आपका व्यवहार और जीवन दृष्टि

3
302

लेखक- तरूण विजय

बहुत आसान है वेद, पुराण, मनुस्मृति और अन्य शास्त्रीय ग्रंथ उठाकर सामने रखना और कहना कि इनमें कहीं भी अस्पृश्यता को मान्य नहीं किया गया है और व्यक्ति अपने कर्म के अनुसार समाज में सम्मान पाता है अत: जाति और जन्म के अनुसार जो सामाजिक स्थान का निरुपण करते हैं वे गलत हैं। अक्सर यह कहने के बाद सब वही करने लग जाते हैं जो नहीं करने के लिए कहकर वे मंच से नीचे उतरे होते हैं। इससे बढ़कर चुभने वाली बात और क्या होगी? क्या वेद और पुराण पढ़कर कोई अस्पृश्यता का व्यवहार तय करता है या उसके विरुध्द खड़ा होता है? वेदों में वह लिखा है या नहीं लिखा है, इसकी बहस करने वाले स्वयं अपने जीवन-व्यवहार में अस्पृश्यता का सबसे अधिक व्यवहार करने वाले देखे जाते हैं। हमारे खून में, हमारी रगों में, हमारी मानसिकता में इतने गहरे बैठ गए हैं ये भेद कि सार्वजनिक मंच की आवश्यकता के अनुसार माइक पर हम भले ही समरसता की बात करें या उसके बारे में पुस्तकें लिख दें, लेकिन धरातल पर तो उसका कोई अंश उतरता नहीं। समरसता की पुस्तकें कर्मकांड के नाते सिर्फ उन्हीं वर्गों में लिखी और पढ़ी जाती हैं जो केवल अपनी ही जाति के अहंकारी दायरों में विचरण करते हैं। समरसता के संकल्प भी इन्हीं दायरों में लिए जाते हैं। आप किसी भी ऐसे बड़े कार्यक्रम में जाएं, मंच से लेकर श्रोताओं की अंतिम कुर्सी तक नजर घुमा लीजिए, 95 प्रतिशत तो वही मिलेंगे जिनके कारण जाति भेद और स्पृश्य- अस्पृश्य का व्यवहार जिंदा है।

कहानियां, कथाएं, उध्दरण, गीता, रामायण, महाभारत और वेदों से लिए गए श्लोक तथा ऋचाएं, सब इकट्ठा करके अगर आप यह बता भी दें कि अस्पृश्यता कभी हिन्दू धर्म का अंग नहीं रही है तो भी क्या हरिद्वार, वृंदावन, द्वारका और रामेश्वरम में बैठे संत, महात्मा, प्रवचनकार और विभिन्न संगठनों के नकचढ़े नेता दलितों को अपनाने लगेंगे? उनसे रोटी-बेटी का संबंध वैसा ही स्वाभाविक होगा जैसे व्यापारी, राजपूत, ब्राह्मण आपस में करते हैं? ये तो बहुत दूर की बात है। अपने निजी कार्यक्रमों के निमंत्रण पत्रों की सूची ही देख लीजिए। सच्चाई यह है कि यह हमारे दायरे, पैसा, प्रभाव और अपनी ही जाति का वृत्त परिभाषित करती हैं। निमंत्रण सूची में दलितों का नाम है या नहीं, यह तो इस बात पर निर्भर करेगा कि दलितों में हमारी मित्रता है या नहीं और मित्रता के दो ही कारण होते हैं, स्वाभाविक प्रेम या कामकाज और रिश्तेदारी का साथ। यह स्थिति यदि नहीं है तो आप लाख कहते रहें संग-साथ होगा नहीं और यह बात जबरन नहीं की जा सकती। समझाने और समझने का ही मामला है। मन बदलेगा तो बात बदलेगी।

