छोटी आयु में बड़े धार्मिक काम करने वाले गुरूदत्त विद्यार्थी

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महर्षि दयानन्द के जीवनकाल 1825-1883 में देश भर के अनेक लोग उनके सम्पर्क में आये जिनमें से कई व्यक्तियों को उनका शिष्य कहा जा सकता है परन्तु सभी शिष्यों में पं. गुरूदत्त विद्यार्थी उनके अनुपम व अन्यतम शिष्य थे। आपके पिता लाला रामकृष्ण जी फारसी भाषा के असाधारण विद्वान थे तथा राजकीय सेवा में अध्यापक थे। आपकी शिक्षा उर्दू और अंग्रेजी मनमोहन कुमार आर्य में मुलतान व लाहौर में सम्पन्न हुई थी। जन्म से ही आप अत्यन्त मेधावी थे और वैरागी प्रकृति के थे। विद्यार्थी जीवन व युवावस्था में पुस्तकों को पढ़ने में आपकी सर्वाधिक रुचि वा लगन थी। जो भी पुस्तक हाथ में आती थी उसे आप अल्प समय में ही आद्योपान्त पढ़ डालते थे। बचपन में ही आपने उर्दू व अंग्रेजी के प्रसिद्ध विद्वानों के ग्रन्थों को पढ़ लिया था। उर्दू में कविता भी कर लेते थे। विज्ञान आपका प्रिय विषय था। पाश्चात्य वैज्ञानिकों की तरह ही आप नास्तिक तो नहीं परन्तु ईश्वर के अस्तित्व में संशयवादी अवश्य हो गये थे। लाहौर स्थित देश के सुप्रसिद्ध गर्वनमेंट कालेज के आप सबसे अधिक मेधावी व योग्यतम विद्यार्थी थे तथा अपनी कक्षा में सर्वप्रथम रहा करते थे। विज्ञान में एम.ए. में भी आप पूरे पंजाब में सर्वप्रथम रहे जिसमें सारा पाकिस्तान एवं दिल्ली तक भारत के अनेक भाग सम्मिलित थे। यद्यपि आप व्यायाम आदि करते थे और स्वास्थ्य का ध्यान भी रखते थे परन्तु पढ़ने का शौक ऐसा था कि इस कारण से आप असावधानी कर बैठते थे। 26 वर्ष की आयु पूरी होने से एक सप्ताह पूर्व ही आपका देहान्त हो गया था। इस कम आयु में भी आपने अनेक अविस्मरणीय कार्य किए जिससे आपको सदा याद किया जाता रहेगा। आपने महर्षि दयानन्द के बाद स्वयं को उन जैसा बनाने का प्रयास किया था। वैदिक विद्याओं एवं वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार में आपकी भी वही भावना थी और वैसा ही उत्साह था जैसा कि महर्षि दयानन्द में देखने को मिलता था। इसलिए सभी मित्र और निकट सहयोगी आपको वैदिक धर्म का सच्चा विद्वान व नेता स्वीकार करते थे।

पं. गुरूदत्त विद्यार्थी को इस बात का श्रेय प्राप्त था कि उन्होंने महर्षि दयानन्द के न केवल दर्शन ही किए थे अपितु उनकी मृत्यु के दृश्य को कुछ ही दूरी से समाने से देखा था। उन दिनों आप ईश्वर के अस्तित्व के प्रति संशयवादी थे।  जिन शरीरिक कष्टों से महर्षि दयानन्द आक्रान्त थे और उस पर भी जिस सहजता से उन्होंने मृत्यु का संवरण किया उसे देखकर पण्डित गुरुदत्त जी दंग रह गये थे और उनका नास्तिकता मिश्रित संशयवाद तत्क्षण दूर हो गया था। इस घटना के बाद तो आपका जीवन पूरी तरह से ज्ञानार्जन, वेदों के प्रचार-प्रसार व सामाजिक कार्यों में व्यतीत हुआ। इन कार्यों में जहां कुछ पत्र- पत्रिकाओं का सम्पादन व उच्चस्तरीय लेखों का प्रणयन शामिल था वहीं उन्होंने दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूल की स्थापना में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। डी.ए.वी. स्कूल के लिए धन संग्रह का जो कार्य किया गया उसमें सबसे प्रमुख व प्रभावशाली सफल भूमिका आपकी ही थी। आप जिस स्थान पर भी डीएवी स्कूल की स्थापना पर उपदेश करते थे तो लोग भावविभोर होकर अपना समस्त वा अधिकांश धन दान कर देते थे। वह डीएवी के आन्दोलन से पूरी आत्मना जुड़े थे और जब डीएवी में अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव अधिक हो गया और संस्कृत व हिन्दी भाषा को उसका उचित स्थान नहीं मिला, तो आप उससे पृथक भी हो गये थे। यदि आपने डीएवी के लिए अपना योगदान न दिया होता तो हम कल्पना कर सकते हैं कि शायद डीएवी आन्दोलन सफल न हुआ होता, अतः डीएवी के विकास व उन्नति में आपका योगदान चिरस्मरणीय रहेगा।

