजरीवाल मोदी के खिलाफ और उनके मित्र कुमार विश्वास राहुल गाँधी के खिलाफ चुनाव लड़े लेकिन पार्टी का अपने गढ़ दिल्ली में ही पत्ता साफ़ हो गया, हालांकि उसे वहां 31 से 34 प्रतिशत फीसीदी वोट मिले थे। लोकसभा चुनाव के बाद बीच में केजरीवाल ने दोबारा दिल्ली में सरकार बनाने का असफल प्रयास भी किया था। इसके बाद पार्टी की कलह तब खुल कर सामने आ गयी जब मनीष सिसोदिया ने योगेन्द्र यादव पर पार्टी नेतृत्व को भटकाने का आरोप लगाया, लोग जितने तेजी के साथ पार्टी के साथ जुड़े थे उतने ही तेजी के साथ पार्टी छोड़ कर जाने भी लगे। सियासत में इतने कम समय में और ताकत के साथ वापसी करना निसन्देह एक बड़ी उपलब्धि है ।

 

“आप” के सामने चुनौतियां भी कम नहीं है, एक तो उसे उम्मीदों पर खरा उतरना है तो दूसरी तरह अपने दावे के मुताबिक पूरी राजनीतिक जमात में सब से अलग नज़र आते रहना है, उन्होंने जाने-अजनाने पूरे पोलिटिकल डिसकोर्से बदलने कि जिम्मेदारी अपने कंधो पर ले ली है उसे पूरी करना भी बहुत मुश्किल नज़र आता है। फिलहाल आम आदमी पार्टी के सामने एक और बड़ा संकट अरविन्द केजरीवाल के करिश्मे पर ही पूरी निर्भरता ही है, “आप” का सिंगल फेस पार्टी के रूप में ही उभार उसके दूसरी जमातो से अलग होने हे दावे से मेल नहीं खाता है, इस बाद कि भी पूरी संभावना है कि कहीं अरविन्द केजरीवाल “आप” की सीमा न बन बैठें, दरअसल “आप” एक आईडिया है, व्यक्ति नहीं , यह ध्यान रखना होगा कि कहीं केजरीवाल “आप” की आईडिया से बड़े ना हो जायें। शांति भूषन जैसे उसके संस्थापक सदस्यों की चिंता जताते रहे हैं कि “केजरीवाल से “आप” की अवधारणा को नुक्सान हुआ है”। आप से ही जुड़े लोग पार्टी में लोकतंत्र ना होने कि शिकायत भी करते रहे हैं। योगेंद यादव ने आंतरिक लोकतंत्र को लेकर सवाल था। केजरीवाल द्वारा पार्टी के राजनीतिक मामलों की समिति के सुझावों को नहीं सुनने की शिकायत की थी तो पार्टी के वरिष्ठ नेता मनीष सिसोदिया उलटे उनपर हमला बोलते हुए कहा था “योगेन्द्र यादव पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल को निशाना बना रहे हैं तथा पार्टी के अंदरूनी मामलों को सार्वजनिक कर पार्टी को खत्म करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं”।

 

देश के स्तर पर अपने को एक विकल्प के रूप में पेश करने से पहले पार्टी को अपने इन अंतर्विरोधों से पार पाते हुए पार्टी संगठन का जाल बिछाना होगा, इसके साथ ही दिल्ली में केजरीवाल सरकार को अच्छा काम करके दिखाना होगा। अभी यह साबित करना बाकी है कि वे लोग विरोध की राजनीति के साथ–साथ सरकार भी चला सकते हैं।

केजरीवाल और उनकी “आप” भाजपा और संघ-परिवार पोषित बहुसंख्यक राष्ट्रवाद और इसके खतरों का विकल्प नहीं बन सकती है, हाँ वे कांग्रेस का एक विकल्प जरूर बन सकते है बशर्ते वह अपनी हड़बड़ी पर काबू बनाये रखें, अपनी कथनी और करनी में ज्यादा फर्क ना आने दें, अपने आप व्यक्ति आधारित पार्टी बनने से बचा ले जाये और विकास व गवेर्नेंस का एक नया माडल पेश कर सकें, एक ऐसे समय में जब देश का विपक्ष पस्त है और अपनी पस्ती में मस्त है, दिल्ली कि जनता ने “आम आदमी पार्टी” के पास संभावनाओं का खुला आसमान है।

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लोकतंत्र में प्रखर विपक्ष का होना बहुत जरूरी है। पिछले आठ महीनों से घर वापसी, लव जिहाद, हेट स्पीच, अल्पसंख्यकों के इबादतगाहों पर हुए हमलों, हिन्दू राष्ट्र और गोडसे की परस्तिश में उठी आवाजों, चार बच्चे पैदा करने के सुझावों के दरमियान विपक्ष कहीं नज़र नहीं आया है, “आम आदमी पार्टी” को कांग्रेस और किस्मत ने बड़ा मौका दिया है, दिल्ली में सत्तारूढ़ होने के बाद यह संभावना जताई जा रही है कि देश का असली विपक्ष तो अब दिल्ली विधान सभा में बैठेगा, वे नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार के नाक के नीचे सत्ता वापस आकर “आप” ने खोया हुआ आत्मविश्वास वापस पा लिय है।

 

दिल्ली के इस चुनाव से देश की राजनीति में किसी बड़े बदलाव की उम्मीद करना जल्दबाजी होगी, लेकिन इसने सियासत को नयी दिशा देने का मौका जरूर दिया है, दिल्ली नतीजे से मोदी सरकार का लम्बा हनीमून पीरियड खत्म हो गया है, यह भाजपा के लिए इस बात की चेतावनी भी हैं कि सिर्फ चेहरे और बातों से ज्यादा समय तक काम नहीं चलाया जा सकता है और ना ही विकास का मुखौटा लगाकर दकियानूसी और भेदभाव के ऐजेंडे को ही लागू लगाया जा सकता है, हालाँकि यह भाजपा के लिए सब कुछ खत्म हो जाने जैसा भी नहीं है, लेकिन आने वाले दिनों में ना चाहते हुए भी मोदी और केजरी सरकार की तुलना लाजिमी है, मोदी सरकार को हर रोज इस चुनोती से जूझना होगा, इसकी शुरुआत भी हो चुकी है, जीत के बाद अपने पहले भाषण में अरविन्द केजरीवाल ने भाजपा और कांग्रेस के हार के पीछे अहंकार का आ जाना बताया और इस दौरान सभी अपने पत्नी व परिवार के सदस्यों से परिचय कराते हुए अपनी इस सफलता में उनके योग्यदान को भी रेखांकित किया , अरविन्द केजरीवाल ने शपथ ग्रहण के लिए 14 फरवरी को चुना है इसका भी भाजपा संघ परिवार के पूरी राजनीतिक दर्शन के बरक्स प्रतीकात्मक महत्त्व है । “आप” के पास ज्यादा कुछ खोने को नहीं है लेकिन आने वाले दिनों में मोदी और उनकी पार्टी की पूरी साख निशाने पर रहनी वाली है। धन, बल ,जाति, धर्म, अस्मिता, नफरतों बनाम अस्तित्व की लड़ाई में अस्तित्व की हुई इस जीत से लोकतंत्र मजबूत हुआ है और प्रतिरोध की ताकतों को बल मिला है।

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