बालक तिण्ण की कथा है। आंध्र में एक पर्वत में शिव मंदिर था। हर रोज पुजारी पूजा करता, साफ सफाई करता और रात को घर लौटता। कुछ दिनों से वह देखने लगा कि हर रोज शिवलिंग पर सुअर का मांस चढ़ा होता है। शिव-शिव कहते हुए पुजारी ने कान पकड़ लिए, प्रभु यह तो घोर अनर्थ हो गया। आपका घोर अपमान हो गया। खूब चौकीदारी करता, बैठा रहता लेकिन फिर भी जरा सी आंख लग जाती। घर जाकर लौटता तो वापस सुअर का मांस और गंदा सा पानी वहां चढ़ा दिखता। यह जन्म तो मेरा गया ही यह सोचकर पुजारी ने ठान लिया कि दिन रात वहीं कहीं छुपकर बैठा रहेगा और देखेगा कि कौन पापी यह अधर्म कर रहा है। और फिर अचानक सुबह 4 बजे के अंधेरे में उसे दिखा कि एक वनवासी बालक दोनों हाथों में कुछ लिए आया वह उसने शिव लिंग पर चढ़ाया और अपने मुंह में भरा पानी शिव पर अर्पित कर दिया। पुजारी का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। तुरंत उतरा और लगा उस वनवासी बालक को पीटने। अरे मूर्ख, अधर्मी तू यह क्या कर रहा है। वनवासी बालक हतप्रभ होकर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। पुजारी ने उसे कभी न आने की हिदायत दी। मंदिर की सफाई की और शिव शिव करता घर लौटा। दुख के मारे भोजन भी नहीं किया और सो गया। रात को शिव जी ने दर्शन दिए और कहा कि अरे मूर्ख उस वनवासी बालक को तुमने पीट कर मुझे चोट पहुंचाई। वह जितनी श्रध्दा से मांस लाता था और जब उसके पास कोई पात्र नहीं तो प्रेम के कारण अपने मुंह में ही नदी का जल भरकर नियमित रुप से सुबह ब्रह्ममर्ूहुत्त में चढ़ाने आता तो उसकी भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न होता था। जाओ उससे क्षमा मांगो।

इस कथा का मर्म क्या? यह क्या तथाकथित ऊंची जाति का अहंकार रखते हुए सिर्फ और सिर्फ बुध्दि विलास, वाणी विलास और शब्द विलास करने वाले तीर्थयात्रियों को गंगा तट पर ही धर्महीन लूट से संत्रस्त करने वाले पंडे और नकचढ़े समझेंगे? आज तक वे काशी में तो न शिव मंदिर के आसपास सफाई रख सके न गंगा तट पर। कभी उन्होंने सोचा है कि दुनिया भर से तीर्थ दर्शन के लिए आने वाले हिन्दू यात्रियों पर क्या बीतती है? जब तक हम शिव मार्ग से वंचित दलितों का पाद पूजन कर उन्हें गंगा के अभिषेक का चंदन नहीं बनाएंगे तब तक हमारा प्रायश्चित भी पूरा नहीं होगा और न काशी न हिन्दू समाज विषमता के दंश से मुक्त होगा।

हमारे यहां उदाहरणों की कमी नहीं है। आदि शंकर ने श्वान, श्वपच, वंचित और ब्राह्मण में गज और अश्व में एक ही गोविंद के दर्शन किए और उन्हीं गोविंद के अनुयायियों ने समाज को सनातन सत्य की मुख्य धारा में समाहित करते हुए आगे बढ़ने की अपेक्षा रुढ़ियों और कर्मकांडों की बेड़ियों में जकड़ दिया। दुख इस बात का है कि जो लोग फिल्म में विद्रूपता के विरोध में खड़े हुए वे मंदिरों में स्वच्छता, सामान्य तीर्थयात्री के लिए सुव्यवस्था, मंदिर तक जाने वाली गली को तो कम से कम थोड़ा साफ सुथरा और नंगे पांव पैदल चलने लायक बनाने की ओर ध्यान देने का काम जरुरी क्यों नहीं मानते? उनके लिए सौंदर्य प्रतियोगिताओं और वेलेनटाइन डे का विरोध जरूरी है, पर दहेज हत्याओं, कन्या भ्रूण हत्याओं, जानवरों की तरह पढ़े-लिखे लड़कों की शादी में नीलामी का विरोध महत्वपूर्ण क्यों नहीं? हमें सावधान रहना होगा कि समरसता की बात गोहत्या पर विरोध की तरह पर्चों और बयानों का विषय मात्र बनकर न रह जाए। इस देश में गोहत्या में सर्वाधिक संलिप्तता सवर्ण हिन्दुओं की है। भले ही उनका कामकाज, आचरण अक्सर घिनौने अपराधों का हो, लेकिन हम तो इतने गिर चुके हैं कि कई बार अपराधी की जात देखकर सजा के फैसले तय करते हैं। वह तो ‘छोटी जात’ का है ‘शडूलकास्ट’ है, ‘आदिवासी’ है इतना भर नाक सिकोड़कर फुसफुसाहट के साथ कहना पीढ़ियों को लांछित और मर्माहत कर देता है इसका अहसास तक नहीं किया जाता।