महर्षि दयानन्द के बाद उनके साक्षात शिष्यों में आर्ष संस्कृत व्याकरण का कोई प्रमुख प्रथम विद्वान हुआ तो वह आप ही थे। आपने आर्य समाज, लाहौर की सदस्यता लेकर संस्कृत का अध्ययन आरम्भ कर दिया था। आप मेधावी तो थे, इसलिये संस्कृत का आपका अध्ययन शीघ्र ही पूरा हो गया था। न केवल आपने संस्कृत पढ़ी ही अपितु उस युग में प संस्कृत के सबसे बड़े समर्थक थे। यह बात तब थी जब कि आपका अंग्रेजी पर असाधारण अधिकार था। आज भी  ग्रेजी के विद्वानों को आपके ग्रन्थों को पढ़ने के लिए अंग्रेजी के शब्द कोषों आदि का सहारा लेना पड़ता है। संस्कृत के प्रचार-प्रसार का कार्य महर्षि दयानन्द के बाद यदि प्रथम प्रभावशाली रूप से किसी ने किया तो वह पं. गुरुदत्त जी ने ही किया। आपने अपने घर पर ही संस्कृत श्रेणी व कक्षायें खोल रखी थी जिसमें सरकारी सेवा में कार्यरत बड़ी संख्या में लोग संस्कृत अध्ययन किया करते थे जिनमें कई उच्चाधिकारी थे। संस्कृत पर आपके असाधारण अधिकार का प्रमाण आपका ईश, माण्डूक्य व मण्डूक उपनिषदों का अंग्रेजी में किया गया प्रभावशाली व प्रशंसनीय भाष्य वा अनुवाद है। यह कार्य उन दिनों सरल नहीं था और इस कोटि का भाष्य अंग्रेजी में किया जाना शायद् किसी के लिए भी सम्भव नहीं था। भारतीय धर्म व संस्कृति का मूल आधार वेद और वैदिक साहित्य है जो संसार में प्राचीनतम व उत्पत्ति व रचना की दृष्टि से प्रथम है। अंग्रेज भारत में आये तो भारतीयों को गुलाम बनाया और चाहते थे कि उनका शासन चिरस्थाई हो। उन्होंने यहां के धर्म व धर्म ग्रन्थों का अध्ययन भी किया व कराया जिससे यह निष्कर्ष निकला कि भारतीय धर्म व संस्कृति के ग्रन्थों का मिथ्यानुवाद व तिरस्कार किये बिना अंग्रेजों का राज्य स्थाई रूप नहीं ले सकेगा। अतः प्रो. मैक्समूलर आदि अनेक अंग्रेज विद्वानों ने संस्कृत का अध्ययन कर वेद और वैदिक साहित्य पर असत्य, भ्रामक, अविवेकपूर्ण व पक्षपातपूर्ण टिप्पणियां कीं।