वे भूल जाते हैं कि राम ने शबरी के झूठे बेर खाए थे और जिन रामानुजाचार्य ने मोक्षदायी मंत्र छत पर चढ़कर दीन दलितों को सुनाया था और जिन मीरा ने जूते बनाने वाले संत कवि रैदास को अपना गुरु माना, उनका भक्त होने का अर्थ यह नहीं होता कि हम सवा रुपए का प्रसाद चढ़ाकर अपनी मनोकामनाएं पूरी करवाते रहें। जो सौदेबाजी का मामला है वह धर्म नहीं है बल्कि क्षुद्र और संकीर्ण कर्मकांड है। धर्म तो वह है जो चर्म के भेद को नकार कर कर्म के मर्म से रिश्ता जोड़े। एक दिन तो इसी अग्नि में स्वयं को परम पावन प्रात: स्मरणीय मानने वाले भी समर्पित होंगे और श्मशान में काम करने वाले सेवक भी। सिर्फ चमड़ी और जन्म के भेद को जो माने वह न कान्हा का हो सकता है न रघुवर का। तय आपको करना है कि आप किसके हैं?

हमारी शूरता, वीरता, समाज के प्रति चिंता सिर्फ शब्दों के गलियारों तक सिमट गई है। इस अंक के लिए हमने अनेक प्रांतों से जानकारी चाही कि क्या उनके क्षेत्र में कोई ऐसा मंदिर है जहां सामान्यत: गांव, नगर के सभी लोग जाते हों लेकिन जहां का पुजारी वह पूर्वकालीन हरिजन हो जो मंदिर का कामकाज भी संभाल रहा हो। हमें इस जानकारी की अभी तक प्रतीक्षा है।

पैसा और पद आ जाए तो समाज में सब कुछ ठीक हो जाता है ऐसा भी कहा जाता है। कुछ स्थितियों में ऐसे बहुत अच्छे उदाहरण भी हमें मिलते हैं लेकिन वे उदाहरण अपवाद ही बने हुए हैं।

ऐसा नहीं है कि काम नहीं हो रहा है या लोगों के मन नहीं बदल रहे या विषमता के खिलाफ हिन्दू समाज में उबाल नहीं उठ रहा है।

परिवर्तन के इस दौर में अग्रगामी ध्वजवाहक निश्चय ही रा0स्व0संघ के साधारण स्वयंसेवक हैं। आज भी भारत में जाति भेद से परे उठकर दहेज रहित सर्वाधिक विवाह स्वयंसेवक परिवारों में ही होते हैं। वे स्वयंसेवक ही हैं जो जाति का आग्रह छोड़ते हुए केवल भारत भक्ति के आधार पर एक धर्म हिन्दू, एक जात हिन्दू, एक गोत्र हिन्दू, एक पथ हिन्दू, एक स्वप्न, समरस समृध्द सशक्त हिन्दू समाज का भाव लेकर चल रहे हैं। एक ओर जहां विश्व हिन्दू परिषद् के माध्यम से गांव-गांव में शिक्षा, समरसता और रामकथाओं के अमृत संदेश पहुंचाए जा रहे हैं वहीं वनवासी कल्याण आश्रम समरसता के अमृत अधिष्ठान के रुप में उभर कर सामने आया है। पूर्वांचल से पश्चिमांचल तक और लेह से लोहरदगा और लोहरदगा से पोर्टब्लेयर तक जनजातीय और गैर जनजातीय समाज के मध्य सेतुबंध का दूसरा नाम कल्याण आश्रम स्वाभाविक रुप से कहा जा सकता है। इस प्रकार माता अमृतानंदमयी जो स्वयं मछुआरा जाति से होते हुए भी विश्व भर में सनातन धर्म के संदेश की सर्वाधिक प्रमुख व्याख्याता बनी हैं समरस हिन्दू समाज का अमृतोपम उदाहरण है। साध्वी ऋतम्भरा का वात्सल्य ग्राम समरसता का प्रकाश स्तम्भ बना है। स्वामिनारायण पंथ तथा स्वाध्याय परिवार, निरंकारी समाज और श्री श्री रविशंकर की प्रखर हिन्दू निष्ठ समरस जीवन दृष्टि का नूतन स्वरुप ही एक आशादायी भविष्य का संकेत देता है। काशी में विश्व हिन्दू परिषद् ने डोम राजा का स्वागत किया, उनके घर पर देश के पूज्यपाद संतों ने भोजन किया, शंकराचार्य जी ने नागपुर में दीक्षाभूमि जाकर डा. अम्बेडकर को भावपुष्प अर्पित किए- यह सब सत्य सनातन समरस जीवन के सूर्योपमउदाहरण हैं जिनकी पृष्ठभूमि में एक ही नाम है-माधवराव सदाशिवराव गोलकर। ये सभी उदाहरण हमें परम पूज्य श्री गुरुजी के समरस हिन्दू समाज के स्वप्न को साकार करने का बल देते हैं। परंतु अभी भी ये उदाहरण ही हैं। हमें प्रयास तो यह करना है कि ऐसे उदाहरण बताए जाने की आवश्यकता भी न रहे।

(लेखक डॉ. श्यामाप्रसाद मुकर्जी शोध संस्थान के निदेशक हैं.)

Previous articleक्या यह आर्थिक मॉडल वास्तव में भारतीय है?
Next articleसांस्कृतिक राष्ट्रवाद
तरुण विजय
तरुण विजय भारतीय राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत पत्रकार एवं चिन्तक हैं। सम्प्रति वे श्यामाप्रसाद मुखर्जी शोध संस्थान के अध्यक्ष तथा भाजपा के राष्‍ट्रीय प्रवक्‍ता व सांसद हैं। वह 1986 से 2008 तक करीब 22 सालों तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र पाञ्चजन्य के संपादक रहे। उन्होंने अपने करियर की शुरूआत ब्लिट्ज़ अखबार से की थी। बाद में कुछ सालों तक फ्रीलांसिंग करने के बाद वह आरएसएस से जुड़े और उसके प्रचारक के तौर पर दादरा और नगर हवेली में आदिवासियों के बीच काम किया। तरुण विजय शौकिया फोटोग्राफर भी हैं और हिमालय उन्हें बहुत लुभाता है। उनके मुताबिक सिंधु नदी की शीतल बयार, कैलास पर शिवमंत्रोच्चार, चुशूल की चढ़ाई या बर्फ से जमे झंस्कार पर चहलकदमी - इन सबको मिला दें तो कुछ-कुछ तरुण विजय नज़र आएंगे।

3 COMMENTS

  1. तरु विजय जी एक ईमानदार, देशभक्त और संवेदनशील विचारक होने के कारण दलितों की दशा से पीड़ित हैं और दुखी हैं समाज के उन ठेकेदारों से जिनकी कथनी-करनी भिन्न है.
    * इस अस्पृश्यता के विषधर सांप की जड़ें हमारे अतीत में बतलाकर इसे मजबूत बनाने के प्रयास अनेक दशकों से चल रहे हैं. पर ये सच है क्या ??? जी नहीं. अतीत में अस्पृश्यता के प्रचलन के कोई प्रमाण नहीं मिलते. यह सत्य उजागर करने से कई उद्देश्य पूरे होते हैं. (१) अनेक भारतीयों और दलितों की हीन ग्रंथी समाप्त होगी कि यह कुरीति अतीत कल से हिन्दू समाज का अंग है. (२) हिन्दू समाज में विद्वेष का बीज बोकर धर्मांतरण करने और देश को दुर्बल बनाने का ‘ऐतिहासिक’ औज़ार दुर्बल होगा. (३) पूर्वजों के व्यवहार से प्रेरणा पाकर सज्जन लोग अस्पृश्यता को समाप्त करने हेतु संबल प्राप्त कर सकेंगे.(४) अस्पृश्यता का नैतिक संबल व आधार समाप्त होता है. …# अतः निम्न ऐतिहासिक तथ्यों को ध्यान में रखना व प्रचारित करना उपयोगी होगा. इन ऐतिहासिक तथ्यों को जानने से भारत के प्रति गौरव भाव भी बढ़ता है जो कि हमारी बहुत बड़ी ज़रूरत है. ……………….