वह अपने उद्देश्य में अवश्य सफल होते यदि महर्षि दयानन्द का भारत में प्रादूर्भाव न हुआ होता। महर्षि दयानन्द ने भारत को स्थाई रूप से गुलाम बनाने के मार्ग को वेदों के सत्यस्वरूप का प्रचार करके अवरुद्ध कर दिया। एक ओर जहां सभी विदेशी विद्वानों ने सायण वा महीधर के भाष्यों को अपने अध्ययन व प्रचार का साधन व उद्देश्य बनाया, वहीं महर्षि दयानन्द ने अपने संस्कृत व वैदिक साहित्य के अपूर्व वैदुष्य से सायण, महीधर आदि सभी वेदभाष्यकारों की सप्रमाण त्रुटियां इंगित कर उन्हें मिथ्या व अयथार्थ सिद्ध किया। महर्षि दयानन्द की मृत्यु उनके विरोधियों द्वारा विषपान से 30 अक्तूबर, सन् 1883 को अजमेर में हुई। उनके समय व बाद के समय में विदेशियों द्वारा भारतीय धर्म व संस्कृति मुख्यतः वेद और वैदिक साहित्य पर आक्षेप होते रहे जिसका प्रबल प्रतिवाद व सप्रमाण खण्डन पं. गुरुदत्त विद्यार्थी ने अपने अंग्रेजी लेखों  व पुस्तकों के द्वारा किया। यहां हम उनके अंग्रेजी में लिखे गये लघु व अन्य ग्रन्थों का परिचय देना उचित समझते हैं। उनके ग्रन्थ हैं – The Terminology of the Vedas, The Terminology of the Vedas and the European Scholars, Origin of Thought and Language, Vedic Texts Nos. 1-3 (Vayu Mandal, Water and Grihastha), Ishopanishat, Mandukyopanishat, Mundakopanishat, Evidences of Human Spirit, The Realities of Inner Life,  Pecuniomania, Righteousness of Unrighteousness of Flesh Eating, Man’s Progress Downwards, The Nature of Conscience, Conscience and the Vedas, Religious Sermons, A reply to Some Criticism of Swami’s Veda Bhashya, Criticism on Monier Williams’ Indian Wishdom etc. etc.  अल्पायु में मृत्यु हो जाने के कारण बहुत से उनके ग्रन्थों को सुरक्षित नहीं रखा जा सका जो कि विद्वानों व अध्येताओं के लिए एक बहुत बड़ी हानि है। पण्डित जी का जीवन बहुआयामी जीवन था। उन पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है। लेख की सीमा होती है अतः इतना कहना ही समीचीन है कि उन्होंने प्राणों की चिन्ता किए बिना वेदों के प्रचार प्रसार का कार्य किया। वह लोकप्रिय वक्ता व उपदेशक थे। जनता उनके विचारों को ध्यान से सुनती थी और उनकी बातों का पालन करती थी। वह ऐसे वक्ता थे जिनकी कथनी व करनी एक थी। वह अपने जीवन का एक-एक क्षण वैदिक धर्म, संस्कृति के उत्थान व संवृद्धि के लिए व्यतीत करते थे। उनके कार्यों का उद्देश्य वैदिक धर्म का अभ्युदय, सामाजिक सुधार व देश सुधार, अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि, लोगों को ज्ञानी बनाकर देश व विश्व से सभी प्रकार के अज्ञान व अन्धविश्वासों को दूर करना आदि था। वह अपने समय के सबसे कम आयु के अजेय धार्मिक योद्धा थे। उनके कार्यों से वैदिक धर्म का संवर्धन हुआ जिसके लिए देश और समाज उनका ऋणी है। उनकी मृत्यु क्षय रोग से 19 मार्च, सन् 1890 को लाहौर में प्रातःकाल हुई थी। मृत्यु के समय उनकी आयु 26 वर्ष थी। परिवार में उनकी माता, पत्नी व दो छोटे पुत्र थे। सहस्रों लोग उनकी अन्त्येष्टि में सम्मिलित हुए थे। पण्डित जी की मृत्यु पर न केवल आर्य समाज के नेताओं ने अपितु अनेक मतों के विद्वानों ने भी उन्हें श्रद्धाजंलि देते हुए शोक प्रकट किया था। पण्डित जी ने इतिहास में वह कार्य किया जिसका देश व विश्व पर गहरा प्रभाव हुआ। अपने कार्यों से वह सदा-सदा के लिए अमर रहेंगे। उनका साहित्य, जीवन दर्शन व कार्य ही उनके स्मारक हैं। पुण्य तिथि पर उन्हें विनम्र हार्दिक श्रद्धांजलि।

-मनमोहन कुमार आर्य

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