    सन १८२० में एडम नामक अँगरेज़ ने एक सर्वेक्षण किया. एक सर्वेक्षण टी. बी. मैकाले ने १८३५ करवाया था. इन सर्वेक्षणों से अनेक तथ्यों के इलावा ये पता चलता है कि तब तक भारत में अस्पृश्यता नाम की बीमारी नहीं थी.
    यह सर्वे बतलाता है कि—
    # तब भारत के विद्यालयों में औसतन २६% ऊंची जातियों के विद्यार्थी पढ़ते थे तथा ६४% छोटी ( तब छोटी, बड़ी जाती के स्थान पर द्विज और अन्त्यज शब्द के प्रचालन का पता चलता है.) जातियों के छात्र थे. जब ये सब साथ पढ़ते थे तो अस्पृश्यता कहाँ थी ?
    # १००० शिक्षकों में २०० द्विज / ब्राह्मण और शेष डोम जाती तक के शिक्षक थे. स्वर्ण कहलाने वाली जातियों के छात्र भी उनसे बिना किसी भेद-भाव के पढ़ते थे.पुनः प्रश्न है कि तब स्पृश्यता कहाँ थी ?
    # दक्षिण भारत में १५०० मेडिकल कालेज व २२०० इंजीनियरिंग कालेज थे ( कमाल है! ) जिनमें एम.ई. स्तर की शिक्षा दी जाती थी.
    # मेडिकल कालेजों के अधिकांश सर्जन नाई जाती के थे और इंजीनियरिंग कालेज के अधिकाँश आचार्य पेरियार जाती के थे. स्मरणीय है कि आज छोटी जाति के समझे जाने वाले इन पेरियार वास्तुकारों ने ही मदुरई आदि दक्षिण भारत के अद्भुत वास्तु वाले मंदिर बनाए हैं.
    # तब के मद्रास के जिला कलेक्टर ए.ओ.ह्युम ( जी हाँ, वही कांग्रेस संस्थापक) ने लिखित आदेश निकालकर पेरियार वास्तुकारों पर रोक लगा दी थी कि वे मंदिर निर्माण नहीं कर सकते. इस आदेश को कानून बना दिया था.
    # ये नाई सर्जन या वैद्य कितने योग्य थे इसका अनुमान एक घटना से हो जाता है. सन १७८१ में कर्नल अल्काट या कूट ने ( नाम विस्मरण हो रहा है) हैदर अली पर आक्रमण किया और उससे हार गया . हैदर अली ने को मारने के बजाय उसकी नाक काट कर उसे भगा दिया. भागते, भटकते वह बेलगाँव नामक स्थान पर पहुंचा तो एक नाई सर्जन को उसपर दया आगई. उसने कर्नल की नई नाक कुछ ही दिनों में बनादी. हैरान हुआ कर्नल ब्रिटिश पार्लियामेंट में गया और उसने सबको अपनी नाक दिखा कर बताया कि मेरी कटी नाक किस प्रकार एक भारतीय सर्जन ने बनाई है. नाक कटने का कोई निशान तक नहीं बचा था. उस समय तक दुनिया को प्लास्टिक सर्जरी की कोई जानकारी नहीं थी. तब इंग्लॅण्ड के चकित्सक उसी भारतीय सर्जन (नाई) के पास आये और उससे शल्य चिकित्सा, (प्लास्टिक सर्जरी) सीखी. उसके बाद उन अंग्रेजों के द्वारा यूरोप में यह प्लास्टिक सर्जरी पहुंची.पर उन क्रिताग्नों ने इसका श्री कभे भारत को नहीं दिया)
    ### अब ज़रा सोचें कि भारत में आज से केवल १७५ साल पहले तक तो कोई जातिवाद याने छुआ-छूत नहीं थी. कार्य विभाजन, कला-कौशल की वृद्धी, समृद्धी के लिए जातियां तो ज़रूर थीं पर जातियों के नाम पर ये घृणा, विद्वेष, अमानवीय व्यवहार नहीं था. फिर ये कुरीति कब और किसके द्वारा और क्यों प्रचलित कीगई ? हज़ारों साल में जो नहीं था वह कैसे होगया? अपने देश-समाज की रक्षा व सम्मान के लिए इस पर खोज, शोध करने की ज़रूरत है. यह अमानवीय व्यवहार बंद होना ही चाहिए और इसे प्रचलित करने वालों के चेहरों से नकाब हमें हटानी चाहिए. साथ ही बंद होने चाहिए ये भारत को चुन-चुन कर लांछित करने के, हीनता बोध जगाने के सुनियोजित प्रयास. हमें अपनी कमियों के साथ-साथ गुणों का भी तो स्मरण करते रहना चाहिए जिससे समाज हीनग्रंथी का शिकार न बन जाये. यही तो करना चाह रहे हैं हमें कजोर बनाने वाले. उनकी चाल सफ़ल करने में‚ सहयोग करना है या उन्हें विफ़ल बनाना है? ये ध्यान रहे!

  2. विजय बहुगुणा ने गंगा बेसिन अथारिटी की बैठक में प्रधानमंत्री की उपस्थिति में ये कहा की भगत सिंह कोश्यारी और तरुण विजय दोना बांध के पक्ष में है अगर आप ने इसकी सफाई नहीं दी तो विरोध झेलने के लिए तैयार रहे

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here